ज्यों-ज्यों बर्फ का पिघलना जारी रहेगा, इस क्षेत्र में गर्मी और बढ़ती जाएगी। इससे समुद्र का तापमान भी बढ़ेगा, जो न सिर्फ समुद्री जीवों को प्रभावित करेगा बल्कि समुद्री यातायात को भी प्रभावित करेगा। इस तरह के परिवर्तन की वजह से पृथ्वी के अन्य भाग भी प्रभावित होंगे। फिलहाल आर्कटिक के स्वरूप में बदलाव तो साफ-साफ नजर आ ही रहा है।
सन् 2010 रिकार्डिड मौसम इतिहास का सबसे गर्म साल रहा है। यूरोप ही नहीं भारत के मामले में भी यह तथ्य निष्कर्ष के रूप में सामने आया है, लेकिन इसी 2010 में पूरा यूरोप, आधे से ज्यादा अमरीका, कनाडा और रूस के साथ-साथ चीन और भारत में जिस तरह की कड़ाके की ठंड पड़ी वह भी दिल दहला देने वाला नजारा रहा। दिसम्बर माह के आखिर में तो ऐसा लग रहा था जैसे यूरोप में हिमयुग लौट आया हो। भारत में भी जिस तरह कड़ाके की ठंड पड़ी उसने लोगों को झकझोरकर रख दिया। उड़ीसा के क्योंझर जैसे आमतौर पर गर्म रहने वाले जिले में जिस तरह बर्फ की पपड़ी हर तरफ जमी पायी गयी, अजमेर, बाड़मेर और जैसलमेर में मौसम जमा देना वाला रहा व राजस्थान के एकमात्र हिल स्टेशन माउंटआबू में एक पखवाड़े से भी ज्यादा -4 से -5 डिग्री तापमान रहा। वह सब इस बात का संकेत है कि मौसम विद्रोही हो चला है। आखिर मौसम के इस अतिवाद का क्या मतलब है? इसके क्या संकेत हैं? वास्तव में मौसम के इस अतिवादी रूख का कारण धरती के पर्यावरण में लगातार बढ़ता असंतुलन और जैव पारिस्थितिकी में आयी गड़बड़ी है।
यह महज संयोग नहीं है कि हर गुजरते साल मौसम विद्रोही होता जा रहा है। केवल गर्मी ही नहीं सर्दी और बारिश भी कहर ढा रही हैं। लगभग एक सदी बाद ऑस्टेलिया में जनवरी माह में जैसी भयंकर बाढ़ आयी वैसी बाढ़ पिछले सौ सालों में नहीं आयी थी, लेकिन सिर्फ यह अनहोनी ऑस्ट्रेलिया, अमरीका या यूरोप में ही नहीं घटी, भारत में भी इस साल बारिश में देश के कई हिस्सों में जबर्दस्त बाढ़ आयी जिसमें लेह लद्दाख जैसा क्षेत्र भी शामिल रहा जो बारिश के मामले में राजस्थान जैसा ही है। कहने का मतलब यह है कि सर्दी हो या गर्मी या बारिश। मौसम कुदरत के जिस संतुलन से संचालित थे, वह संतुलन गड़बड़ा गया है लेकिन बात सिर्फ यहीं तक नहीं सीमित। कुछ सालों पहले नासा के वैज्ञानिकों ने एक रिपोर्ट जारी करके कहा था कि पृथ्वी पर बढ़ती गर्मी की वजह से आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ की परत निरंतर पतली होती जा रही है और इस कारण उसका आकार भी बदलता जा रहा है। इस आंकलन को पहले शक की नजरों से देखा गया था लेकिन अब इसकी पुष्टि की गयी है।
वरिष्ठ शोध वैज्ञानिक जोसेफिनो कॉमिसो ने कुछ सालों पहले बताया था कि पिछले एक दशक में आर्कटिक क्षेत्र का तापमान काफी तेजी से बढ़ा है, खासकर उत्तरी अमेरिका के आसपास। इस क्षेत्र में पृथ्वी की सतह पर किए गए अध्ययन से पता चलता है कि पिछले 100 सालों की तुलना में 1981 से 2001 तक आर्कटिक के तापमान में आठ गुना वृद्धि हुई है। जोसेफिनो की यह शोध रिपोर्ट उपग्रहों के विभिन्न आंकड़ों पर आधारित थी। ये आंकड़े नेशनल ऑसिएनिक एंड एटमॉसफेरिक एडमिनिस्ट्रेशन द्वारा दिए गए थे। इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि आर्कटिक प्रदेश में समुद्री बर्फ का तापमान 2 डिग्री फॉरेनहाइट प्रति दशक लगातार बढ़ रहा है। बढ़ती गर्मी का इस क्षेत्र में यह असर देखने को मिला है कि बर्फ का पिघलना तो लगातार जारी ही है, बसंत ऋतु भी जल्दी आने लगी है और अधिक गर्म भी रहने लगी है। कोलोरैडो-बॉल्डर विश्वविद्यालय के एक अन्य नासा शोधकर्ता मार्क सेरेज के अनुसार, बढ़ती गर्मी के लिए किस हद तक प्राकृतिक प्रकिया और किस हद तक मानवीय कार्य जिम्मेदार हैं यह एक अलग बहस का मुद्दा है पर इतना जरूर है कि इस कारण वातावरण में बदलाव आ रहा है और आर्कटिक पर इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर है। वास्तव में इस साल की भयानक ठंड भी उसी बदलाव का एक रूप है।
अमेरिका और कनाडा की एक संयुक्त रिसर्च टीम ने भी अपने अध्ययन के आधार पर एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके तहत यह बताया गया था कि आर्कटिक की सबसे बड़ी 270 वर्गमील आकार की बर्फीली चट्टान वार्ड हंट आइस शेल्फ में दरार आ गई है। हजारों सालों में ऐसा पहली बार हुआ है। निःसंदेह यह बर्फ के पिघलने का ही लक्षण है। इसी तरह चीनी वैज्ञानिकों ने भी 74 दिनों की आर्कटिक यात्रा के बाद एक अत्यंत महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि समुद्री बर्फ की औसत मोटाई अब सिर्फ 8.8 फीट ही रह गई है जबकि यह मोटाई 1980 के आसपास 15 फीट से भी अधिक थी। यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के समुद्री विशेषज्ञ माइकल स्टील के अनुसार, आर्कटिक क्षेत्र में बर्फ का पिघलना आर्कटिक के आकार में बदलाव के साथ-साथ आने वाले समय में मौसम में भी बदलाव लाएगा। जो अब दिखाई पड़ने लगा है। क्योंकि याद रखिये ये तमाम अनुमान और निष्कर्ष कई साल पहले व्यक्त किये गये थे जो अब हकीकत का जामा पहन चुके नजर आते हैं। आखिर इन निष्कर्षों का क्या मतलब है? इनका मतलब यह है कि ज्यों-ज्यों बर्फ का पिघलना जारी रहेगा, इस क्षेत्र में गर्मी और बढ़ती जाएगी। इससे समुद्र का तापमान भी बढ़ेगा, जो न सिर्फ समुद्री जीवों को प्रभावित करेगा बल्कि समुद्री यातायात को भी प्रभावित करेगा। इस तरह के परिवर्तन की वजह से पृथ्वी के अन्य भाग भी प्रभावित होंगे। फिलहाल आर्कटिक के स्वरूप में बदलाव तो साफ-साफ नजर आ ही रहा है।