भारत, चीन और जहर का बाजार

Submitted by Hindi on Tue, 02/05/2013 - 14:35
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हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, अक्टूबर 27, 2007, सुनीता नारायण की पुस्तक 'पर्यावरण की राजनीति' से साभार
हम वैसे उन टॉक्सिन्स के बगैर भी खेती कर सकते हैं, जिनकी बाद में साफ-सफाई की जरूरत पड़ती है। हमें फिर से जैविक और खाद्य पदार्थों के सुरक्षित उत्पादन का तरीका खोजना होगा। हम वैसे अनावश्यक महंगे टॉक्सिन्स का प्रयोग बंद कर सकते हैं जिनसे आगे छुटकारा पाने की जरूरत पड़ेगी। इससे उत्पादन भी सस्ता होगा। हम जहर के इस दुष्चक्र को बंद कर सकते हैं। ये हमारे लिए विकल्प नहीं, जरूरत है।हाल ही में एक पत्रकार ने मुझसे पूछा कि क्या भारत में भी उपभोक्ता वस्तुओं का हाल चीन जैसा ही है? वह जानना चाहता था कि क्या हम भी वही समस्याएं झेल रहे हैं जिनसे चीन ग्रस्त है, जैसे दूषित पशु आहार, विषैले टूथपेस्ट, सीसा मिश्रित पेंट से रंगे खिलौने और रसायन युक्त कपड़े। इस बात ने मुझे चीन और भारत ही नहीं, उस समूची परिघटना पर सोचने को मजबूर कर दिया, जिसे बाजार कहते हैं।

आज चीन के निर्यात में विषैले रसायनों की मौजूदगी पर हाय-तौबा मचा रहे अमेरिका और बाकी सम्पन्न देश ही इस संदर्भ में बेहतर जानते हैं। सस्ते खाद्य पदार्थ और उपभोक्ता उत्पादों की ख़रीद-फरोख्त में वे पहले से जो लगे हैं। उन्हें पता है कि इस व्यापार में सब ठीक-ठाक नहीं है। उनके यहां उत्पादित माल महंगा है, क्योंकि प्रदूषण नियंत्रण और रोक-थाम के लिए बने नियमों के प्रवर्तन और उनकी निगरानी की कीमत चुकानी पड़ती है। साथ ही विष के नए-नए अवतारों से छुटकारा पाने के लिए ईजाद की जा रही नई तकनीकों के लिए भी कीमत चुकानी पड़ती है। इसीलिए यह समृद्ध दुनिया के हित में है कि वे अपने उत्पाद को आउट-सोर्स करें। समृद्ध दुनिया की पूरी अर्थव्यवस्था उपभोग वस्तुओं के अधिकतम उपभोग के सिद्धांत पर टिकी है। चाहे वे हर साल हरेक हिट फिल्म के बाद बाजार में उतारे जाने वाले खिलौने हों या फिर वैसे संसाधित खाद्य पदार्थ जिनकी कीमत तमाम अन्य बातों को नजरअंदाज करती है। अपनी अर्थव्यवस्था को लाभ की स्थिति में बनाए रखने के लिए इस समृद्ध समाज को सस्ते उत्पादों की निरंतर जरूरत है।

ये उत्पाद इसलिए भी सस्ते हैं क्योंकि इनके उत्पादन के लिए चीनी अपने पर्यावरण की परवाह नहीं करते। असल में पर्यावरण सुरक्षा की कीमत पर बाजार हासिल करना ही कामयाबी माना जाता है। तो फिर चीन के उत्पादों में विष की मौजूदगी के हालिया रहस्योद्घाटन से हम चकित क्यों हैं? आज नहीं तो कल, ये तो होना ही था। 1980 के दशक के उत्तरार्ध को याद कीजिए। अमेरिका तब ये देख स्तब्ध रह गया था कि वे तमाम कीटनाशक उसके यहां खाद्य पदार्थों में वापस आ रहे हैं, जिन्हें उसने प्रतिबंधित कर दिया था। ये वही कीटनाशक थे, जिन्हें अमेरिकी उद्योग जगत ने ये जानते-बूझते विकासशील देशों को निर्यात किया था कि ये अवैध और विषाक्त हैं। इस दफे अंतर बस इतना है कि ‘निर्यात’ पदार्थों का ही नहीं, उत्पादन के उन तौर-तरीकों का भी किया गया, जिनसे पर्यावरण का सतत बंटाधार होता है।

भारत को अगर दुनिया के प्रिय कचरा आपूर्तिकर्ता का दर्जा पाना है तो हमें भी ऐसा ही कुछ करना होगा। इसके लिए हम लालायित भी हैं। जरूरी ऊर्जा और यातायात अधिसंरचना के निर्माण में निवेश के लिए चीन के पास पैसा है। साथ ही आपस में जुड़ चुकी इस दुनिया में, अपनी मुद्रा का जरूरी स्तर बनाए रखने की ताकत भी। मुकाबले में बढ़त हासिल करने के लिए पर्यावरण संबंधी नियमों की धज्जियां उड़ाने के अलावा हमारे पास और क्या है? हममें और चीन में अंतर केवल हमारा लोकतंत्र है – वे भी तब तक, जब तक हम इसका गला न घोंट दें। भारतीय उद्योग जगत पसंद करे या नहीं, उपभोक्ताओं और पर्यावरण हितैषियों की ओर से पेश आंतरिक दबाव सेफ्टी वॉल्व का काम करता है। इसी के चलते निर्यात ही नहीं घरेलू बाजार के लिए भी बढ़िया उत्पादन करने और पर्यावरण मानकों के अनुपालन को भारतीय उद्योग जगत बाध्य होता है। कुल मिला कर यही बात हमें चीन से अलग करती है। मेरे पास आए उस पत्रकार को मैंने यही कहा। लेकिन यह दबाव समृद्ध दुनिया को सस्ता माल पहुंचाने की मारा-मारी नहीं झेल सकेगा।

मुझे तनिक भी संदेह नहीं कि पश्चिमी दुनिया ने पर्यावरण सुरक्षा उपायों का अपने लाभ के लिए उपयोग किया है। इसी के माध्यम से वे विकासशील देशों द्वारा उत्पादित माल को असुरक्षित ठहराते हैं और बताते हैं कि ये गुणवत्ता के निर्धारित मानकों को पूरा नहीं करते। वर्षों से, पर्यावरण-मित्र उत्पादन व्यापार-संरक्षणवाद का दूसरा नाम बन गया है।

लेकिन अब ये भी स्पष्ट है कि चीन या भारत, इस खेल को खेलकर नहीं जीत सकते। जीतता वही है, जो सबसे खतरनाक जहर का आविष्कार करता है। ये खेल है विष की खोज, उपयोग और फिर उसे खतरनाक ठहराने का। खोज करने वाले जैसे ही इनका प्रयोग बंद करते हैं, विकास के नाम पर इन्हें उभरती दुनिया को बेच दिया जाता है। और नई दुनिया जब उसी टॉक्सिन का प्रयोग करती है तो व्यापार बाधाएं खड़ी की जाती हैं, हवाला दिया जाता है उपभोक्ता सुरक्षा का। न केवल विष बदलते रहते हैं, बल्कि वह पदार्थ किस मात्रा पर विषैला होगा उसकी मात्रा भी बदलती रहती है। विष की मात्रा पता लगाने और उसकी साफ-सफाई के महंगे साजो-सामान की जरूरत भी बढ़ती है।

इस खेल में विकल्प यही है कि पहले तो निवेश करें कचरे के उत्पादन में और फिर उसकी साफ-सफाई या इससे छुटकारा पाने में। इसके बाद जल्द ही एक नया रसायन आएगा – जिसे तब टॉक्सिन नहीं कहा जाएगा, पर जल्द ही ये भी टॉक्सिन ठहरा दिया जाएगा। इस व्यापार में पर्यावरण सुरक्षा न केवल महंगी है, बल्कि कभी न खत्म होने वाला एक दुष्चक्र भी है। पर्यावरण के इस व्यापार में हम नहीं जीत सकते।

किसी कारण अगर हम खेल नहीं बदल सकते तो कम से कम इसके नियमों में बदलाव लाना चाहिए। हमें तर्क रखना चाहिए कि पर्यावरण ही हमारे लिए बढ़त का आधार है। यह तभी हमारे लिए लाभप्रद है, जब हम इसकी अनदेखी नहीं करें, इसके उपयोग को सीख सकें।

पश्चिमी जगत द्वारा की गई महंगी ग़लतियों से मिली सीख पर हमें अपने उद्योग और कृषि का निर्माण करना चाहिए। हम उन्हें हटा सकते हैं – उनके खेल में शामिल होकर नहीं, व्यापार का अपना रास्ता खुद तलाश करें। हम वैसे उन टॉक्सिन्स के बगैर भी खेती कर सकते हैं, जिनकी बाद में साफ-सफाई की जरूरत पड़ती है। हमें फिर से जैविक और खाद्य पदार्थों के सुरक्षित उत्पादन का तरीका खोजना होगा। हम वैसे अनावश्यक महंगे टॉक्सिन्स का प्रयोग बंद कर सकते हैं जिनसे आगे छुटकारा पाने की जरूरत पड़ेगी। इससे उत्पादन भी सस्ता होगा।

हम जहर के इस दुष्चक्र को बंद कर सकते हैं। ये हमारे लिए विकल्प नहीं, जरूरत है।