यूपीए सरकार के निर्मल भारत अभियान के बाद देश के मौजूदा प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने दो साल पहले सत्ता में आते ही गाँधी जयन्ती के दिन स्वच्छ भारत अभियान की जोर-शोर से शुरुआत की थी और लक्ष्य ये रखा कि 2019 तक देश के हर घर में शौचालय होगा, खुले में शौच जाने वाले लोगों की संख्या लगभग खत्म हो जाएगी लेकिन अभी भी देश के लगभग 53.1 फीसदी घरों में शौचालय नहीं हैं।
2011 की जनगणना के आँकड़ों के मुताबिक देश की कुल आबादी 1 अरब 21 करोड़ है जिसमें से 80 करोड़ से ज्यादा लोग बुनियादी स्वच्छता सुविधाओं से महरूम हैं और जहाँ तक शौचालयों की बात है तो देश के कुल 46.9 फीसदी घरों में ही शौचालय हैं, शहरी आबादी में भी 19.6 फीसदी घरों में शौचालय नहीं हैं और ग्रामीण इलाकों के 69.3 फीसदी घर बगैर शौचालय के हैं।
स्वच्छ भारत अभियान के साथ प्रतिवर्ष 25 लाख शौचालय बनाने का लक्ष्य रखा गया है हालांकि पिछले 4 सालों में औसतन 57 लाख शौचालयों का ही निर्माण हुआ है इस लिहाज से 2019 तक इस लक्ष्य को हासिल कर पाना मुश्किल है लेकिन ये जरूर कहा जा सकता है कि शौचालयों के निर्माण और उनके इस्तेमाल को लेकर पहले से ज्यादा जागरुकता बढ़ी है, सरकार के साथ लोग भी सचेत हुए हैं।
लगातार शौचालयों की संख्या बढ़ रही है लेकिन देश के ग्रामीण इलाकों या शहरी ग्रामीण इलाकों में ज्यादातर सेप्टिक टैंक और सिंगल पिट वाले शौचालयों का ही निर्माण होता है जिसके टैंक 2 से 4 साल में भर जाते हैं इसलिये उन्हें खाली किया जाना और उसे समुचित तरीके से डम्प करना जरूरी हो जाता है।
स्वच्छता का इकोफ्रेंडली विकल्प 'हनी सकर्स टैंकर'
यहाँ पर दो व्यावहारिक सवाल पैदा होते हैं, इन टैंकों की सफाई कैसे हो? और निकाले गए मैले को कैसे ठिकाने लगाया जाये। बंगलुरु और कर्नाटक के कई जिलों में 'हनी सकर्स टैंकर' इस समस्या को प्रभावी तरीके से सुलझा रहे हैं साथ ही छोटे किसानों और दूसरे लोगों की रोजगार और आमदनी का भी जरिया बन रहे हैं।
हनी सकर्स टैंकर प्रेशर से सेप्टिक टैंक से मैले को खींच लेते हैं और उन्हें डम्प कर देते हैं। बंगलुरु वैसे ही पिछले कुछ सालों से कचरा प्रबन्धन की गम्भीर समस्या से जुझ रहा है, प्रशासन को अतिरिक्त डम्पिंग ग्राउंड मिल नहीं रहा है ऐसे में सिंगल पिट वाले शौचालयों की गन्दगी की डम्पिंग एक अलग समस्या बन सकती है और ये केवल बंगलुरु नहीं बल्कि देश के हर बड़े-छोटे शहर की समस्या है। लेकिन बंगलुरु में 'हनी सकर्स ट्रको ने शौचालयों की गन्दगी को डम्प करने के साथ ही मैन्युअल स्कावेंजिंग या किसी व्यक्ति द्वारा मैला साफ ना कराने के 2013 के कानूनी प्रतिबद्धता के लिये भी बहुत प्रभावी विकल्प प्रदान किया है।
गौरतलब है कि 2011 जनगणना के आँकड़ों के मुताबिक ही देश के 180,657 घरों की रोजी-रोटी का जरिया हाथ से मैला साफ करने का रोजगार रहा है, हालांकि 1993 में हाथ से मैले की सफाई पर कानून बनाकर प्रतिबन्ध लगाया गया लेकिन अभी भी इस अमानवीय रोजगार को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सका है।
2013 में संसद में हाथ से मैला साफ करने पर प्रतिबन्ध के लिये कानून पारित किया गया और इसे ऐतिहासिक अन्याय मानते हुए इस काम में लगे लोगों को दूसरा वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराने व उनके पुर्नवास को संवैधानिक जिम्मेदारी माना गया। साथ ही मार्च 2014 में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी हाथ से मैला साफ कराने की प्रथा को अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकारों का हनन माना और सरकार को इसे पूरी तरह से खत्म करने के लिये प्रभावी उपाय करने के निर्देश दिये हैं।
बहरहाल, कर्नाटक और बंगलुरु की बात करें तो जिन पाँच राज्यों में सबसे ज्यादा हाथ से मैला साफ कराने के मामले दर्ज हुए हैं उनमें कर्नाटक का स्थान पाँचवाँ है। और बंगलुरु की लगभग 60 फीसद आबादी के घर सीवर प्रणाली से नहीं जुड़े हैं इसलिये इन्हें अपने घरों के गन्दे पानी की निकासी व शौचालयों के टैंक भर जाने पर उसके मैले की सफाई के लिये अन्य विकल्पों की जरूरत होती है।
बंगलुरु में निजी और कुछ सरकारी स्वामित्व वाले हनी सकर्स ट्रक पिछले कुछ सालों से काम कर रहे हैं, इन ट्रकों को निश्चित किराया देकर समय-समय पर टैंकों को खाली करने के लिये बुलाया जाता है। ये ट्रक निकाले गए मैले को शहर के बाहर कहीं खाली कर देते हैं जबकि पर्यावरण कानून के तहत बगैर शोधन के किसी भी कचरे को कहीं भी डम्प करना अपराध है। हालांकि बगैर शोधित मैले को डम्प करने के लिये सरकार की ओर से निश्चित जगह हैं लेकिन उसके लिये अलग से शुल्क लिया जाता है।
सबके लिये फायदेमन्द
बहरहाल, हनी सकर्स टैंकर संचालकों और लोगों ने पिछले कुछ सालों में इसका उपाय भी निकाल लिया है जो स्वच्छता बनाए रखने, पर्यावरण, लागत और रोजगार कई तरह के विकल्प एक साथ प्रदान करता हुआ बहुत कारगर प्रणाली साबित हो रहा है। हालांकि मानव मैले को खाद के तौर पर इस्तेमाल करने को लेकर शुरू में आसपास के किसानों को हिचकिचाहट जरूर रही लेकिन धीरे-धीरे उन्हें प्राकृतिक और जैविक गन्दगी और असके विघटन की प्रक्रिया समझ में आने लगी।
जैविक मैला प्राकृतिक तौर पर नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटैशियम के अलावा कई तरह के सुक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर होता है, जो पौधों के लिये बहुत फायदेमन्द होता है जबकि इन्हीं तत्वों से युक्त रासायनिक खाद महंगे और हानिकारक दोनों होते हैं ना सिर्फ मिट्टी, पानी और अन्य जीवों बल्कि हमारी सेहत के लिये भी।
हनी सकर्स टैंकर आसपास के किसानों के खेतों में गहरा गड्ढा खोदकर मैले को डम्प कर देते हैं फिर इस गड्ढे को ढँक दिया जाता है तीन से छ: महीने के बाद मैला खाद में तब्दील हो जाता है। किसान इस खाद का इस्तेमाल अपने खेतों में करते हैं और अधिक होने पर उसे दूसरे किसानों को बेच भी देते हैं। इस खाद से उपज और लागत में इतना फर्क आया है कि बहुत से किसान हनी सकर्स संचालकों को एक निश्चित रकम देकर मैला डम्प करने को बुलाते हैं।
इस क्षेत्र में मौजूदा समय में दो लाख से ज्यादा लोग काम कर रहे हैं और इसका मूल्य सालाना 75 करोड़ से ज्यादा है जिसके हर साल बढ़ते जाने की सम्भावना है।
बंगलुरु शहर से सटे इलाकों के हजार से ज्यादा किसान मानव मैले का इस्तेमाल बतौर खाद कर रहे हैं और खेती में लागत कम करके पैदावार ज्यादा ले पाने में कामयाब हो रहे हैं इनमें से कुछ किसानों की सालाना आमदनी पन्द्रह लाख तक है जबकि छोटे किसान जिनकी जोत दो एकड़ से कम रही है वो अतिरिक्त आय के कारण दूसरे के खेतों को लीज पर लेकर खेती करने लगे हैं।
दूसरी ओर बंगलुरु या ग्रामीण इलाकों के लोगों को भी अपने पिट को खाली कराने के लिये कम खर्च करना पड़ रहा है। शुरू में जब कम संख्या में हनी सकर्स टैंकर थे तो एक पिट खाली कराने की लागत पन्द्रह सौ तक हो जाती थी लेकिन ज्यादा टैंकरों के आने पर हजार रुपए से सात सौ तक में काम हो जाता है। इसके अलावा सेकेंड हैंड ट्रकों के इस्तेमाल का भी एक फायदेमन्द विकल्प सामने आया है, माँग और नियमित आमदनी के कारण ट्रक मालिक पुराने ट्रकों को हनी सकर्स टैंकरों में बदल कर लाभ कमा रहे हैं।
सतत स्वच्छता प्रणाली
दरअसल, सेप्टिक टैंक के मैले को डम्प करने से शुरू हुई प्रक्रिया पिछले कुछ सालों में सफाई से डम्पिंग तक शृंखला के तौर पर विकसित हो चुकी है जिसके तहत गन्दगी का प्रभावी तरीके से कम लागत पर निपटान सम्भव हो पाया है।
इस प्रक्रिया में ना तो अतिरिक्त जमीन या किसी डम्पिंग ग्राउंड का इस्तेमाल होता है ना ही कहीं की मिट्टी या नालों, नदियों या भूजल प्रदूषित होता है। इसके उलट किसानों को उपजाऊ खाद मिल रहा है और उनकी खेती की लागत कम उपज ज्यादा होने लगी है।
अतिरिक्त आमदनी भी। साथ ही इस प्रक्रिया में हनी सकर्स टैंकरों के मालिकों को भी नियमित आय हो रही है और इसे चलाने वाले ड्राइवरों व हेल्परों को भी स्थायी रोजगार मिल रहा है। इसलिये निजी टैंकर मालिकों के अलावा कई छोटी कम्पनियाँ भी एक से ज्यादा हनी सकर्स टैंकरों के साथ इस बाजार में आ चुकी हैं।
नियम और निगरानी नहीं होने पर खतरे
वैसे ये भी है कि कुछ किसान पूर्णत: विघटित हो चुके मैले को ही खाद के तौर पर इस्तेमाल करते हैं लेकिन ये भी देखा गया है कि कुछ इनका इस्तेमाल खुली क्यारियों में और तरल अवस्था में भी करते हैं जो कि काम करने वालों और उस उपज का इस्मेताल करने वालों दोनों सेहत के लिहाज से बहुत बड़ा जोखिम है।
जिन मजदूरों से खुली क्यारियों में इन्हें डलवाया जाता है उनके पैरों या तलवों में घाव की शिकायत भी देखी गई है। इससे कॉलरा, डायरिया और दूसरे तरह की संक्रमण वाली बीमारियाँ हो सकती हैं, सब्जियों, फलों के उपयोग के मार्फत संक्रमण शरीर में पहुँच सकता है।
तरल मैले का सीधे खेतों में प्रयोग करने से भूजल प्रदूषित हो सकता है और आसपास भूजल का इस्तेमाल करने वाले लोग इसकी चपेट में आ सकते हैं। लेकिन सरकार अगर हस्तक्षेप कर इस पूरी प्रणाली को व्यवस्थित व नियमित कर दे, इसके लिये उचित नियम व निर्देश बनाएँ साथ ही उसकी निगरानी भी की जाएँ तो स्वच्छता के लिये इससे बेहतर विकल्प कुछ और नहीं हो सकता।
हनी सकर्स के संचालन की पूरी प्रक्रिया को सख्त कानूनी दायरे में लाया जाना चाहिए और मैले को निकालने से लेकर उसे डम्प करने व उसके खाद बनने तक की पूरी प्रक्रिया नियमों व निगरानी के तहत होनी चाहिए ताकि इसमें फिर कहीं किसी से कोई अमानवीय रोजगार नहीं करा सके।
आने वाले सालों में सिंगल पिट वाले शौचालयों की संख्या पूरे देश में हर साल बढ़ने वाली है। ऐसे में पहले से उनकी सफाई और गन्दगी को फिर डम्प करने की एक सुरक्षित, पर्यावरण के अनुकूल, सुचिन्तित प्रक्रिया पहले से तैयार होनी जरूरी है। मसलन, इस काम में लगे लोगों को स्वास्थ्य सुरक्षा के दायरे में लाना, उनके पास जरूरी साजों सामान होना, नगर निगम, जल आपूर्ति और सीवेज बोर्ड के साथ उनका तालमेल होना।
मसलन, बंगलुरु में काम कर रहे हनी सकर्स की सेवाओं को बंगलुरु जल आपूर्ति और सीवेज बोर्ड की मान्यता मिलनी चाहिए, इससे स्वच्छता के मद में खर्च होने वाली धनराशि का बेहतर इस्तेमाल हो सकेगा, कितने शौचालय सीवेज प्रणाली से जुड़े हैं और कितने सिंगल पिट या सेप्टिक टैंक वाले हैं।
इन आँकड़ों के साथ तालमेल होने पर ये साफ हो जाएगा कि कितने हनी सकर्स टैंकरों की जरूरत है, साथ ही सीवर से नहीं जुड़े शौचालयों की ज्यादा संख्या होने पर सीवेज प्रणाली पर खर्च करने के बजाय हनी सकर्स टैंकरों की सेवाओं को बेहतर बनाने के लिये खर्च किया जा सकेगा। ये सीवर प्रणाली का विस्तार करने से ज्यादा प्रभावी और कम खर्चीला उपाय भी होगा।
बेशक हनी सकर्स टैंकर स्वच्छता अभियान और कचरे के निपटान का एक प्रभावी तरीका है लेकिन इसे पूरी तरह से सुरक्षित मॉडल के रूप में विकसित किये जाने की जरूरत है और पेशेवर लोगों को लाने की जरूरत है, ताकि टैंक खाली करते समय ये सुनिश्चित हो कि काम उचित तरीके से बगैर किसी और माध्यम को दूषित किये हो, मैले की डम्पिंग जमीन में ही और तुरन्त होनी चाहिए, डम्प करते समय भूजल का प्रदूषण नहीं हो ये भी सुनिश्चित होना चाहिए।
काम कर रहे लोगों के उपकरण और उनकी खुद की स्वच्छता के कड़े मानक होने चाहिए, कच्ची खाई जाने वाली सब्जियों के लिये शोधित मानव मैले से निर्मित खाद भी नहीं इस्तेमाल किये जाने के निर्देश होने चाहिए और उसका सख्ती से पालन होना चाहिए।
खाद के प्रयोग और तैयार फसल को काटने के बीच कम-से-कम एक महीने का अन्तराल होना चाहिए ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि उनमें किसी भी तरह का संक्रमण नहीं हो। साथ ही उपभोक्ताओं के लिये भी सब्जियों, फलों का साफ-सफाई से इस्तेमाल के निर्देश होने चाहिए।
वर्षाजल संग्रह और पर्यावरण से जुड़े मसलों पर काम कर रहे बायोम इन्वारन्मेंटल साल्यूशन्स प्राईवेट लिमिटेड के सलाहकार विश्वनाथ श्रीकंटय्याह हनी सकर्स टैंकरों के संचालन से भी जुड़े रहे हैं, उनसे बातचीत पर आधारित साक्षात्कार के अंश :
हनी सकर्स क्या है?
यह कोई परियोजना या अभियान नहीं है, स्वच्छता से जुड़ा एक बेहतर विकल्प है, निजी और सरकारी दोनों स्तर पर फिलहाल बंगलुरु और कर्नाटक में कई हनी सकर्स टैंकर काम कर रहे हैं। ये टैंकर नुमा ट्रक होते हैं जिनकी मदद से सिंगल पिट या सेप्टिक टैंक वाले शौचलयों के टैंक भर जाने पर उन्हें खाली कराया जाता है।
इनका महत्त्व शहरी और ग्रामीण इलाके उन शौचालयों की सफाई में हैं जो सीवर प्रणाली से नहीं जुड़े हैं। इनकी खासियत बहुत कम लागत में मिट्टी और भूजल या बहते जल के किसी भी स्रोत को प्रदुषित किये बिना स्वच्छता का विकल्प मुहैया कराना है।
कर्नाटक में कब से इनका इस्तेमाल हो रहा है और बंगलुरु में इसके प्रयोग से कोई फर्क आया है?
पिछले सात-आठ सालों से हम यहाँ इन ट्रकों का इस्तेमाल करवा रहे हैं, फर्क तो बहुत आया है एक-दो अपवाद मामलों को छोड़ दें तो बंगलुरु में अब किसी से हाथ से मैला साफ नहीं कराया जा रहा है, वैसे भी सरकारों की ये संवैधानिक जिम्मेदारी है कि हाथ से मैला साफ करने के काम पर पूरी तरह से रोक लगे, दूसरी ओर सेप्टिक टैंक और सिंगल पिट वाले शौचालय होने पर यह तभी सम्भव है जब हनी सकर्स जैसी तकनीक या प्रणाली का इस्तेमाल कर टैंकों की सफाई कराई जाये।
कर्नाटक के अलावा और किन राज्यों में इनका इस्तेमाल हो रहा है?
कई राज्य हैं जहाँ बड़े पैमाने पर हनी सकर्स टैंकर काम कर रहे हैं, मसलन, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना आदि। हालांकि उत्तर भारत के राज्यों में इनका प्रयोग नहीं शुरू हुआ है लेकिन धीरे-धीरे फैलाव हो रहा है जैसे दिल्ली में कुछ हनी सकर्स टैंकर काम कर रहे हैं। लेकिन वहाँ इनकी डम्पिंग खेतों में नहीं हो रही है, सम्भवत: किसानों को इसके बारे में जानकारी नहीं है।
आने वाले दिनों में इसका विस्तार होना तय है क्योंकि मैले को निपटाने का इससे किफायती और पर्यावरण अनुकूल विकल्प कोई और नहीं है। केन्द्र सरकार की योजना के तहत हर घर में शौचालय का निर्माण अनिवार्य हो चुका है। लेकिन ग्रामीण या शहरी ग्रामीण इलाकों में सभी शौचालय सिंगल पिट या सेप्टिक टैंक वाले ही बन रहे हैं जो 2-4 सालों में भर जाएँगे, तब इन्हें खाली करने या साफ करने की जरूरत पड़ेगी और फिर किसी को सफाई के काम में लगाया जाएगा।
दूसरी ओर हाथ से या किसी व्यक्ति द्वारा मैले की सफाई भी असंवैधानिक है ऐसे में हनी सकर्स जैसे उपायों के बारे में सभी सरकारों को गम्भीरता से सोचना होगा, वैसे भी इसके अलावा सेप्टिक टैंक को साफ करने की जो भी तकनीक पश्चिमी देशों में प्रचलित हैं या मशीनें वो और ज्यादा खर्चीली हैं हनी सकर्स टैंकरों जितनी कम लागत में किसी भी और तकनीक से सफाई सम्भव नहीं। दरअसल अगले कुछ सालों में देश के हर जिले और हर गाँव को हनी सकर्स टैंकरों की जरूरत पड़ेगी।
आमतौर पर इसकी लागत कितनी होती है?
किसी भी सेकेंड हैण्ड ट्रक को हनी सकर्स टैंकर में बदलने में पाँच से आठ लाख तक का खर्च आता है और एक पिट खाली कराने के लिये इन टैंकरों का किराया आठ सौ से हजार रुपए तक होता है, एक टैंकर की क्षमता चार हजार लीटर तक की होती है। आमतौर पर चार साल में एक बार सेप्टिक टैंकों या पिट को खाली कराना पड़ता है।
इसके आर्थिक पक्षों में वैकल्पिक रोजगार देने को भी देखा जाना चाहिए, कई टैंकर के मालिक खुद ही ड्राइवर भी होते हैं और खुद ड्राइवर नहीं होने पर प्रति टैंकर एक ड्राइवर और एक हेल्पर की जरूरत होती है जिन्हें क्रमश: दस हजार और छ: हजार प्रतिमाह देना होता है। आठ सौ से हजार रुपए प्रति टैंक की दर से ये टैंकर पिट खाली करते हैं और हर दिन लगभग चार से पाँच पिट खाली करने का काम इन्हें मिल जाता है । इस तरह मालिक, ड्राइवर और हेल्पर तीनों को आमदनी होती रहती है।
ग्रामीण संरचना में हनी सकर्स टैंकर स्वच्छता मॉडल की क्या भूमिका हो सकती है?
बहुत प्रभावी, खासतौर किसानों वो भी छोटे व मध्यम जोत वाले किसानों के लिये। कर्नाटक में हनी सकर्स टैंकरों का व्यावसायिक इस्तेमाल कई छोटे-बड़े किसान कर रहे हैं, बतौर टैंकर मालिक भीया टैंकरों से मैला खरीद कर उन्हें अपने खेतों में खाद बनने को छोड़कर जिनके इस्तेमाल से बगैर रासायनिक खाद के लागत के उनकी उपज कई गुणा बढ़ी है।
खासतौर पर पपीता और केले की खेती वालों को बहुत फायदा हुआ है। इसके अलावा चावल, नारियल, बीन्स की खेती में भी इस खाद के इस्तेमाल से लागत कम और उपज ज्यादा बढ़ी है। उपज के अलावा अतिरिक्त खाद होने पर किसान उसकी बिक्री भी करते हैं उससे भी आमदनी होती है और किसान के खुद टैंकर के मालिक होने पर उसे सालों भर अतिरिक्त का जरिया हासिल हो जाता है।
कर्नाटक सरकार स्वच्छता के लिये इन टैंकरों का किस तरह से इनका इस्तेमाल कर रही है?
कर्नाटक सरकार हर ताल्लुके के ग्राम पंचायत में एक-एक हनी सकर्स ट्रक खड़ा कर रही है। निर्मल ग्राम योजना के तहत हर गाँव के 80 से 90 फीसद घरों में शौचालयों का निर्माण होने के कारण हर गाँव में हनी सकर्स टैंकर खड़ा करना एक अनिवार्य जरूरत है। कर्नाटक और बंगलुरु में भी हाथ से मैले की सफाई के मामलों पर दायर जनहित याचिका के जवाब में कर्नाटक सरकार ने कर्नाटक उच्च न्यायालय को जवाब दिया है कि राज्य सरकार पूरे राज्य में कहीं भी मैले की सफाई मशीनों से कराना सुनिश्चित करेगी, किसी व्यक्ति से ये काम नहीं लिया जाएगा।
कर्नाटक में फिलहाल कितने हनी सकर्स टैंकर चल रहे हैं?
निजी क्षेत्र में बंगलुरु में 500 हनी सकर्स टैंकर काम कर रहे हैं और सरकार की ओर से 214 शहरों में एक-एक हनी सकर्स ट्रक मुहैया कराया गया है, पूरे कर्नाटक में भी निजी लोगों के 500 से ज्यादा टैंकर चल रहे हैं। शौचालयों की संख्या बढ़ने के साथ इनकी जरूरत और माँग भी बढ़ती जा रही है। चूँकि मानव मैले का प्रभावी निपटान किसी भी शहर या गाँव के प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़ा है इसलिये सरकार को निजी टैंकर संचालकों और टैंकर वाली छोटी-छोटी कम्पनियों के साथ तालमेल कर उन्हें सरकारी स्वच्छता प्रणाली और अभियान से जोड़ना जरूरी है ताकि कोई गड़बड़ी ना हो साथ ही किसी के भी सेहत और पर्यावरण के साथ कोई खिलवाड़ नहीं हो।