लेखक
विकसित देशों के वैज्ञानिक, बिन पानी सिर्फ हवा से संयंत्रों को ठंडा करने वाली प्रक्रिया का अनुमोदन करते हैं। एक उन्नत प्रक्रिया में गर्मी के समय में पानी और शेष में हवा का ही प्रयोग होता है। बन्द लूप प्रक्रिया में पानी के पुर्नउपयोग का प्रावधान है। एक अन्य प्रक्रिया में तालाब-झीलों का पानी उपयोग कर वापस जलसंरचनाओं में पहुँचाया जाता है। आप कह सकते हैं कि यह सब तो ठीक है किन्तु उपहार और दहेज में मोटरसाइकिल और कारों को देने का बढ़ते चलन का क्या करें? कार्बन उत्सर्जन घटाने के अनेक उपायों में एक उपाय यह है कि जीवश्म स्रोतों से कम-से-कम बिजली व ईंधन बनाए जाएँ। दूसरा उपाय है कि वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों से ऊर्जा उत्पादन पर ध्यान लगाएँ। तीसरा उपाय यह है कि हम ईंधन व बिजली का अनुशासित इस्तेमाल करें।
जहाँ तक ईंधन का सवाल है, गोबर-पेट्रोल-डीजल का क्या कोई उचित विकल्प है? मक्का से बनने वाले कॉर्न इथेनॉल को 0.6-2.0 जीपीएम, सैलुलोज बायोडीजल को 0.1 से 0.6 जीपीएम और गैसोलिन को सबसे कम 0.1 से 0.3 जीपीएम पानी चाहिए। यह तीनों ईंधन यातायात में ही प्रयोग होते हैं। सैलुलोज बायोडीजल सूखा क्षेत्रों की घास व टहनियों से बनाया जाता है। क्या ये विकल्प सभी भारत के अनुकूल हैं?
सिंचाई में ईंधन इंजनों के अलावा और विकल्प है? समक्ष खड़ा यह दूसरा प्रश्न तो है ही; आप यह भी कह सकते हैं कि सार्वजनिक परिवहन सुविधाएँ बेहतर की जाएँ; ताकि निजी वाहनों पर निर्भरता कम हो। कम ईंधन खपत वाले छोटे वाहनों को बुक करने की जगह, प्रति यात्री किराया आधार पर चलने का चलन कैसे बढ़े? सोचें! गियर वाली तेज रफ्तार साइकिलों की कीमतें घटाई जाएँ।
साइकिल के लिये शहरों में अलग सुरक्षित लेन बनाई जाये। एक स्तर तक साइकिल व रिक्शा जैसी बिना ईंधन की सवारी को सरकारी सवारी बनाया जाये। साइकिल व रिक्शा चलाने से ऊर्जा उत्पादन सम्भव है। इसका इस्तेमाल टेबल बल्ब जलाने से लेकर मोबाइल चार्ज करने जैसे कई बिजली खपत वाले कार्यों में किया जा सकता है। ऐसी और तकनीकों को मान्य, सस्ता व सुलभ बनाया जाये। इससे साइकिल व रिक्शा सवारी प्रोत्साहित होगी।
न्यूनतम ईंधन खपत तथा अनुकूल ईंधन से चलने वाली मशीनों को ईजाद करने की दिशा में शोध व उसके प्रसार को प्रोत्साहित किया जाये। नियुक्ति, स्थानान्तरण व दस्तावेज़ों-सामानों के उत्पादन व बिक्री की नीतियाँ तथा आदान-प्रदान की तकनीकें ऐसी हों, ताकि कर्मचारी व सामान..दोनों को कम-से-कम यात्रा करनी पड़े।
मतलब यह कि कर्मचारी और काम के स्थान तथा उत्पादन व खपत के स्थान के बीच की दूरी न्यूनतम कैसे हों, इस पर गहराई से विचार हो। इससे ईंधन की खपत घटेगी। पानी गर्म करने, खाना बनाने आदि में कम-से-कम ईंधन का उपयोग करो। उन्नत चूल्हे तथा उस ईंधन का उपयोग करो, जो बजाय किसी फैक्टरी में बनने के हमारे आसपास हमारे द्वारा तैयार व उपलब्ध हो।
विकसित देशों के वैज्ञानिक, बिन पानी सिर्फ हवा से संयंत्रों को ठंडा करने वाली प्रक्रिया का अनुमोदन करते हैं। एक उन्नत प्रक्रिया में गर्मी के समय में पानी और शेष में हवा का ही प्रयोग होता है। बन्द लूप प्रक्रिया में पानी के पुर्नउपयोग का प्रावधान है। एक अन्य प्रक्रिया में तालाब-झीलों का पानी उपयोग कर वापस जलसंरचनाओं में पहुँचाया जाता है।
आप कह सकते हैं कि यह सब तो ठीक है किन्तु उपहार और दहेज में मोटरसाइकिल और कारों को देने का बढ़ते चलन का क्या करें? इनसे एक की जरूरत वाले घरों में कई-कई वाहनों का जमावड़ा बढ़ रहा है। इस दिखावटी जीवनशैली से कैसे बचें? सोचना चाहिए।
अब सीधे बिजली की बात करें। सन्तुष्ट करता चित्र यह है कि आज की तारीख में अमेरिकियों की तुलना में, भारतीयों की औसत विद्युत खपत लगभग 25 प्रतिशत है। किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में बिजली की बर्बादी नहीं हैं।
कितने प्रतिशत भारतीय कितनी खपत करता है; इसका भेद करेंगे, तो पता चल जाएगा कि एक वर्ग बेहताशा खपत करता है, दूसरा अनावश्यक बर्बाद करता है, तीसरा बिजली के दो-चार लट्टुओें पर ही गुजारा कर लेता है और चौथे के पास बिजली कनेक्शन तो है, लेकिन बिजली कब आएगी; पता नहीं।
भिन्न राज्य विद्युत बोर्डों द्वारा अभी देहात के कई इलाकों में एक तय मासिक बिल का चलन है। अवैध ‘कटिया’ कनेक्शन का चलन भी कम नहीं है। इस चलन के चलते अनावश्यक बिजली जलते रहने और सिंचाई हेतु नलकूप चलते रहने की चिन्ता कम ही ग्रामीणों को है। बर्बादी के मामले में शहरी भी कम नहीं है।
अक्सर शहरी बिजली की खपत अपनी जरूरत के मुताबिक नहीं, जेब के अनुसार करते हैं। जितना बिल वे झेल सकते हैं, उतने तक वे बिजली खपाने में किसी किफायत की परवाह व पैरवी नहीं करते। “अरे भाईसाहब, बिजली हम ज्यादा फूँकते हैं, तो बिल भी तो हम ही देते हैं। आपको सिर में दर्द क्यों होता है?’’ उनका यही रवैया है।
परिणामस्वरूप, एक ओर लोग बिजली की कमी झेलते हैं और दूसरी ओर बिजली बर्बाद होती है। यह असन्तुष्ट करता चित्र है। इसी का नतीजा है कि आज भारत की 25 से 28 प्रतिशत आबादी के घरों में बिजली नहीं है।
माँग का चित्र भिन्न है। भारत, एक विकसित होता हुआ देश है। आगे आने वाले वर्षों में भारत में बिजली की माँग और बढे़गी। सरकारी तौर पर माना गया है कि 2032 तक भारत की ऊर्जा माँग 800 गीगावाट होगी। पाँच साल पहले तक भारत का सकल घरेलू उत्पाद का 8 से 9 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ने तक यह माँग 900 गीगावाट बताई गई थी।
शुक्र है कि अभी भारत के सकल घरेलू उत्पाद के 60 प्रतिशत से अधिक निर्भरता सेवा क्षेत्र पर है, जोकि कम ऊर्जा खपत का क्षेत्र है; बावजूद इसके खपत और माँग, दोनों तो बढे़ेंगी ही। ज्यादातर उद्योग, पानी के लिये भूजल पर निर्भर होते जा रहे हैं। भूजल स्तर गिरने और नदियों में पानी के कम होते जाने की स्थिति में कृषि क्षेत्र में भी ईंधन और बिजली की माँग बढ़नी तय है।
जैसे-जैसे भारत में प्रति व्यक्ति आय में इज़ाफा होता ज्यादा अथवा मध्यम वर्ग में शामिल होने वालों की संख्या बढ़ती जाएगी, निश्चित रूप से उनकी जीवनशैली में बिजली की खपत बढ़ती जाएगी। अतः हमारी सबसे पहली प्राथमिकता क्या यह नहीं होनी चाहिए कि माँग की भी एक सीमा बनाए। बिजली खपत और जीवन में उपभोग कम करके ही यह हो सकता है? कैसे करें?
जाहिर है कि भूजल स्तर को ऊपर उठाने से यह होगा। बिजली बिल को खपत के आधार पर आकलन करने से उपयोग को अनुशासित होने में मदद मिलेगी। कटिया कनेक्शन अभियान चलाकर हटाए जाएँ। सभी कनेक्शनों में बिजली मीटर लगाए जाएँ। कम खपत वालों को बिजली दर में छूट दी जाये। ज्यादा खपत वालों से ज्यादा वसूला जाये।
इससे लोगों को ज्यादा घंटे बिजली देने की जवाबदेही भी बढ़ जाएगी। विशेषज्ञों की सलाह यह है कि गैस आधारित विद्युत संयंत्र से अच्छा है कि कुकिंग गैस की आपूर्ति बढ़ाएँ। बिजली से चलने वाले उत्पाद कम करें। परिसरों में हरियाली बढ़ाई जाये, इससे वातानुकूलन करने वाली मशीनों की जरूरत स्वतः घट जाएगी।
इस मामले में अन्तरराष्ट्रीय नज़रिया बेहद बुनियादी है और ज्यादा व्यापक भी। वे मानते हैं कि पानी.. ऊर्जा है और ऊर्जा.. पानी। यदि पानी बचाना है तो ऊर्जा बचाओ। यदि ऊर्जा बचानी है तो पानी की बचत करना सीखो। बिजली के कम खपत वाले फ्रिज, बल्ब, मोटरें उपयोग करो। पेट्रोल की बजाय, प्राकृतिक गैस से कार चलाओ। अब थोड़ी चर्चा जलवायु अनुकूल वैकल्पिक विद्युत उत्पादन स्रोतों की:
भारत में सबसे अधिक बिजली खपत वाला शहर है। औसत खपत का आँकड़ा है, 2000 यूनिट यानी किलोवाट प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष। दिल्ली के 31 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में अभी 2500 मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता है। इस बाबत् एक नीतिगत प्रस्ताव अभी प्रकाश में आया है। दावा किया जा रहा है कि इससे दिल्ली की कुल खपत का पाँचवाँ हिस्सा हासिल किया जा सकेगा। वर्तमान स्थिति यह है कि अभी दिल्ली की छतें, 2015 के वर्ष में मात्र सात मेगावाट बिजली पैदा कर रही हैं।फिलहाल तय किया गया है कि भारत, वर्ष 2030 तक 175,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन गैर परम्परागत स्रोतों से करेगा। इस लक्ष्य प्राप्ति हेतु राय देने वाले कहते हैं कि ऊर्जा बनाने के लिये हवा, पानी, जैविक, कचरा, ज्वालामुखी तथा सूरज का उपयोग करो। फोटोवोल्टिक तकनीक अपनाओ। परमाणु ऊर्जा की वकालत करने वाले भी कम नहीं है।
पिछले दो दशकों में भारत ने पनबिजली को ‘क्लीन एनर्जी, ग्रीन एनर्जी’ के नारे के साथ तेजी से आगे बढ़ाया है। जबकि हकीकत यह है कि पनबिजली स्वयं सवालों के घेरे में है। वैश्विक तापमान वृद्धि दर तथा जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने में कितनी सहायक होगी और कितनी विरोधी? यह अपने आप में बहस का एक विषय बन गया है।
केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार भारत की 89 प्रतिशत पनबिजली परियोजनाएँ अपनी स्थापना क्षमता से कम उत्पादन कर रही हैं। सैंड्रप के अनुसार टिहरी की उत्पादन क्षमता 2400 मेगावाट दर्ज है। व्यवहार में वह औसतन 436 मेगावाट उत्पादन कर रही है। अधिकतम उत्पादन 700 मेगावाट से अधिक कभी हुआ ही नहीं।
वाष्पन-गाद निकासी में पानी व पैसे की निकासी तथा मलबा निष्पादन के कुप्रबन्धन के जरिए हुए नुकसान का गणित लगाएँ, तो बड़ी पनबिजली परियोजनाओं से लाभ कमाने की तस्वीर शुभ नहीं दिखाई देती। इसके बारे में हिन्दी वाटर पोर्टल पर बहन मीनाक्षी अरोड़ा का एक तर्कपूर्ण लेख है। लिहाजा, पनबिजली के बारे में इस लेख में मुझे बहुत कुछ लिखने की जरूरत नहीं है।
बस, हम इतना समझने की जरूरत है कि स्वच्छ ऊर्जा वह होती है, जिसके उत्पादन में कम पानी लगे तथा कार्बन डाइऑक्साइड व दूसरे प्रदूषक कम निकले। इन दो मानदंडों को सामने रखकर ही सही आकलन सम्भव है।
हाँ, सौर ऊर्जा विकल्प के बारे में अवश्य कुछ कहना है। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने लक्ष्य तय किया है कि भारत, वर्ष 2009 में 20 गीगावाट की तुलना में, वर्ष 2022 तक 100 गीगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन करेगा। कहा गया है कि लक्ष्य हासिल करने के लिये सरकार, लागत को 15 प्रतिशत तक घटाने की दिशा पर काम करना पहले ही शुरू कर चुकी है।
स्रोतों के मुताबिक, हिमाचल को वर्ष 2019-2020 तक गैर परम्परागत स्रोतों से 100 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य दिया गया है। ठंडे मरुस्थल होने के नाते लाहौल-स्पीति में इसकी क्षमता और सम्भावना..दोनों ही अधिक है। खबर यह भी है कि सूर्या उष्मा प्राइवेट कम्पनी ने एक दक्षिण अफ्रीकी समूह के साथ मिलकर इसमें निवेश का प्रस्ताव भी दे दिया है।
दिल्ली, भारत में सबसे अधिक बिजली खपत वाला शहर है। औसत खपत का आँकड़ा है, 2000 यूनिट यानी किलोवाट प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष। दिल्ली के 31 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में अभी 2500 मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता है। इस बाबत् एक नीतिगत प्रस्ताव अभी प्रकाश में आया है।
दावा किया जा रहा है कि इससे दिल्ली की कुल खपत का पाँचवाँ हिस्सा हासिल किया जा सकेगा। वर्तमान स्थिति यह है कि अभी दिल्ली की छतें, 2015 के वर्ष में मात्र सात मेगावाट बिजली पैदा कर रही हैं। लक्ष्य, 2020 तक 1,000 मेगावाट तथा 2025 तक दोगुना करना है। ऐसे ही लक्ष्य, अन्य राज्यों के समक्ष भी होंगे ही। किन्तु ये लक्ष्य इतने आसान हैं, जितनी सहजता से हमारे नेताओं द्वारा कहे अथवा यहाँ लिखे जा रहे हैं?
गौर कीजिए एक वर्ग किलोमीटर में 25 मेगावाट क्षमता के सौर ऊर्जा संयंत्र लगाए जा सकते हैं। इन्हें छत पर लगाए, नहरों के किनारे, चारागाहों अथवा अन्य खुली ज़मीनों पर ले जाएँ। भूमि की उपलब्धता की दृष्टि से क्या यह इतना सहज होगा? इस शंका का आईना यह भी है कि सौर ऊर्जा के मामले में हमारी वृद्धि दर, अभी एक गीगावाट प्रतिवर्ष से अधिक नहीं है।
अभी भारत की छतों पर एक गीगावाट से भी कम बिजली पैदा होती है। पिछले पाँच वर्षों में सौर ऊर्जा लागत 60 प्रतिशत तक गिरी है।
सब जानते हैं कि ज्वालामुखियों से भू-ऊर्जा का विकल्प तेजी से बढ़ते मौसमी तापमान को कम करने में अन्ततः मददगार ही होने वाला है। भारत के द्वीप समूहों में धरती के भीतर ज्वालामुखी के कितने ही स्रोत हैं। जानकारी होने के बावजूद हमने इस दिशा में क्या किया? पवन ऊर्जा प्रोत्साहन का प्रश्न तो रहेगा ही। समाज की जेब तक इनकी पहुँच बनाने का काम तो करना चाहिए था। कुछ नहीं, तो उपकरणों की लागत कम करने की दिशा में शोध तथा तकनीकी व आर्थिक मदद तो सम्भव थी। अलग मंत्रालय बनाकर भी हम कितना कर पाये?
हम इसके लिये पैसे का रोना रोते हैं। हमारे यहाँ कितने फुटपाथों की फर्श बदलने के लिये कुछ समय बाद जानबूझकर पत्थर व टाइल्स को तोड़ दिया जाता है। क्या दिल्ली के मोहल्लों में ठीक-ठाक सीमेंट सड़कों को तोड़कर फिर वैसा ही मसाला दोबारा चढ़ा दिये जाने की फ़िज़ूलखर्ची नहीं है। ऐसे जाने कितने मदों में पैसे की बर्बादी है।
क्यों नहीं पैसे की इस बर्बादी को रोककर, सही जगह लगाने की व्यवस्था बनती; ताकि लोग उचित विकल्प को अपनाने को प्रोत्साहित हों। स्पष्ट है कि बिजली और ईंधन पर बहुआयामी कदमों से ही बात बनेगी। कार्बन उत्सर्जन कम करने में निजी भूमिका तय किये बगैर कुछ बदलेगा नहीं। संकल्प ही विकल्प है। आइए, संकल्पित हों; उपभोग कम करें।
ईंधन
जहाँ तक ईंधन का सवाल है, गोबर-पेट्रोल-डीजल का क्या कोई उचित विकल्प है? मक्का से बनने वाले कॉर्न इथेनॉल को 0.6-2.0 जीपीएम, सैलुलोज बायोडीजल को 0.1 से 0.6 जीपीएम और गैसोलिन को सबसे कम 0.1 से 0.3 जीपीएम पानी चाहिए। यह तीनों ईंधन यातायात में ही प्रयोग होते हैं। सैलुलोज बायोडीजल सूखा क्षेत्रों की घास व टहनियों से बनाया जाता है। क्या ये विकल्प सभी भारत के अनुकूल हैं?
खपत
सिंचाई में ईंधन इंजनों के अलावा और विकल्प है? समक्ष खड़ा यह दूसरा प्रश्न तो है ही; आप यह भी कह सकते हैं कि सार्वजनिक परिवहन सुविधाएँ बेहतर की जाएँ; ताकि निजी वाहनों पर निर्भरता कम हो। कम ईंधन खपत वाले छोटे वाहनों को बुक करने की जगह, प्रति यात्री किराया आधार पर चलने का चलन कैसे बढ़े? सोचें! गियर वाली तेज रफ्तार साइकिलों की कीमतें घटाई जाएँ।
साइकिल के लिये शहरों में अलग सुरक्षित लेन बनाई जाये। एक स्तर तक साइकिल व रिक्शा जैसी बिना ईंधन की सवारी को सरकारी सवारी बनाया जाये। साइकिल व रिक्शा चलाने से ऊर्जा उत्पादन सम्भव है। इसका इस्तेमाल टेबल बल्ब जलाने से लेकर मोबाइल चार्ज करने जैसे कई बिजली खपत वाले कार्यों में किया जा सकता है। ऐसी और तकनीकों को मान्य, सस्ता व सुलभ बनाया जाये। इससे साइकिल व रिक्शा सवारी प्रोत्साहित होगी।
न्यूनतम ईंधन खपत तथा अनुकूल ईंधन से चलने वाली मशीनों को ईजाद करने की दिशा में शोध व उसके प्रसार को प्रोत्साहित किया जाये। नियुक्ति, स्थानान्तरण व दस्तावेज़ों-सामानों के उत्पादन व बिक्री की नीतियाँ तथा आदान-प्रदान की तकनीकें ऐसी हों, ताकि कर्मचारी व सामान..दोनों को कम-से-कम यात्रा करनी पड़े।
मतलब यह कि कर्मचारी और काम के स्थान तथा उत्पादन व खपत के स्थान के बीच की दूरी न्यूनतम कैसे हों, इस पर गहराई से विचार हो। इससे ईंधन की खपत घटेगी। पानी गर्म करने, खाना बनाने आदि में कम-से-कम ईंधन का उपयोग करो। उन्नत चूल्हे तथा उस ईंधन का उपयोग करो, जो बजाय किसी फैक्टरी में बनने के हमारे आसपास हमारे द्वारा तैयार व उपलब्ध हो।
विकसित देशों के वैज्ञानिक, बिन पानी सिर्फ हवा से संयंत्रों को ठंडा करने वाली प्रक्रिया का अनुमोदन करते हैं। एक उन्नत प्रक्रिया में गर्मी के समय में पानी और शेष में हवा का ही प्रयोग होता है। बन्द लूप प्रक्रिया में पानी के पुर्नउपयोग का प्रावधान है। एक अन्य प्रक्रिया में तालाब-झीलों का पानी उपयोग कर वापस जलसंरचनाओं में पहुँचाया जाता है।
आप कह सकते हैं कि यह सब तो ठीक है किन्तु उपहार और दहेज में मोटरसाइकिल और कारों को देने का बढ़ते चलन का क्या करें? इनसे एक की जरूरत वाले घरों में कई-कई वाहनों का जमावड़ा बढ़ रहा है। इस दिखावटी जीवनशैली से कैसे बचें? सोचना चाहिए।
बिजली
अब सीधे बिजली की बात करें। सन्तुष्ट करता चित्र यह है कि आज की तारीख में अमेरिकियों की तुलना में, भारतीयों की औसत विद्युत खपत लगभग 25 प्रतिशत है। किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में बिजली की बर्बादी नहीं हैं।
कितने प्रतिशत भारतीय कितनी खपत करता है; इसका भेद करेंगे, तो पता चल जाएगा कि एक वर्ग बेहताशा खपत करता है, दूसरा अनावश्यक बर्बाद करता है, तीसरा बिजली के दो-चार लट्टुओें पर ही गुजारा कर लेता है और चौथे के पास बिजली कनेक्शन तो है, लेकिन बिजली कब आएगी; पता नहीं।
भिन्न राज्य विद्युत बोर्डों द्वारा अभी देहात के कई इलाकों में एक तय मासिक बिल का चलन है। अवैध ‘कटिया’ कनेक्शन का चलन भी कम नहीं है। इस चलन के चलते अनावश्यक बिजली जलते रहने और सिंचाई हेतु नलकूप चलते रहने की चिन्ता कम ही ग्रामीणों को है। बर्बादी के मामले में शहरी भी कम नहीं है।
अक्सर शहरी बिजली की खपत अपनी जरूरत के मुताबिक नहीं, जेब के अनुसार करते हैं। जितना बिल वे झेल सकते हैं, उतने तक वे बिजली खपाने में किसी किफायत की परवाह व पैरवी नहीं करते। “अरे भाईसाहब, बिजली हम ज्यादा फूँकते हैं, तो बिल भी तो हम ही देते हैं। आपको सिर में दर्द क्यों होता है?’’ उनका यही रवैया है।
परिणामस्वरूप, एक ओर लोग बिजली की कमी झेलते हैं और दूसरी ओर बिजली बर्बाद होती है। यह असन्तुष्ट करता चित्र है। इसी का नतीजा है कि आज भारत की 25 से 28 प्रतिशत आबादी के घरों में बिजली नहीं है।
माँग
माँग का चित्र भिन्न है। भारत, एक विकसित होता हुआ देश है। आगे आने वाले वर्षों में भारत में बिजली की माँग और बढे़गी। सरकारी तौर पर माना गया है कि 2032 तक भारत की ऊर्जा माँग 800 गीगावाट होगी। पाँच साल पहले तक भारत का सकल घरेलू उत्पाद का 8 से 9 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ने तक यह माँग 900 गीगावाट बताई गई थी।
शुक्र है कि अभी भारत के सकल घरेलू उत्पाद के 60 प्रतिशत से अधिक निर्भरता सेवा क्षेत्र पर है, जोकि कम ऊर्जा खपत का क्षेत्र है; बावजूद इसके खपत और माँग, दोनों तो बढे़ेंगी ही। ज्यादातर उद्योग, पानी के लिये भूजल पर निर्भर होते जा रहे हैं। भूजल स्तर गिरने और नदियों में पानी के कम होते जाने की स्थिति में कृषि क्षेत्र में भी ईंधन और बिजली की माँग बढ़नी तय है।
जैसे-जैसे भारत में प्रति व्यक्ति आय में इज़ाफा होता ज्यादा अथवा मध्यम वर्ग में शामिल होने वालों की संख्या बढ़ती जाएगी, निश्चित रूप से उनकी जीवनशैली में बिजली की खपत बढ़ती जाएगी। अतः हमारी सबसे पहली प्राथमिकता क्या यह नहीं होनी चाहिए कि माँग की भी एक सीमा बनाए। बिजली खपत और जीवन में उपभोग कम करके ही यह हो सकता है? कैसे करें?
कैसे घटाएँ?
जाहिर है कि भूजल स्तर को ऊपर उठाने से यह होगा। बिजली बिल को खपत के आधार पर आकलन करने से उपयोग को अनुशासित होने में मदद मिलेगी। कटिया कनेक्शन अभियान चलाकर हटाए जाएँ। सभी कनेक्शनों में बिजली मीटर लगाए जाएँ। कम खपत वालों को बिजली दर में छूट दी जाये। ज्यादा खपत वालों से ज्यादा वसूला जाये।
इससे लोगों को ज्यादा घंटे बिजली देने की जवाबदेही भी बढ़ जाएगी। विशेषज्ञों की सलाह यह है कि गैस आधारित विद्युत संयंत्र से अच्छा है कि कुकिंग गैस की आपूर्ति बढ़ाएँ। बिजली से चलने वाले उत्पाद कम करें। परिसरों में हरियाली बढ़ाई जाये, इससे वातानुकूलन करने वाली मशीनों की जरूरत स्वतः घट जाएगी।
इस मामले में अन्तरराष्ट्रीय नज़रिया बेहद बुनियादी है और ज्यादा व्यापक भी। वे मानते हैं कि पानी.. ऊर्जा है और ऊर्जा.. पानी। यदि पानी बचाना है तो ऊर्जा बचाओ। यदि ऊर्जा बचानी है तो पानी की बचत करना सीखो। बिजली के कम खपत वाले फ्रिज, बल्ब, मोटरें उपयोग करो। पेट्रोल की बजाय, प्राकृतिक गैस से कार चलाओ। अब थोड़ी चर्चा जलवायु अनुकूल वैकल्पिक विद्युत उत्पादन स्रोतों की:
वैकल्पिक स्रोत
भारत में सबसे अधिक बिजली खपत वाला शहर है। औसत खपत का आँकड़ा है, 2000 यूनिट यानी किलोवाट प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष। दिल्ली के 31 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में अभी 2500 मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता है। इस बाबत् एक नीतिगत प्रस्ताव अभी प्रकाश में आया है। दावा किया जा रहा है कि इससे दिल्ली की कुल खपत का पाँचवाँ हिस्सा हासिल किया जा सकेगा। वर्तमान स्थिति यह है कि अभी दिल्ली की छतें, 2015 के वर्ष में मात्र सात मेगावाट बिजली पैदा कर रही हैं।फिलहाल तय किया गया है कि भारत, वर्ष 2030 तक 175,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन गैर परम्परागत स्रोतों से करेगा। इस लक्ष्य प्राप्ति हेतु राय देने वाले कहते हैं कि ऊर्जा बनाने के लिये हवा, पानी, जैविक, कचरा, ज्वालामुखी तथा सूरज का उपयोग करो। फोटोवोल्टिक तकनीक अपनाओ। परमाणु ऊर्जा की वकालत करने वाले भी कम नहीं है।
पनबिजली
पिछले दो दशकों में भारत ने पनबिजली को ‘क्लीन एनर्जी, ग्रीन एनर्जी’ के नारे के साथ तेजी से आगे बढ़ाया है। जबकि हकीकत यह है कि पनबिजली स्वयं सवालों के घेरे में है। वैश्विक तापमान वृद्धि दर तथा जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने में कितनी सहायक होगी और कितनी विरोधी? यह अपने आप में बहस का एक विषय बन गया है।
केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार भारत की 89 प्रतिशत पनबिजली परियोजनाएँ अपनी स्थापना क्षमता से कम उत्पादन कर रही हैं। सैंड्रप के अनुसार टिहरी की उत्पादन क्षमता 2400 मेगावाट दर्ज है। व्यवहार में वह औसतन 436 मेगावाट उत्पादन कर रही है। अधिकतम उत्पादन 700 मेगावाट से अधिक कभी हुआ ही नहीं।
वाष्पन-गाद निकासी में पानी व पैसे की निकासी तथा मलबा निष्पादन के कुप्रबन्धन के जरिए हुए नुकसान का गणित लगाएँ, तो बड़ी पनबिजली परियोजनाओं से लाभ कमाने की तस्वीर शुभ नहीं दिखाई देती। इसके बारे में हिन्दी वाटर पोर्टल पर बहन मीनाक्षी अरोड़ा का एक तर्कपूर्ण लेख है। लिहाजा, पनबिजली के बारे में इस लेख में मुझे बहुत कुछ लिखने की जरूरत नहीं है।
बस, हम इतना समझने की जरूरत है कि स्वच्छ ऊर्जा वह होती है, जिसके उत्पादन में कम पानी लगे तथा कार्बन डाइऑक्साइड व दूसरे प्रदूषक कम निकले। इन दो मानदंडों को सामने रखकर ही सही आकलन सम्भव है।
सूरज से बिजली
हाँ, सौर ऊर्जा विकल्प के बारे में अवश्य कुछ कहना है। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने लक्ष्य तय किया है कि भारत, वर्ष 2009 में 20 गीगावाट की तुलना में, वर्ष 2022 तक 100 गीगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन करेगा। कहा गया है कि लक्ष्य हासिल करने के लिये सरकार, लागत को 15 प्रतिशत तक घटाने की दिशा पर काम करना पहले ही शुरू कर चुकी है।
स्रोतों के मुताबिक, हिमाचल को वर्ष 2019-2020 तक गैर परम्परागत स्रोतों से 100 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य दिया गया है। ठंडे मरुस्थल होने के नाते लाहौल-स्पीति में इसकी क्षमता और सम्भावना..दोनों ही अधिक है। खबर यह भी है कि सूर्या उष्मा प्राइवेट कम्पनी ने एक दक्षिण अफ्रीकी समूह के साथ मिलकर इसमें निवेश का प्रस्ताव भी दे दिया है।
दिल्ली, भारत में सबसे अधिक बिजली खपत वाला शहर है। औसत खपत का आँकड़ा है, 2000 यूनिट यानी किलोवाट प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष। दिल्ली के 31 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में अभी 2500 मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता है। इस बाबत् एक नीतिगत प्रस्ताव अभी प्रकाश में आया है।
दावा किया जा रहा है कि इससे दिल्ली की कुल खपत का पाँचवाँ हिस्सा हासिल किया जा सकेगा। वर्तमान स्थिति यह है कि अभी दिल्ली की छतें, 2015 के वर्ष में मात्र सात मेगावाट बिजली पैदा कर रही हैं। लक्ष्य, 2020 तक 1,000 मेगावाट तथा 2025 तक दोगुना करना है। ऐसे ही लक्ष्य, अन्य राज्यों के समक्ष भी होंगे ही। किन्तु ये लक्ष्य इतने आसान हैं, जितनी सहजता से हमारे नेताओं द्वारा कहे अथवा यहाँ लिखे जा रहे हैं?
गौर कीजिए एक वर्ग किलोमीटर में 25 मेगावाट क्षमता के सौर ऊर्जा संयंत्र लगाए जा सकते हैं। इन्हें छत पर लगाए, नहरों के किनारे, चारागाहों अथवा अन्य खुली ज़मीनों पर ले जाएँ। भूमि की उपलब्धता की दृष्टि से क्या यह इतना सहज होगा? इस शंका का आईना यह भी है कि सौर ऊर्जा के मामले में हमारी वृद्धि दर, अभी एक गीगावाट प्रतिवर्ष से अधिक नहीं है।
अभी भारत की छतों पर एक गीगावाट से भी कम बिजली पैदा होती है। पिछले पाँच वर्षों में सौर ऊर्जा लागत 60 प्रतिशत तक गिरी है।
संकल्प का संकट
सब जानते हैं कि ज्वालामुखियों से भू-ऊर्जा का विकल्प तेजी से बढ़ते मौसमी तापमान को कम करने में अन्ततः मददगार ही होने वाला है। भारत के द्वीप समूहों में धरती के भीतर ज्वालामुखी के कितने ही स्रोत हैं। जानकारी होने के बावजूद हमने इस दिशा में क्या किया? पवन ऊर्जा प्रोत्साहन का प्रश्न तो रहेगा ही। समाज की जेब तक इनकी पहुँच बनाने का काम तो करना चाहिए था। कुछ नहीं, तो उपकरणों की लागत कम करने की दिशा में शोध तथा तकनीकी व आर्थिक मदद तो सम्भव थी। अलग मंत्रालय बनाकर भी हम कितना कर पाये?
उचित नहीं पैसे का रोना
हम इसके लिये पैसे का रोना रोते हैं। हमारे यहाँ कितने फुटपाथों की फर्श बदलने के लिये कुछ समय बाद जानबूझकर पत्थर व टाइल्स को तोड़ दिया जाता है। क्या दिल्ली के मोहल्लों में ठीक-ठाक सीमेंट सड़कों को तोड़कर फिर वैसा ही मसाला दोबारा चढ़ा दिये जाने की फ़िज़ूलखर्ची नहीं है। ऐसे जाने कितने मदों में पैसे की बर्बादी है।
क्यों नहीं पैसे की इस बर्बादी को रोककर, सही जगह लगाने की व्यवस्था बनती; ताकि लोग उचित विकल्प को अपनाने को प्रोत्साहित हों। स्पष्ट है कि बिजली और ईंधन पर बहुआयामी कदमों से ही बात बनेगी। कार्बन उत्सर्जन कम करने में निजी भूमिका तय किये बगैर कुछ बदलेगा नहीं। संकल्प ही विकल्प है। आइए, संकल्पित हों; उपभोग कम करें।