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डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 24 अप्रैल 2015
प्रकृति सृजन का पर्याय भी है और प्रकोप के जरिए वह सन्तुलन भी स्थापित करती रही है। कुदरत अपनी आत्मा के तौर पर विनाशकारी नहीं होती। यदि ऐसा ही होता तो करीब एक हजार साल पुराना केदारनाथ मन्दिर यथावत न रह पाता।देवभूमि उत्तराखण्ड के चारों धामों के कपाट श्रद्धालुओं के लिए खुलने लगे हैं। अक्षय तृतीया के शुभ अवसर पर गंगोत्री व यमुनोत्री के कपाट खुल चुके हैं, जबकि केदारनाथ और बद्रीनाथ के कपाट क्रमश: इसी महीने की 24 और 26 तारीख को खुलेंगे। 2013 में 16 जून को केदारनाथ में आई तबाही के बाद की ये दूसरी चार धाम यात्रा है। आपदा के समय की परिस्थितियों को देखते हुए तो ऐसा नहीं लग रहा था कि अगले तीन-चार वर्षों से पहले फिर से ये यात्रा शुरू हो पाएगी, लेकिन राज्य सरकार अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए सभी चीजों को नजरअन्दाज करते हुए आनन-फानन में साल भर के अन्दर ही चारों धामों की यात्राओं का श्रीगणेश कर दिया था, लेकिन वहाँ पर श्रद्धालुओं की भीड़ जुटा पाने में सरकार असफल साबित हुई। उसके बाद सरकार ने सबक लेते हुए वहाँ के विकास कार्यों और सुविधाओं की व्यवस्था पर जोर देना शुरू किया।
लगभग एक साल से अनवरत चल रहे कार्यों का खुद मुख्यमन्त्री ने जायजा लिया है और इस बार यात्रा से सम्बन्धित तैयारियों को लेकर अत्यधिक गदगद नजर आ रहे हैं। साथ ही इस बार श्रद्धालुओं और पर्यटकों की भीड़ जुटाने के लिए हरसम्भव प्रयास भी कर रहे हैं। यूँ तो उत्तराखण्ड से श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों का वास्ता तो बहुत पुराना है, इसलिए इस यात्रा में भीड़ जुटा पाना सरकार के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राज्य सरकार विपरीत परिस्थितियों में संकट का सामना कर पाने में सक्षम है।
हालांकि राज्य सरकार श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों की सुरक्षा के पुख्ता इन्तजाम के दावे कर रही है, लेकिन पर्यटकों की आमद को हम व्यवस्था से शायद ही तोल पाएँ। खासतौर पर गर्मियों में पर्यटकों की लम्बी कतारों के बीच खतरे मण्डरा रहे होते हैं। जाहिर तौर पर पर्वतीय रास्तों की बुनियाद आरम्भ में चन्द लोगों के हिसाब से विकसित होती है, लेकिन बाद में यात्रियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि से दबाव बढ़ता है।
विडम्बना यह है कि हम यात्राओं की क्षमता को नवीन अधोसंरचना से न ही जोड़ पाते हैं और न ही आपात स्थितियों में वैकल्पिक मार्ग की तलाश कर पाते हैं। पिछले कुछ वर्षों से चारों धामों की यात्रा जिस ढंग से सामान्य सैर-सपाटे और मौज-मस्ती में तब्दील होती जा रही है, उसे देखते हुए यह सोचना जरूरी हो जाता है कि इस तरह के पर्यटन को आप किस तरह की संज्ञा देंगे।
तीर्थ यात्रियों द्वारा फेंकी जाने वाली पानी की खाली बोतलें और प्लास्टिक की थैलियाँ पर्यावरण को कितना नुकसान पहुँचाती हैं। हम प्रकृति को चुनौती देते रहेंगे तो क्या प्रकृति चुप बैठने वाली है। अपने ऊपर होने वाले अत्याचार का बदला प्रकृति अवश्य लेती है।भक्तों की तादाद पर पर्यटन हावी हो रहा है और इस वजह से ऐसी यात्राओं को हम महज आस्था के सहारे नहीं छोड़ सकते। इसे राज्य के परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है यानी इमरजेंसी के हालात में व्यापक बचाव प्रबन्धन की तैयारी भी करनी होगी। कभी किसी ने इस पहलू पर शायद गौर नहीं किया होगा कि उत्तराखण्ड के तीर्थ स्थल कितने लोगों के आवागमन व उनके ठहरने या गाड़ियों के काफिलों के आने-जाने की क्षमता रखते हैं और साथ में यह भी कि क्या उसके अनुरूप यहाँ पर इन्तजाम हैं भी या नहीं। यहाँ हमारा आशय धर्मप्राण जनता की भावना को चोट पहुँचाना नहीं, बल्कि उचित व्यवस्था पर जोर देना है। यदि श्रीअमरनाथ और वैष्णो देवी की यात्रा को व्यवस्थित रखने के लिए कुछ नियम रखे गए हैं तो यहाँ क्यों नहीं?
प्रकृति सृजन का पर्याय भी है और प्रकोप के जरिए वह सन्तुलन भी स्थापित करती रही है। कुदरत अपनी आत्मा के तौर पर विनाशकारी नहीं होती। यदि ऐसा ही होता तो करीब एक हजार साल पुराना केदारनाथ मन्दिर यथावत न रह पाता। इसे दैवीय चमत्कार कहें या मंदिर का बेजोड़ शिल्प, केदारनाथ के अस्तित्व ने असंख्य तीर्थयात्रियों और भक्तों की आस्था को बरकरार रखा है। लेकिन मॉल की तरह इस्तेमाल होते मन्दिरों, होटलों, धर्मशालाओं और बाजारों को उस प्रलय, आकस्मिक सैलाब या अप्रत्याशित जलजले ने मलबा बना दिया। इसमें निहित अनास्था को महसूस किया जा सकता है। मौजूदा सन्दर्भों में यही पहाड़ की त्रासदी है।
चार धाम पर जाने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या सीमित की जाए, क्योंकि पहाड़ इतनी संख्या को झेलने में सक्षम नहीं हैं। 2013 में आई भीषण आपदा का ठीकरा भले ही हम कुदरत के सिर पर फोड़ दें, लेकिन हकीकत यही है कि यह प्रकृति से खिलवाड़ और चुनौती देने का नतीजा था। पानी का प्रवाह रोकने का मामला हो या पहाड़ों में पर्यावरण प्रदूषण का बढ़ता मामला, न सरकार सचेत नजर आती है और न ही जनता। पहाड़ों में बांध बनने के सवाल पर लम्बी-चौड़ी बहस का कोई सार्थक नतीजा नहीं निकल पाया है।
पहाड़ी राज्यों के पर्यावरण को सुरक्षित बनाए रखने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों को ऐसी नीति बनानी चाहिए, जिससे प्रकृति के मूल स्वरूप को बनाए रखते हुए आस्था के साथ सामंजस्य बैठाया जा सके।उत्तराखण्ड में केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री अथवा ऋषिकेश धर्म और आस्था के ऐसे केन्द्र हैं, जहाँ हर साल लाखों श्रद्धालु पहुँचते हैं। क्या सरकार ने कभी विचार किया कि इतने लोगों के जाने से पहाड़ों को क्या नुकसान हो रहा है। तीर्थ यात्रियों द्वारा फेंकी जाने वाली पानी की खाली बोतलें और प्लास्टिक की थैलियाँ पर्यावरण को कितना नुकसान पहुँचाती हैं। हम प्रकृति को चुनौती देते रहेंगे तो क्या प्रकृति चुप बैठने वाली है। अपने ऊपर होने वाले अत्याचार का बदला प्रकृति अवश्य लेती है। पहाड़ी राज्यों के पर्यावरण को सुरक्षित बनाए रखने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों को ऐसी नीति बनानी चाहिए, जिससे प्रकृति के मूल स्वरूप को बनाए रखते हुए आस्था के साथ सामंजस्य बैठाया जा सके।
ई-मेल : sunil.tiwari.ddun@gmail.com
लगभग एक साल से अनवरत चल रहे कार्यों का खुद मुख्यमन्त्री ने जायजा लिया है और इस बार यात्रा से सम्बन्धित तैयारियों को लेकर अत्यधिक गदगद नजर आ रहे हैं। साथ ही इस बार श्रद्धालुओं और पर्यटकों की भीड़ जुटाने के लिए हरसम्भव प्रयास भी कर रहे हैं। यूँ तो उत्तराखण्ड से श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों का वास्ता तो बहुत पुराना है, इसलिए इस यात्रा में भीड़ जुटा पाना सरकार के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राज्य सरकार विपरीत परिस्थितियों में संकट का सामना कर पाने में सक्षम है।
हालांकि राज्य सरकार श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों की सुरक्षा के पुख्ता इन्तजाम के दावे कर रही है, लेकिन पर्यटकों की आमद को हम व्यवस्था से शायद ही तोल पाएँ। खासतौर पर गर्मियों में पर्यटकों की लम्बी कतारों के बीच खतरे मण्डरा रहे होते हैं। जाहिर तौर पर पर्वतीय रास्तों की बुनियाद आरम्भ में चन्द लोगों के हिसाब से विकसित होती है, लेकिन बाद में यात्रियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि से दबाव बढ़ता है।
विडम्बना यह है कि हम यात्राओं की क्षमता को नवीन अधोसंरचना से न ही जोड़ पाते हैं और न ही आपात स्थितियों में वैकल्पिक मार्ग की तलाश कर पाते हैं। पिछले कुछ वर्षों से चारों धामों की यात्रा जिस ढंग से सामान्य सैर-सपाटे और मौज-मस्ती में तब्दील होती जा रही है, उसे देखते हुए यह सोचना जरूरी हो जाता है कि इस तरह के पर्यटन को आप किस तरह की संज्ञा देंगे।
तीर्थ यात्रियों द्वारा फेंकी जाने वाली पानी की खाली बोतलें और प्लास्टिक की थैलियाँ पर्यावरण को कितना नुकसान पहुँचाती हैं। हम प्रकृति को चुनौती देते रहेंगे तो क्या प्रकृति चुप बैठने वाली है। अपने ऊपर होने वाले अत्याचार का बदला प्रकृति अवश्य लेती है।भक्तों की तादाद पर पर्यटन हावी हो रहा है और इस वजह से ऐसी यात्राओं को हम महज आस्था के सहारे नहीं छोड़ सकते। इसे राज्य के परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है यानी इमरजेंसी के हालात में व्यापक बचाव प्रबन्धन की तैयारी भी करनी होगी। कभी किसी ने इस पहलू पर शायद गौर नहीं किया होगा कि उत्तराखण्ड के तीर्थ स्थल कितने लोगों के आवागमन व उनके ठहरने या गाड़ियों के काफिलों के आने-जाने की क्षमता रखते हैं और साथ में यह भी कि क्या उसके अनुरूप यहाँ पर इन्तजाम हैं भी या नहीं। यहाँ हमारा आशय धर्मप्राण जनता की भावना को चोट पहुँचाना नहीं, बल्कि उचित व्यवस्था पर जोर देना है। यदि श्रीअमरनाथ और वैष्णो देवी की यात्रा को व्यवस्थित रखने के लिए कुछ नियम रखे गए हैं तो यहाँ क्यों नहीं?
प्रकृति सृजन का पर्याय भी है और प्रकोप के जरिए वह सन्तुलन भी स्थापित करती रही है। कुदरत अपनी आत्मा के तौर पर विनाशकारी नहीं होती। यदि ऐसा ही होता तो करीब एक हजार साल पुराना केदारनाथ मन्दिर यथावत न रह पाता। इसे दैवीय चमत्कार कहें या मंदिर का बेजोड़ शिल्प, केदारनाथ के अस्तित्व ने असंख्य तीर्थयात्रियों और भक्तों की आस्था को बरकरार रखा है। लेकिन मॉल की तरह इस्तेमाल होते मन्दिरों, होटलों, धर्मशालाओं और बाजारों को उस प्रलय, आकस्मिक सैलाब या अप्रत्याशित जलजले ने मलबा बना दिया। इसमें निहित अनास्था को महसूस किया जा सकता है। मौजूदा सन्दर्भों में यही पहाड़ की त्रासदी है।
चार धाम पर जाने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या सीमित की जाए, क्योंकि पहाड़ इतनी संख्या को झेलने में सक्षम नहीं हैं। 2013 में आई भीषण आपदा का ठीकरा भले ही हम कुदरत के सिर पर फोड़ दें, लेकिन हकीकत यही है कि यह प्रकृति से खिलवाड़ और चुनौती देने का नतीजा था। पानी का प्रवाह रोकने का मामला हो या पहाड़ों में पर्यावरण प्रदूषण का बढ़ता मामला, न सरकार सचेत नजर आती है और न ही जनता। पहाड़ों में बांध बनने के सवाल पर लम्बी-चौड़ी बहस का कोई सार्थक नतीजा नहीं निकल पाया है।
पहाड़ी राज्यों के पर्यावरण को सुरक्षित बनाए रखने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों को ऐसी नीति बनानी चाहिए, जिससे प्रकृति के मूल स्वरूप को बनाए रखते हुए आस्था के साथ सामंजस्य बैठाया जा सके।उत्तराखण्ड में केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री अथवा ऋषिकेश धर्म और आस्था के ऐसे केन्द्र हैं, जहाँ हर साल लाखों श्रद्धालु पहुँचते हैं। क्या सरकार ने कभी विचार किया कि इतने लोगों के जाने से पहाड़ों को क्या नुकसान हो रहा है। तीर्थ यात्रियों द्वारा फेंकी जाने वाली पानी की खाली बोतलें और प्लास्टिक की थैलियाँ पर्यावरण को कितना नुकसान पहुँचाती हैं। हम प्रकृति को चुनौती देते रहेंगे तो क्या प्रकृति चुप बैठने वाली है। अपने ऊपर होने वाले अत्याचार का बदला प्रकृति अवश्य लेती है। पहाड़ी राज्यों के पर्यावरण को सुरक्षित बनाए रखने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों को ऐसी नीति बनानी चाहिए, जिससे प्रकृति के मूल स्वरूप को बनाए रखते हुए आस्था के साथ सामंजस्य बैठाया जा सके।
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