जब भी याद करता नर्मदा को

Submitted by birendrakrgupta on Fri, 07/25/2014 - 16:37
Source
नया ज्ञानोदय, अंक 136, जून 2014
मैंने तो
मकर संक्रान्ति की शीत लहर में
ठंड से कांपती नर्मदा को
कुनकुनी रेत के अलाव पर
बदन सेंकते देखा है घाट-घाट
बांटते देखा है सदाबरत और
गुड़-बिल्ली का परसाद
हंस-हंसकर दिनभर

रोते भी देखा उस वक्त
जब सावन की मूसलाधार झरी में
गांव के गांव बहे थे गोद में उसकी

रखवाली करते तो-
पिछली गरमी में ही देखा उसे
जब नहाते वक्त
हमारे कपड़ों लत्तों-समान के पास
बैठी रही पेढ़ियों पर चौकन्ना

और उस दिन तो
आंगन तक छोड़ने आयी थी
जब मां का अंतिम संस्कार कर
लौट रहा था घर

अब तो ये हाल है कि
जब भी याद करता नर्मदा को
वह मेरे करीब होती
या मैं उसके
बल्कि नर्मदाकार ही होते-
एक साथ हम!!

कवि, आलोचक व लेखक।