नर्मदा की सहायक अजनाल के बारे में

Submitted by birendrakrgupta on Fri, 07/25/2014 - 16:43
Source
नया ज्ञानोदय, अंक 136, जून 2014
नर्मदा से मिलने वाली सहायक
हरदा की अजनाल नदी के बारे में
बार-बार पूछते फोन पर
इन्दौर से कृष्णकान्त बिलों से
और हर बार उसांसें छोड़ते
बताना पड़ता उन्हें
कि अजनाल अब जीवित नदी नहीं है यहां
और जो जीवित थी उसे तो तुम
हरदा छोड़ते वक्त अपने साथ ले गये
थेअपनी यादों की झोली में तभी

वैसे कुछ लोग हैं
जो तुम्हारे वक्त की अजनाल में तैरने
औरी घाटों पर घटी खटमिट्ठी बातों की
बातें करते हैं
लेकिन अब एक आभास नदी मात्र रह गयी है

अजनाल यहां
बावजूद नगरपालिका की देखरेख के
अजनाल वैसी ही बह रही हरदा में
जैसी कि तुम्हारे इन्दौर की खान नदी
कि जहां महापालिका की गंदगी और
तीज त्योहारों की लीलाएं
नगरी की सफाई के बहाने बहाई जाती हैं
कि जिसमें उन दिनों राष्ट्रपिता गांधी की
पावन अस्थियों का प्रणतभाव से
विसर्जन कर धन्य हुए थे हम

या कि कानपुर की प्रदूषण झेलती गंगा जैसी
कि जिसे भागीरथ खुद लेकर आये थे

अथवा दिल्ली की यमुना सरीखी
कि जिसके तट पर केलियां करते कृष्ण
इन्द्रप्रस्थ से होते कुरुक्षेत्र तक गये थे-
गीता के महागान की सर्जना करने
और मेरे गांव की कंदेली नदी को तो
बेशरमी की झाड़ियों ने
ऐसा बदल दिया है कि
गांव को भी पता नहीं रहा कि वह
कंदेली के किनारे पर भी बसा था कभी
उसमें इतनी भी नमी रही आजकल
कि भैंसो से बैइने की
गुठान ही बन सके ठीक से

अब जब भी गिरता पहाड़ पर पानी
पूरा का पूरा समा जाता गेवड़ों तक
लेकिन तब भी-
कंदेली का निशान तक नहीं छलकता गांव में

भाई रे!
मत पूछना अजनाल के बारे में कुछ भी
कि जिसे देखते रहने के लिए
सेवामुक्ति के बाद
अभी-अभी बनवाया है कि कला विद मन्नाभाई
नर्मदा प्रसाद ने तीन मंजिला मकान
और खेड़ीपुरा की टेकरी पर
ज्ञानेश मास्टर ने स्कूल भवनठाट से
लेकिन वहां से भी
कचरों के ढेर से लदे-फदे
अजनाल के खंडित किनारे ही
नजर आते हैं

और दुर्गन्ध छोड़ती पन्नियां
हवा के भटकते झोकों के साथ उड़कर
भाइयों के भवनों की छतों तक आ जाती हैं
जिनसे नाव बनाकर-
नाव नाव का खेल तक नहीं खेल पाते बच्चे
ना ही सुगन्ध पर
बातें कर पाते आपस में कभी
न सही अजनाल
लेकिन उसके होने की अनिवार्यता
आज भी हमारे अंदर
भागीरथ के उन सपनों की तरह है
जो अपनी धरती पर
नदियों के निर्माण की
निर्मल चेतना के संकल्प जगाये हैं!!

कवि, आलोचक व लेखक।