प्रकृति अब तक हमें निरंतर आवश्यकतानुसार जल उपलब्ध कराती रही है किंतु उसके अंधाधुंध दोहन के कारण स्वच्छ जल की उपलब्धता अत्यंत कम होती जा रही है। विश्व के लगभग डेढ़ अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल रहा है। पानी की कमी के चलते वातावरण एवं जलवायु चक्र निरंतर प्रभावित हो रहा है। फलस्वरूप जलवायु परिवर्तन की समस्या भी नित्य प्रति सामने आ रही है। जल एवं जलवायु का अनन्यतम संबंध है। दोनों एक दूसरे के सहयोगी एवं पूरक हैं, दोनों अन्योन्याश्रित हैं। आज पूरा विश्व वाटर इज क्लाइमेट एंड क्लाइमेट इज वाटर की बात पूरी तरह से स्वीकार कर रहा है। इनमें से किसी में भी परिवर्तन होने से दूसरे का प्रभावित होना अनिवार्य है।
क्षेत्र विशेष में विद्यमान जल की मात्रा वहां के वातावरण को ही नहीं अपितु पूर्ण जलवायु को भी प्रभावित करती है, जल की मात्रा के कम या अधिक होने से जलवायु में निरंतर परिवर्तन भी होता रहता है, जिसे देखते हुए 20 मार्च 2020 को मनाए जाने वाले विश्व जल दिवस की थीम भी जल और जलवायु परिवर्तन ही संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निश्चित की गई थी और जल और जलवायु के संबंध पर विचार करते हुए जलवायु परिवर्तन से प्रकृति एवं जीवन में पड़ रहे दुष्प्रभावों पर नियंत्रण पाने की दिशा में कार्य करने का निश्चय किया गया था। क्षेत्र विशेष में विद्यमान जल न केवल जलवायु पर नियंत्रण रखता है अपितु उसे परिवर्तित होने से भी रोकता है, किंतु वर्षा जल एवं भूगर्भ के जल स्तर में निरंतर हो रही कमी से उत्पन्न जल संकट आज स्वयं विकराल समस्या के रूप में सामने है। अनियंत्रित औद्योगीकरण तथा कृषि उत्पादन में निरंतर बढ़ोतरी के लिए भूजल का अत्यधिक दोहन भूगर्भ के जल स्तर को निरंतर कम करता जा रहा है। भूगर्भ के जल स्तर में हो रही निरंतर कमी से वातावरण भी प्रभावित हो रहा है। पानी की अधिकता से वातावरण जहां नम एवं शीतल होता है, वहीं उसकी कमी हो जाने पर वातावरण में अत्यधिक गर्मी तथा तापमान बढ़ जाता है। फलस्वरूप जलवायु में परिवर्तन परिलक्षित होता है। यद्यपि जलवायु परिवर्तन के मूल में अनेकानेक कारण है जिनमें ग्रीन हाउस गैसें ,अनियंत्रित औद्योगिकरण, पृथ्वी का बढ़ता हुआ तापमान आदि प्रमुख हैं किंतु उनमें सर्व प्रमुख है भूगर्भ में विद्यमान जल की कमी। भूजल का संरक्षण कर उसमें वृद्धि करते हुए जलवायु परिवर्तित करने वाले अन्य कारणों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। यदि भूगर्भ का जल स्तर बढ़कर पर्याप्त हो जाए और वातावरण पर्याप्त नम हो जाए, तो जलवायु परिवर्तन के अन्य कारण अप्रासंगिक हो जाएंगे तथा वह जलवायु परिवर्तन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा पाएंगे। ऐसी स्थिति में जलवायु को पृथ्वी के अनुकूल बनाए रखने के लिए जल संरक्षण की परम तथा प्रमुख आवश्यकता है।
पृथ्वी का 70% भाग जल से भरा है जिसमें एक अरब चालीस घनलीटर पानी विद्यमान है, जल की इतनी विशाल राशि उपलब्ध होने के बावजूद इसमें पीने योग्य मीठे पानी की मात्रा अत्यंत कम है। पृथ्वी में विद्यमान जल का 97.3% भाग समुद्र का खारा जल है, शेष 27% पीने योग्य जल है। पीने योग्य जल का 75.2% जल ध्रुवीय क्षेत्रों में तथा 22.6% भूगर्भ में जल के रूप में स्थित है, शेष 2.2 प्रतिशत पीने योग्य जल नदियों झीलों आदि के रूप में पाया जाता है, जिसका 60% भाग कृषि एवं उद्योगों के द्वारा प्रयोग में लाया जाता है शेष 40% सीधे पीने आदि के उपयोग में लाया जाता है। समस्त देश गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं ,अगर इस समस्या पर शीघ्र ध्यान नहीं दिया जाता तो इन देशों में पानी की एक बूंद भी नहीं बचेगी। डब्ल्यूआरआई ने भूजल भंडार और उसमें आ रही निरंतर कमी ,बाढ़ और सूखे के खतरे के आधार पर विश्व के 189 देशो को वहां पर उपलब्ध पानी को दृष्टि में रखकर श्रेणीबद्ध किया है। जल संकट के मामले में भारत विश्व में 13वें स्थान पर है। भारत के लिए इस मोर्चे पर चुनौती बड़ी है, क्योंकि उसकी आबादी जल संकट का सामना कर रहे अन्य समस्याग्रस्त 16 देशों से 3 गुना ज्यादा है। भारत के उत्तरी भाग में जल संकट भूजल स्तर के अत्यंत नीचे चले जाने के कारण अत्यंत गंभीर है। यहां पर जल संकट 'डे जीरो' के कगार पर है,इस स्थिति में नलों का पानी भी सूख जाता है। विगत दिनों बंगलौर एवं चेन्नई में यह स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। कम हो रही वर्षा तथा निरन्तर गिरते भूगर्भ जल स्तर को देखते हुये निकट भविष्य में सम्पूर्ण भारत, विशेष रूप से उत्तर भारत में पानी की अत्यन्त कमी अतिशीघ्र होने वाली है। आज देश के अनेक भागों में जल की अनुपलब्धता के कारण आंदोलन और संघर्ष हो रहे हैं। दक्षिण भारत के चेन्नई से लेकर उत्तर भारत के अनेक शहरों में पेयजल की समस्या खड़ी है। देश के लगभग 60% घरों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है। लोग प्रदूषित पानी पीने के लिए बाध्य हैं, जिसके चलते लगभग 4 करोड़ लोग प्रतिवर्ष प्रदूषित पानी पीने से बीमार होते हैं तथा लगभग 6 करोड लोग फ्लोराइड युक्त पानी पीने के लिए विवश हैं। देश में प्रतिवर्ष लगभग 4000 अरब घन मीटर पानी वर्षा के जल के रूप में प्राप्त होता है किंतु उसका लगभग 8% पानी ही हम संरक्षित कर पाते हैं, शेष पानी नदियों ,नालों के माध्यम से बहकर समुद्र में चला जाता है।
हमारी सांस्कृतिक परंपरा में वर्षा के जल को संरक्षित करने पर विशेष ध्यान दिया गया था, जिसके चलते स्थान स्थान पर पोखर ,तालाब, बावड़ी, कुआं आदि निर्मित कराए जाते थे , जिनमें वर्षा का जल एकत्र होता था तथा वह वर्ष भर जीव-जंतुओं सहित मनुष्यों के लिए भी उपलब्ध होता था, किंतु वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर इन्हें संरक्षण न दिए जाने के कारण अब तक लगभग 4500 नदियां तथा 2200000 तालाब झील आदि सूख गई हैं तथा वह भू माफिया के अवैध कब्जे का शिकार होकर अपना अस्तित्व गवा बैठे हैं। फलस्वरूप उनके पानी में औद्योगिक फैक्ट्रियों से निकलने वाले गंदे पानी कचड़े के मिल जाने से उन का जल इतना प्रदूषित हो गया है कि उसको पीना तो बहुत दूर स्नान करने पर भी अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाने का खतरा विद्यमान है। देश की सबसे पावन नदी गंगा कुंभ के अवसर पर भले ही स्नान योग्य जल से युक्त रही हो ,किंतु आज वह फैक्ट्रियों के कचड़े एवं उनके छोड़े गए प्रदूषित पानी के प्रभाव से गंदे पानी की धारा बन गई है , जिस में स्नान करने से पूर्व श्रद्धालु से श्रद्धालु व्यक्ति को भी अनेक बार सोचना पड़ जाता है। भारत की कृषि पूर्णतया वर्षा जल पर निर्भर है। वर्षा पर्याप्त होने पर सिंचाई के अन्य साधन सुलभ हो जाते हैं किंतु वर्षा न होने पर सभी साधन जवाब दे देते हैं और कृषि सूखे का शिकार हो जाती है। चीनी उत्पादक महाराष्ट्र एवं उत्तर प्रदेश के किसान निरंतर गन्ने की खेती पर बल दे रहे हैं और सरकार भी गन्ना उत्पादन के लिए उन्हें प्रोत्साहित कर रही है ।इसी प्रकार धान की खेती के लिए पंजाब छत्तीसगढ़ उत्तर प्रदेश इत्यादि अनेक राज्य धान की फसल का क्षेत्रफल निरंतर बढ़ाते जा रहे हैं किंतु उसके लिए पानी प्राप्त न होने के कारण वह पानी भूगर्भ से निकाल कर खेतों को सींचा जा रहा है जिससे भूगर्भ में स्थित जल का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है, जिस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा और पानी की समस्या निरंतर बढ़ती जा रही है।, स्पष्ट है कि जल प्रदूषण के अनेक स्रोत हैं जो सामूहिक रूप से जल को प्रदूषित करते हैं।
देशवासियों के सामर्थ्य ,सहयोग और संकल्प से मौजूदा जल संकट का समाधान प्राप्त कर लिया जाएगा, किंतु जल संरक्षण के तौर-तरीकों को प्रयोग में लाने के लिए सरकारी तंत्र की भूमिका बहुत आशा जनक नहीं है। यद्यपि सरकार ने विभिन्न राज्यों में जल संरक्षण संबंधी नियम कानून बना रखे हैं लेकिन व्यवहार में वह नियम कानून कागजों तक ही सीमित है ,क्योंकि सरकारी तंत्र जल संरक्षण के लिए प्रायः वर्षा ऋतु में ही सक्रिय होता है और खाना पूरी कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेतां है। उसकी ढिलाई के कारण देश के अनेक बड़े हिस्सों में जनता चाह कर भी इस कार्य में हिस्सेदार नहीं बन पाती। फलस्वरूप बारिश का अधिकांश जल बहकर समुद्र में चला जाता है। आज आवश्यकता है कि जल संरक्षण हेतु जन आंदोलन का रूप देने के लिए न केवल सरकार सक्रिय हो बल्कि राज्य सरकारों के साथ उनकी विभिन्न एजेंसियों को भी सक्रिय करें, जिससे न केवल बारिश के जल को तो संरक्षित किया ही जा सके अपितु पानी की बर्बादी को भी रोका जा सके,क्योंकि एक और जहां जल संकट गंभीर रूप लेता जा रहा है वहीं दूसरी ओर अनेक कार्यों में जल का दुरुपयोग भी किया जा रहा है। गाड़ियों की साफ सफाई ,विभिन्न प्रकार की फैक्ट्रियों में भूगर्भ के जल का अंधाधुंध दोहन, गन्ना तथा धान जैसी फसलों के लिए भूगर्भ के जल का अत्यधिक प्रयोग, स्वच्छता अभियान के अंतर्गत बने शौचालयों की व्यवस्था हेतु जल का प्रयोग अनेक ऐसे कार्य हैं, जिनमें आवश्यकता से अधिक पानी बहाया जा रहा है। साथ ही जल स्रोतों की भी उचित देखभाल नहीं की जा रही है, उन्हें प्रदूषित होने से नहीं बचाया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि इसराइल में वर्ष भर में औसतन10 सेंटीमीटर वर्षा होती है ,जिसके बलबूते पर वह पर्याप्त फसल उत्पन्न कर अपनी खाद्यान्न संबंधी आवश्यकताओं के साथ-साथ अन्य समस्त आवश्यकताओं हेतु जल कीआपूर्ति कर लेता है, किंतु हमारे देश में वर्षा के जल की उचित संरक्षण व्यवस्था न होने के कारण 50 सेंटीमीटर औसत वार्षिक वर्षा होने के बाद भी देश के अनेक राज्यों को अनेक माह पीने के पानी तक की समस्या का सामना करना पड़ता है। वर्षा जल का संरक्षण देश की पारंपरिक योजनाओं से संभव है जिनका आधुनिक संसाधनों के साथ उपयोग कर वर्षा जल को संरक्षित किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के जखनी नामक ग्राम में खेतों की मेड बंदी कर उन में वृक्षारोपण करते हुए जहां एक और वर्षा के जल को खेतों में रोकने में सफलता प्राप्त की गई वहीं दूसरी ओर भूगर्भ जल स्तर को बढ़ाकर जलवायु एवं वातावरण में आशातीत परिवर्तन कर दिया गया है। बुंदेलखंड का बांदा जिला जहां गर्मी के दिनों में आग उगलता है तथा आसपास का समस्त क्षेत्र पानी के लिए संघर्ष करता रहता है वही जखनी तथा आस-पास के गांवों के निवासियों द्वारा पारंपरिक प्रक्रिया अपनाए जाने से भूगर्भ के जल में अत्यधिक वृद्धि हुई है, जिससे वहां के नल तथा नलकूपों एवं कुओं तालाबों आदि में वर्ष पर्यंत निरंतर जल बना रहता है। पहले जहां गर्मी में प्रायः सभी जल स्रोत सूख जाते थे,और अब वर्ष पर्यंत समस्त जल स्रोतों में हर समय पानी बना रहता है तथा कुओं से अधिकतम 5 मीटर रस्सी के सहयोग से पानी निकाल लिया जाता है तथा पानी की अत्यधिक उपलब्धता के कारण वातावरण के चीन नम एवं शीतल बने रहने के कारण किसान वर्ष में तीन फसल ले रहे हैं जबकि पूर्व में एक फसल पैदा कर पाना भी मुश्किल हो जाता था। वर्षा के जल को मेड़बंदी एवं वृक्षारोपण कर तथा कुओं तालाबों बावड़ियों एवं पानी के बहाव के रास्ते में छोटे-छोटे चेक पोस्टों का निर्माण कर बहकर व्यर्थ चले जाने वाले पानी को स्थान स्थान पर रोककर उसका वर्ष पर्यंत उपयोग किया जा सकता है, तथा गर्म हो रहे वातावरण को नम एवं शीतल बनाए रखा जा सकता है। वर्षा तो हर वर्ष होती है किंतु हम वर्षा के जल को संरक्षित करने में चूक जाते हैं। आवश्यकता है जलवायु परिवर्तन पर रोक लगा कर प्रकृति के स्वरूप को सहज एवं सरल बनाने की, किंतु यदि हम वर्षा जल को संरक्षित न कर सके तो जलवायु में हो रहा निरंतर परिवर्तन तथा तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि मानव जीवन ही नहीं प्राणी मात्र के जीवन के समक्ष प्रश्न चिन्ह के रूप में उपस्थित होगा जिसका समाधान ढूंढना असंभव होगा।