जल-संरक्षण तो विश्व-धर्म होना चाहिए

Submitted by Hindi on Mon, 01/04/2016 - 13:43
Source
जल चेतना तकनीकी पत्रिका, जुलाई 2012

जल वस्तुतः जीवन है, जल सृष्टि का मूल है और विश्व के सभी धर्मों के अनुरूप जल ही वस्तुतः ब्रह्म भी है। विज्ञान के अनुसार जल मूलतः प्राणदायी ‘ऑक्सीजन’ और ‘हाइड्रोजन’ का एक और दो के अनुपात में सम्मिलित रूप है, लेकिन सामान्य प्राणी के लिये तो जल सचमुच ही जीवन है, जीवन का आधार है।

जल संरक्षणभारतीय दर्शन और शास्त्रों के अनुसार जब ‘प्रलय’ होता है, तब 'जल प्लावन' की स्थिति बनती है और सृष्टि 'प्रलय' करता है और पुनः जब सृष्टि का उदय होता है, तो हमारी 'अवतार-परम्परा' के अनुसार प्रथम अवतार के रूप में 'मत्स्यावतार' होता है। मत्स्य अर्थात मछली के रूप में 'ब्रह्म' अवतार लेकर सृष्टि का शुभारंभ करते हैं। विज्ञान के अनुसार यही 'विकासवाद का सिद्धान्त' है, जिससे सिद्ध होता है कि 'जल' ही इस सृष्टि का मूल आधार है।

हमारे पूर्वजों ने 'जल' को धर्म के रूप में जोड़कर उसे मानव-जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं में सम्मिलित कर दिया, जिससे जल का महत्व मानव कभी भी भूल न सके। यह निश्चय ही, हमारे दूरदर्शी पूर्वजों की युगान्तरकारी सोच का परिचायक है।

आज 21 वीं शताब्दी की दहलीज पर खड़ा विश्व-मानव प्रकृति की इस अनमोल देन 'जल' की निरन्तर होती जा रही कमी को देखकर चिन्तित और भयभीत हैं। निरन्तर बढ़ती हुई विश्व की जनसंख्या की बढ़ती आवश्यकताओं की परिपूर्ति के लिये विश्व भर में जल की माँग भी निरन्तर बढ़ती गई है, जिसके परिणामस्वरूप बेहद मूल्यवान भूमिगत जल का दोहन आदमी करता जा रहा है।

वैज्ञानिक समुदाय आदमी को चेतावनी दे रहा है कि इस अंधाधुंध दोहन के कारण, आने वाले समय में धरती पर जल की बेहद कमी हो जाएगी और जीवन संकट में पड़ जाएगा। विश्व भर के राजनेता भी कह रहे हैं कि 'यदि अगला विश्व-युद्ध होगा, तो निश्चय ही वह जल के लिये ही होगा।' तात्पर्य यह है कि आज हर तरफ जल-संरक्षण की अनिवार्यता बताई जा रही है।

जीवन के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जल की उपलब्धता पर हम यदि वैज्ञानिकों द्वारा दी गई जानकारियों पर गौर करें तो आसानी से 'जल-संरक्षण' का महत्त्व हम जान सकते हैं। पृथ्वी पर उपलब्ध 2/3 भाग जल में 97 प्रतिशत समुद्र का खारा जल है, जो पीने के योग्य नहीं होता। पृथ्वी पर जो 3 प्रतिशत पानी हमारे पीने के योग्य है, उसमें से 75 प्रतिशत हिमखण्डों के रूप में, 14 प्रतिशत भूमिगत जल 2,500 फुट से 12,500 फुट की गहराई पर है, जिसका दोहन सम्भव ही नहीं। कुल उपलब्ध जल का 11 प्रतिशत भूजल 2,500 फुट तक की गहराई में है। जल वैज्ञानिकों के अनुसार भूमि की सतह पर हमें मात्र 0.97 प्रतिशत जल ही घरेलू उपयोग, सिंचाई और उद्योगों आदि के लिये उपलब्ध है। वर्षा भारत में अनिश्चित और असमान होती है, जिसमें आधे से अधिक पानी वाष्पीकारण के कारण तथा नदियों के द्वारा बहकर समुद्र में चला जाता है।

यह स्थिति स्पष्ट करती है कि पृथ्वी पर जल की उपलब्धता निरन्तर बनी नहीं रह सकती, बल्कि दिनों-दिन घटती ही जाएगी। वर्ष 1951 में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता भारत में जहाँ 5,177 घनमीटर थी, वहीं बढ़ती जनसंख्या के कारण वर्ष 2001 में घटकर केवल 1,869 घनमीटर ही रह गई है।

जल वैज्ञानिकों का अनुमान है कि जनसंख्या वृद्धि एवं विकास की गति के चलते जल उपलब्धता सन 2025 में प्रतिव्यक्ति 1341 घनमीटर और सन 2050 में और घटकर मात्र 1140 घनमीटर रह जाएगी।

यही कारण है कि आज पूरे विश्व में जल वैज्ञानिकों की सबसे बड़ी चिन्ता 'जल-संरक्षण' की ही है। जल-संरक्षण केवल सरकारी घोषणाओं अथवा योजनाओं का ढोल पीटने से नहीं होगा, बल्कि पूरे विश्व में जोर-शोर से जन-जागरण-अभियान चला कर हमें प्रत्येक मनुष्य को 'जल-संरक्षण-अभियान' से जोड़ना होगा तथा निम्न 'जल-स्तुति' की पंक्तियाँ घर-घर पहुँचानी होंगी-

'जल को नहीं व्यर्थ करे कोई,
जल का संरक्षण धर्म बने।
जल की महिमा समझना ही,
मानव का सुन्दर कर्म बने।।'


जल-संरक्षण: अनिवार्य कर्तव्य


.आज जब विश्व इक्कीसवीं शताब्दी की दहलीज पर खड़ा है, तब यह सोचना बेहद जरूरी है कि हम पूरे विश्व की 'प्यास' कैसे बुझा पाएँगे। हम आज जिस प्रकार विश्व स्तर पर 'एड्स' नाम की बीमारी के लिये अरबों डालर खर्च करके विश्व को जगाने में लगे हैं, क्या उसी तरह यह भी जरूरी नहीं है कि पूरे विश्व में 'जल-संरक्षण की अनिवार्यता' को मुद्दा बना कर, जबरदस्त अभियान चलाया जाए। हमें विश्व स्तर पर और विशेष रूप से भारत में, प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा में 'जल-संरक्षण' को अनिवार्य विषय के रूप में आगामी पीढ़ी को पढ़ाना होगा, तभी विकास का हमारा सपना साकार हो सकेगा।

जल-संरक्षण के साथ-साथ हमें 'जल के अपव्यय एवं दुरुपयोग' के विषय में भी जबरदस्त अभियान छेड़कर शहरों और गाँवों में घर-घर यह चेतना जगानी होगी कि 'जल की बर्बादी' वास्तव में हमारे पूरे समाज के विकास की बर्बादी है। इसलिये हर कदम पर, हर मनुष्य को जागरूक रहकर जल की एक-एक बूँद बचानी ही है।

उत्तराखण्ड जल संस्थान ने इस दिशा में सराहनीय प्रयास किए हैं। जल की बर्बादी के प्रति जागरूक करने की दिशा में संस्थान ने एक पत्रक द्वारा बताया है कि यदि किसी नल से प्रति सेकेंड केवल 'एक बूँद' जल टपकता रहे, तो एक दिन में 3.4 लीटर और एक महीने में 715.93 लीटर जल 'बर्बाद' हो जाएगा। निःसन्देह शहरों, गाँवों, कस्बों के घर-घर में अगर 'टपकते हुए नलों' की ही देखभाल हम करना सीख लें, तो लाखों घन लीटर पानी बचाया जा सकता है।

कैसे करें जल-संरक्षण ?


जल हमें प्रकृति ने स्वाभाविक उपहार के रूप में दिया है, जो हमारे जीवन तथा विकास के लिये बेहद जरूरी है। प्रकृति ने 'वर्षाजल' के रूप में हमारे द्वारा खर्च किए गए जल की प्रति-पूर्ति का स्वाभाविक प्रबन्ध कर रखा है। खारे समुद्र से भाप बनकर उड़ने वाला जल वर्षा के रूप में 'शुद्ध' होकर हमें मिलता है। जल विज्ञानियों ने वर्षाजल के संचयन की विधि बताई है, जिससे नगरों, गाँवों और विशेष रूप से पर्वतीय क्षेत्रों में जल का संरक्षण करके हम देश और समाज का बहुत बड़ा हित कर सकते हैं।

वर्षाजल के दोहन की दिशा में उत्तराखण्ड संस्थान प्रयत्नशील है। जल विज्ञानियों का मानना है कि अगर उत्तराखण्ड में होने वाली वर्षा के केवल 50 प्रतिशत हिस्से को ही हम संरक्षित रूप से संचित कर सकें, तो केवल 525 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से संचित किए वर्षाजल से प्रतिदिन 100 लीटर जल की आपूर्ति की जा सकती है।

निश्चय ही वर्षा प्रकृति द्वारा मानव को दिया जल का 'प्रथम' स्रोत है, जिससे नदियाँ, तालाब आदि जल ग्रहण करते हैं, वर्षा के बाद द्वितीयक स्रोत भूजल है, जिसकी पूर्ति भी वर्षाजल से होती है।

हमें जल विज्ञानियों के बताए अनुसार 'वर्षाजल संचयन' करके उसे मनुष्य और पशुओं के लिये उपयोग करने की दिशा में अब तेजी से कदम बढ़ाना जरूरी हो गया है। वर्षाजल संचयन में ही 'भूजल' की प्रतिपूर्ति अर्थात 'रिचार्ज' की प्रक्रिया भी जुड़ी हुई है। वर्षाजल को व्यर्थ गँवा कर हम प्रतिवर्ष राष्ट्र की अपूर्णीय क्षति करते हैं। इसलिये 'वर्षाजल संचयन' और 'भूमिगत जल' की पूर्ति यानि 'रिचार्ज' की आवश्यकता पर ही हमें अब पूरा ध्यान देना होगा।

'जल-संरक्षण' के कुछ बेहद सरल और कारगर उपाय


जल समाचारराष्ट्रीय विकास में जल की महत्ता को देखते हुए अब हमें 'जल-संरक्षण' को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकताओं में रखकर पूरे देश में कारगर जन-जागरण अभियान चलाने की आवश्यकता है। 'जल-संरक्षण' के कुछ परम्परागत उपाय तो बेहद सरल और कारगर रहे हैं जिन्हें हम, जाने क्यों, विकास और फैशन की अंधी दौड़ में भूल बैठे हैं।

कुछ उपाय


1. सबको जागरूक नागरिक की तरह 'जल-संरक्षण' का अभियान चलाते हुए बच्चों और महिलाओं में जागृति लानी होगी। स्नान करते समय 'बाल्टी' में जल लेकर 'शॉवर' या 'टब' में स्नान की तुलना में बहुत जल बचाया जा सकता है। पुरूष वर्ग दाढ़ी बनाते समय यदि टोंटी बन्द रखे तो बहुत जल बच सकता है। रसोई में जल की बाल्टी या टब में अगर बर्तन साफ करें, तो जल की बहुत बड़ी हानि रोकी जा सकती है।

2. टाॅयलेट में लगी फ्लश की टंकी में प्लास्टिक की बोतल में रेत भरकर रख देने से हर बार 'एक लीटर जल' बचाने का कारगर उपाय उत्तराखण्ड जल संस्थान ने बताया है। इस विधि का तेजी से प्रचार-प्रसार करके, पूरे देश में लागू करके, जल बचाया जा सकता है।

3. पहले गाँवों, कस्बों और नगरों की सीमा पर या कहीं नीची सतह पर तालाब अवश्य होते थे, जिनमें स्वाभाविक रूप में मानसून की वर्षा का जल एकत्रित हो जाता था। साथ ही, अनुपयोगी जल भी तालाब में जाता था, जिसे मछलियाँ और मेंढक आदि साफ करते रहते थे और तालाबों का जल पूरे गाँव के पीने, नहाने और पशुओं आदि के काम में आता था। दुर्भाग्य यह कि स्वार्थी मनुष्य ने तालाबों को पाट कर घर बना लिये और जल की आपूर्ति खुद ही बन्द कर बैठा है। जरूरी है कि गाँवों, कस्बों और नगरों में छोटे-बड़े तालाब बनाकर वर्षाजल का संरक्षण किया जाए।

4. नगरों और महानगरों में घरों की नालियों के पानी को गड्ढे बना कर एकत्र किया जाए और उसे पेड़-पौधों की सिंचाई के काम में लिया जाए, तो साफ पेयजल की बचत अवश्य होगी।

5. अगर प्रत्येक घर की छत पर 'वर्षाजल' का भण्डार करने के लिये एक या दो टंकी बनाई जाए और इन्हें मजबूत जाली या फिल्टर कपड़े से ढक दिया जाए तो हर घर में 'जल-संरक्षण' किया जा सकेगा।

6. घरों, मुहल्लों और सार्वजनिक पार्कों, स्कूलों अस्पतालों, दुकानों, मन्दिरों आदि में लगी नल की टोंटियाँ खुली या टूटी रहती हैं, तो अनजाने ही प्रतिदिन हजारों लीटर जल बेकार हो जाता है। इस बर्बादी को रोकने के लिये नगरपालिका एक्ट में टोंटियों की चोरी को दण्डात्मक अपराध बनाकर, जागरूकता भी बढ़ानी होगी।

7. विज्ञान की मदद से आज समुद्र के खारे जल को पीने योग्य बनाया जा रहा है, गुजरात के द्वारिका आदि नगरों में प्रत्येक घर में 'पेयजल' के साथ-साथ घरेलू कार्यों के लिये 'खारेजल' का प्रयोग करके शुद्ध जल का संरक्षण किया जा रहा है, इसे बढ़ाया जाए।

8. गंगा और यमुना जैसी सदानीरा बड़ी नदियों की नियमित सफाई बेहद जरूरी है। नगरों और महानगरों का गन्दा पानी ऐसी नदियों में जाकर प्रदूषण बढ़ाता है, जिससे मछलियाँ आदि मर जाती हैं और यह प्रदूषण लगातार बढ़ता ही चला जाता है। बड़ी नदियों के जल का शोधन करके पेयजल के रूप में प्रयोग किया जा सके, इसके लिये शासन-प्रशासन को लगातार सक्रिय रहना होगा।

9. जंगलों का कटान होने से दोहरा नुकसान हो रहा है। पहला यह कि वाष्पीकरण न होने से वर्षा नहीं हो पाती और दूसरे भूमिगत जल सूखता जा रहा है। बढ़ती जनसंख्या और औद्योगीकरण के कारण जंगल और वृक्षों के अंधाधुंध कटान से भूमि की नमी लगातार कम होती जा रही है, इसलिये वृक्षारोपण लगातार किया जाना जरूरी है।

10. पानी का 'दुरुपयोग' हर स्तर पर कानून के द्वारा, प्रचार माध्यमों से कारगर प्रचार करके और विद्यालयों में ‘पर्यावरण’ की ही तरह 'जल-संरक्षण' विषय को अनिवार्य रूप से पढ़ा कर रोका जाना बेहद जरूरी है। अब समय आ गया है कि केन्द्र और राज्यों की सरकारें 'जल-संरक्षण' को अनिवार्य विषय बना कर प्राथमिक से लेकर उच्च स्तर तक नई पीढ़ी को पढ़ाने का कानून बनाएँ।

निश्चय ही 'जल-संरक्षण' आज के विश्व-समाज की सर्वोपरि चिन्ता होनी चाहिए, चूँकि उदार प्रकृति हमें निरन्तर वायु, जल, प्रकाश आदि का उपहार देकर उपकृत करती रही है, लेकिन स्वार्थी आदमी सब कुछ भूल कर प्रकृति के नैसर्गिक सन्तुलन को ही बिगाड़ने पर तुला हुआ है।

'जल-संरक्षण कीजिए, जल जीवन का सार।
जल न रहे यदि जगत में, जीवन है बेकार।।'


डाॅ. योगेन्द्र नाथ शर्मा 'अरूण'
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