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आज जीवनदायिनी प्रकृति और उसके द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग और भौतिक सुख-संसाधनों की चाहत की अंधी दौड़ के चलते न केवल प्रदूषण बढ़ा है बल्कि अन्धाधुन्ध प्रदूषण के कारण जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है मानवीय स्वार्थ जो प्रदूषण का जनक है।
महात्मा गाँधी ने इस बारे में करीब एक शताब्दी पहले कहा था- ‘‘धरती सभी मनुष्यों एवं प्राणियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है, परन्तु किसी की तृष्णा को शान्त नहीं कर सकती।’’ गाँधी जी का कथन बिल्कुल सही है और यह भी कि मनुष्य की तृष्णा, विषय वासनाएँ आग में घी के समान निरन्तर बढ़ती रहती हैं।
उपभोक्तावाद के नशे में एक-एक तृष्णा पूर्ति पर नई-नई तृष्णाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। हमारे ऋषियों ने इस अनुभव से भोग की मर्यादा बाँध त्याग को महत्व दिया। इससे जहाँ गलाकाट प्रतिद्वन्दिता एवं हिंसा रुक जाती है, वहीं प्रकृति और पर्यावरण का भी संरक्षण होता है। मौजूदा हालात में अब यह साबित हो गया है कि जलवायु परिवर्तन और धरती के बढ़ते तापमान के लिये कोई और प्राकृतिक कारण नहीं बल्कि मानवीय गतिविधियाँ ही जिम्मेवार हैं।
यह सब जानते-समझते हुए भी मानवीय लोभ के चलते धरती के संसाधनों का क्षय और क्षरण अनवरत जारी है। उस पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा है। आईपीसीसी के अनुसार पिछले 250 साल के दौरान हुई इंसानी कारगुजारियाँ इस बर्बादी के लिये 90 फीसदी जिम्मेवार रही हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट ने वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर इसका खुलासा करते हुए कहा है कि अब खतरा बहुत बढ़ चुका है। इसको कम करने के लिये ठोस कदम उठाए जाने की बेहद जरूरत है। अन्यथा जीवन मुश्किल हो जाएगा।
आईपीसीसी के अनुसार पिछली सदी के दौरान धरती का औसत तापमान 1.4 फारेनहाइट बढ़ चुका है। अगले सौ साल के दौरान इसके बढ़कर 2 से 11.5 फारेनहाइट होने का अनुमान है। सदी के अन्त तक धरती के तापमान में 0.3 डिग्री से 4.8 डिग्री तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है। इसकी अधिकतम सीमा उम्मीद से कहीं बहुत ज्यादा है। इस तरह धीरे-धीरे पृथ्वी गर्म हो रही है।
धरती के तापमान में हो रही यह बढ़ोतरी जलवायु और मौसम प्रणाली में व्यापक पैमाने पर विनाशकारी बदलाव ला सकती है। मौसम और जलवायु में बदलाव के संकेत मिलने लगे हैं जो विनाश के प्रमाण हैं। इससे समुद्र का जलस्तर 10 से 32 इंच तक बढ़ सकता है। दुनिया में सूखे और बाढ़ की घटनाओं की पुनरावृत्ति तेज होगी। ग्लेशियरों से बर्फ के पिघलने की रफ्तार में बढ़ोत्तरी हुई है।
नतीजतन 21वीं सदी में ग्लेशियरों का आकार और छोटा होता जाएगा। अब हालात पहले से और बदतर होते जा रहे हैं। पिछले 60 सालों के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उर्त्सजन के कारण तापमान में 0.5 से 1.3 डिग्री की बढ़ोत्तरी हुई है। इस दौरान तीन दशक सबसे ज्यादा गर्म रहे और पिछले 1400 साल में उत्तरी गोलार्द्ध सबसे ज्यादा गर्म रहा है।
दो दशकों के दौरान अंटार्कटिक और उत्तरी गोलार्द्ध के ग्लेशियरों में सबसे ज्यादा बर्फ पिघली है। समुद्र के जलस्तर में 0.19 मीटर की औसत बढ़ोत्तरी हो रही है जो अब तक की सबसे अधिक बढ़ोत्तरी है। 08 लाख साल में हवा में कार्बन डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की मात्रा में भी सर्वाधिक बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है जिसकी अहम वजह खनिज तेल का इस्तेमाल और ज़मीन का दूसरे कामों में इस्तेमाल होना है।
कैलीफ़ोर्निया, ब्रिस्टल और यूट्रेक्ट यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपनी शोध रिपोर्ट में इस बात को साबित किया है कि अंटार्कटिका में हिमखण्ड का वो हिस्सा तेजी से पिघल रहा है जो पानी के अन्दर है। कुछ इलाकों में तो 90 फीसदी तक जलमग्न बर्फ पिघल रही है। उपग्रह और जलवायु मॉडलों के आँकड़ों के जरिए शोधकर्ताओं ने यह साबित किया है कि पूरे अंटार्कटिक और खासकर इसके कुछ हिस्सों पर हिमखण्डों के पिघलने का बर्फ के बनने जितना ही प्रभाव पड़ रहा है।
हिमशैलों के बनने और पिघलने से हर साल 2.800 घन किलोमीटर बर्फ अंटार्कटिक की बर्फीली चादर से दूर जा रही है। इसमें से ज्यादातर हिमपात के कारण प्रतिस्थापित हो रही हैं। इसकी प्रबल सम्भावना है कि किसी भी तरह के असन्तुलन से वैश्विक स्तर पर समुद्री सतह पर बदलाव जरूर होगा।
पिछली सदी के दौरान धरती का औसत तापमान 1.4 फारेनहाइट बढ़ चुका है। अगले सौ साल के दौरान इसके बढ़कर 2 से 11.5 फारेनहाइट होने का अनुमान है। सदी के अन्त तक धरती के तापमान में 0.3 डिग्री से 4.8 डिग्री तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है। इसकी अधिकतम सीमा उम्मीद से कहीं बहुत ज्यादा है। इस तरह धीरे-धीरे पृथ्वी गर्म हो रही है। धरती के तापमान में हो रही यह बढ़ोतरी जलवायु और मौसम प्रणाली में व्यापक पैमाने पर विनाशकारी बदलाव ला सकती है। मौसम और जलवायु में बदलाव के संकेत मिलने लगे हैं जो विनाश के प्रमाण हैं।यह ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है कि आर्कटिक सागर बढ़ रहा है। यही नहीं तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। नतीजन पिछले सालों में यूरोप, भारत व चीन सहित एशिया में रिकार्ड सर्दी पड़ी है और बर्फबारी हुई है। साथ ही उत्तरी ध्रुव से चलने वाली ठंडी हवाओं की तीव्रता भी काफी बढ़ी है। दरअसल आर्कटिक सागर के ऊपर गर्म हवाओं की वजह से वाष्पीकरण तेज हो गया है और वायुमण्डल में नमी बढ़ गई है।
इसका प्रभाव धरती के अलग-अलग हिस्सों में तेज बारिश और चक्रवाती तूफान के रूप में देखने को मिल रहा है। इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। फिलीपींस में आए हेयान जैसे महा तूफान इसी का नतीजा हैं। यूनीवर्सिटी ऑफ मेलबर्न में अर्थसाइंस के प्रोफेसर केविन वॉल्श की मानें तो तापमान में बदलाव का ही नतीजा है कि दुनिया में चक्रवाती तूफानों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है।
यूनीवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन और ब्रिटिश ओशनग्राफी सेन्टर के वैज्ञानिकों ने कहा है कि आर्कटिक क्षेत्र में लगातार बढ़ती गर्मी के कारण वहाँ की वनस्पति में भी ज़मीन-आसमान का अन्तर आ गया है। वहाँ हमेशा से पनपने वाली छोटी झाड़ियों का कद पिछले कुछ दशकों से पेड़ के आकार का हो गया है। टुंड्रा के फिनलैंड और पश्चिमी साइबेरिया के बीच करीब दस से पन्द्रह फीसदी भूमि पर 6.6 फीट से भी ऊँची पेड़ के आकार की नई झाड़ियाँ उग आई हैं। टुंड्रा के इस इलाके में तापमान में बदलाव की यह तो बानगी भर है। बाकी इलाकों का अनुमान लगाना मुश्किल है।
ग्लोबल वार्मिंग प्रकृति को तो नुकसान पहुँचा ही रही है, वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी से मानव का कद भी छोटा हो सकता है। फ्लोरिडा और नेब्रास्का यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने नए शोध के आधार पर इसको साबित किया है। उत्तर भारत में गेहूँ उपजाने वाले प्रमुख इलाकों में किए गए स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर डेविड बी लोबेल और एडम सिब्ली व अन्तरराष्ट्रीय मक्का व गेहूँ उन्नयन केन्द्र के जे इवान ओर्टिज मोनेस्टेरियो के मुताबिक तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी गेहूँ की फसल को दस फीसदी तक प्रभावित करेगी। तात्पर्य यह कि बढ़ता तापमान आपकी रोटी भी निगल सकता है।
तापमान में बढ़ोत्तरी का दुष्परिणाम समुद्र के पानी के लगातार तेजाबी होते जाने के रूप में सामने आया है। विश्व में समुद्रों के भविष्य को लेकर हुए नए शोध के मुताबिक अगर समुद्रों का पानी लगातार एसिडिक या अम्लीय होता रहा तो पानी में रहने वाली तकरीब 30 फीसदी प्रजातियाँ सदी के अन्त तक लुप्त हो सकती हैं।
दरअसल ईंधन के जलने से वातावरण में जितनी भी कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होती है, उसका ज्यादातर हिस्सा समुद्र सोख लेते हैं। यही वजह है कि समुद्र का पानी एसिडिक होता जा रहा है। नतीजन कोरल या मूँगा की परतें इससे छिलती जा रही हैं और अन्य प्रजातियों को भी नुकसान हो रहा है। यदि वातावरण में ऐसे ही कार्बन डाइऑक्साइड का उर्त्सजन होता रहा तो हालात और बिगड़ जाएँगे, उन हालात में समुद्रों का क्या हाल होगा, इस ओर कोई नहीं सोच रहा।
वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि समुद्री पानी में जिस तेजी से परिवर्तन आ रहे हैं, वह इतिहास में अप्रत्याशित है। इस नुकसान की भरपाई में हजारों-लाखों साल लग जाएँगे। दरअसल जलवायु परिवर्तन में बदलाव एक बहुत बड़े खतरे का संकेत है। दुनिया का कोई भी देश इस संकट की भयावहता को समझ नहीं रहा है। ऐसे हालात में जलवायु परिवर्तन के खतरों से लड़ने की आशा ही व्यर्थ है।
महात्मा गाँधी ने इस बारे में करीब एक शताब्दी पहले कहा था- ‘‘धरती सभी मनुष्यों एवं प्राणियों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम है, परन्तु किसी की तृष्णा को शान्त नहीं कर सकती।’’ गाँधी जी का कथन बिल्कुल सही है और यह भी कि मनुष्य की तृष्णा, विषय वासनाएँ आग में घी के समान निरन्तर बढ़ती रहती हैं।
उपभोक्तावाद के नशे में एक-एक तृष्णा पूर्ति पर नई-नई तृष्णाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। हमारे ऋषियों ने इस अनुभव से भोग की मर्यादा बाँध त्याग को महत्व दिया। इससे जहाँ गलाकाट प्रतिद्वन्दिता एवं हिंसा रुक जाती है, वहीं प्रकृति और पर्यावरण का भी संरक्षण होता है। मौजूदा हालात में अब यह साबित हो गया है कि जलवायु परिवर्तन और धरती के बढ़ते तापमान के लिये कोई और प्राकृतिक कारण नहीं बल्कि मानवीय गतिविधियाँ ही जिम्मेवार हैं।
यह सब जानते-समझते हुए भी मानवीय लोभ के चलते धरती के संसाधनों का क्षय और क्षरण अनवरत जारी है। उस पर कोई अंकुश नहीं लग पा रहा है। आईपीसीसी के अनुसार पिछले 250 साल के दौरान हुई इंसानी कारगुजारियाँ इस बर्बादी के लिये 90 फीसदी जिम्मेवार रही हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट ने वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर इसका खुलासा करते हुए कहा है कि अब खतरा बहुत बढ़ चुका है। इसको कम करने के लिये ठोस कदम उठाए जाने की बेहद जरूरत है। अन्यथा जीवन मुश्किल हो जाएगा।
आईपीसीसी के अनुसार पिछली सदी के दौरान धरती का औसत तापमान 1.4 फारेनहाइट बढ़ चुका है। अगले सौ साल के दौरान इसके बढ़कर 2 से 11.5 फारेनहाइट होने का अनुमान है। सदी के अन्त तक धरती के तापमान में 0.3 डिग्री से 4.8 डिग्री तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है। इसकी अधिकतम सीमा उम्मीद से कहीं बहुत ज्यादा है। इस तरह धीरे-धीरे पृथ्वी गर्म हो रही है।
धरती के तापमान में हो रही यह बढ़ोतरी जलवायु और मौसम प्रणाली में व्यापक पैमाने पर विनाशकारी बदलाव ला सकती है। मौसम और जलवायु में बदलाव के संकेत मिलने लगे हैं जो विनाश के प्रमाण हैं। इससे समुद्र का जलस्तर 10 से 32 इंच तक बढ़ सकता है। दुनिया में सूखे और बाढ़ की घटनाओं की पुनरावृत्ति तेज होगी। ग्लेशियरों से बर्फ के पिघलने की रफ्तार में बढ़ोत्तरी हुई है।
नतीजतन 21वीं सदी में ग्लेशियरों का आकार और छोटा होता जाएगा। अब हालात पहले से और बदतर होते जा रहे हैं। पिछले 60 सालों के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उर्त्सजन के कारण तापमान में 0.5 से 1.3 डिग्री की बढ़ोत्तरी हुई है। इस दौरान तीन दशक सबसे ज्यादा गर्म रहे और पिछले 1400 साल में उत्तरी गोलार्द्ध सबसे ज्यादा गर्म रहा है।
दो दशकों के दौरान अंटार्कटिक और उत्तरी गोलार्द्ध के ग्लेशियरों में सबसे ज्यादा बर्फ पिघली है। समुद्र के जलस्तर में 0.19 मीटर की औसत बढ़ोत्तरी हो रही है जो अब तक की सबसे अधिक बढ़ोत्तरी है। 08 लाख साल में हवा में कार्बन डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड की मात्रा में भी सर्वाधिक बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है जिसकी अहम वजह खनिज तेल का इस्तेमाल और ज़मीन का दूसरे कामों में इस्तेमाल होना है।
कैलीफ़ोर्निया, ब्रिस्टल और यूट्रेक्ट यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपनी शोध रिपोर्ट में इस बात को साबित किया है कि अंटार्कटिका में हिमखण्ड का वो हिस्सा तेजी से पिघल रहा है जो पानी के अन्दर है। कुछ इलाकों में तो 90 फीसदी तक जलमग्न बर्फ पिघल रही है। उपग्रह और जलवायु मॉडलों के आँकड़ों के जरिए शोधकर्ताओं ने यह साबित किया है कि पूरे अंटार्कटिक और खासकर इसके कुछ हिस्सों पर हिमखण्डों के पिघलने का बर्फ के बनने जितना ही प्रभाव पड़ रहा है।
हिमशैलों के बनने और पिघलने से हर साल 2.800 घन किलोमीटर बर्फ अंटार्कटिक की बर्फीली चादर से दूर जा रही है। इसमें से ज्यादातर हिमपात के कारण प्रतिस्थापित हो रही हैं। इसकी प्रबल सम्भावना है कि किसी भी तरह के असन्तुलन से वैश्विक स्तर पर समुद्री सतह पर बदलाव जरूर होगा।
पिछली सदी के दौरान धरती का औसत तापमान 1.4 फारेनहाइट बढ़ चुका है। अगले सौ साल के दौरान इसके बढ़कर 2 से 11.5 फारेनहाइट होने का अनुमान है। सदी के अन्त तक धरती के तापमान में 0.3 डिग्री से 4.8 डिग्री तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है। इसकी अधिकतम सीमा उम्मीद से कहीं बहुत ज्यादा है। इस तरह धीरे-धीरे पृथ्वी गर्म हो रही है। धरती के तापमान में हो रही यह बढ़ोतरी जलवायु और मौसम प्रणाली में व्यापक पैमाने पर विनाशकारी बदलाव ला सकती है। मौसम और जलवायु में बदलाव के संकेत मिलने लगे हैं जो विनाश के प्रमाण हैं।यह ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है कि आर्कटिक सागर बढ़ रहा है। यही नहीं तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। नतीजन पिछले सालों में यूरोप, भारत व चीन सहित एशिया में रिकार्ड सर्दी पड़ी है और बर्फबारी हुई है। साथ ही उत्तरी ध्रुव से चलने वाली ठंडी हवाओं की तीव्रता भी काफी बढ़ी है। दरअसल आर्कटिक सागर के ऊपर गर्म हवाओं की वजह से वाष्पीकरण तेज हो गया है और वायुमण्डल में नमी बढ़ गई है।
इसका प्रभाव धरती के अलग-अलग हिस्सों में तेज बारिश और चक्रवाती तूफान के रूप में देखने को मिल रहा है। इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। फिलीपींस में आए हेयान जैसे महा तूफान इसी का नतीजा हैं। यूनीवर्सिटी ऑफ मेलबर्न में अर्थसाइंस के प्रोफेसर केविन वॉल्श की मानें तो तापमान में बदलाव का ही नतीजा है कि दुनिया में चक्रवाती तूफानों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है।
यूनीवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन और ब्रिटिश ओशनग्राफी सेन्टर के वैज्ञानिकों ने कहा है कि आर्कटिक क्षेत्र में लगातार बढ़ती गर्मी के कारण वहाँ की वनस्पति में भी ज़मीन-आसमान का अन्तर आ गया है। वहाँ हमेशा से पनपने वाली छोटी झाड़ियों का कद पिछले कुछ दशकों से पेड़ के आकार का हो गया है। टुंड्रा के फिनलैंड और पश्चिमी साइबेरिया के बीच करीब दस से पन्द्रह फीसदी भूमि पर 6.6 फीट से भी ऊँची पेड़ के आकार की नई झाड़ियाँ उग आई हैं। टुंड्रा के इस इलाके में तापमान में बदलाव की यह तो बानगी भर है। बाकी इलाकों का अनुमान लगाना मुश्किल है।
ग्लोबल वार्मिंग प्रकृति को तो नुकसान पहुँचा ही रही है, वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी से मानव का कद भी छोटा हो सकता है। फ्लोरिडा और नेब्रास्का यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने नए शोध के आधार पर इसको साबित किया है। उत्तर भारत में गेहूँ उपजाने वाले प्रमुख इलाकों में किए गए स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर डेविड बी लोबेल और एडम सिब्ली व अन्तरराष्ट्रीय मक्का व गेहूँ उन्नयन केन्द्र के जे इवान ओर्टिज मोनेस्टेरियो के मुताबिक तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी गेहूँ की फसल को दस फीसदी तक प्रभावित करेगी। तात्पर्य यह कि बढ़ता तापमान आपकी रोटी भी निगल सकता है।
तापमान में बढ़ोत्तरी का दुष्परिणाम समुद्र के पानी के लगातार तेजाबी होते जाने के रूप में सामने आया है। विश्व में समुद्रों के भविष्य को लेकर हुए नए शोध के मुताबिक अगर समुद्रों का पानी लगातार एसिडिक या अम्लीय होता रहा तो पानी में रहने वाली तकरीब 30 फीसदी प्रजातियाँ सदी के अन्त तक लुप्त हो सकती हैं।
दरअसल ईंधन के जलने से वातावरण में जितनी भी कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होती है, उसका ज्यादातर हिस्सा समुद्र सोख लेते हैं। यही वजह है कि समुद्र का पानी एसिडिक होता जा रहा है। नतीजन कोरल या मूँगा की परतें इससे छिलती जा रही हैं और अन्य प्रजातियों को भी नुकसान हो रहा है। यदि वातावरण में ऐसे ही कार्बन डाइऑक्साइड का उर्त्सजन होता रहा तो हालात और बिगड़ जाएँगे, उन हालात में समुद्रों का क्या हाल होगा, इस ओर कोई नहीं सोच रहा।
वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि समुद्री पानी में जिस तेजी से परिवर्तन आ रहे हैं, वह इतिहास में अप्रत्याशित है। इस नुकसान की भरपाई में हजारों-लाखों साल लग जाएँगे। दरअसल जलवायु परिवर्तन में बदलाव एक बहुत बड़े खतरे का संकेत है। दुनिया का कोई भी देश इस संकट की भयावहता को समझ नहीं रहा है। ऐसे हालात में जलवायु परिवर्तन के खतरों से लड़ने की आशा ही व्यर्थ है।