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योजना, अक्टूबर 2009
धरती संकट में है। इंसान ने अपने कर्म से अपने और अपनी भावी पीढ़ियों के भविष्य को खतरे में डाल लिया है। दुनियाभर में चिन्ता की लकीरें गहरी होती जा रही हैं। एक सवाल हम सब के समक्ष है कि क्या हम खुद और अपनी आने वाली पीढ़ियों को बिगड़ते पर्यावरण के असर से बचा सकते हैं? जवाब स्पष्ट है— अगर हम अब भी नहीं सम्भले तो शायद बहुत देर हो जाएगी। चुनौती हर रोज ज्यादा बड़ी होती जा रही है।
धरती का तापमान हर साल बढ़ रहा है। मनुष्य की गतिविधियों की वजह से धरती का तापमान वैसे तो सदियों से बढ़ता रहा है, लेकिन पिछले 100 साल में यह रफ़्तार काफी तेज हो गई है।
सन् 1905 से 2005 के बीच धरती का सालाना औसत तापमान 0.76 डिग्री सेल्सियस बढ़ा। 1995 से 2006 तक के 12 साल औसतन सबसे ज्यादा गर्म साल रहे (सन् 1850 में तापमान के रिकॉर्ड रखने की शुरुआत हुई। यह आँकड़ा इसी रिकॉर्ड पर आधारित है)।
आखिर धरती क्यों गरम हो रही है? इसकी वजह यह है कि धरती सूरज से जितनी ऊर्जा ग्रहण करती है, वह उससे कम अन्तरिक्ष में वापस भेज पा रही है। नतीजा है— असन्तुलन। यह असन्तुलन धरती के हर वर्गमीटर क्षेत्र में एक वॉट बिजली के बराबर है।अगर धरती का तापमान मौजूदा दर से ही बढ़ता रहा तो सन् 2030 तक इसमें 2 से 2.8 डिग्री और इस सदी के अन्त तक 6 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है। एक अनुमान के अनुसार सन् 2100 तक 1.5 से लेकर 3.5 डिग्री सेल्सियस तक धरती का तापमान बढ़ना तय माना जा रहा है। अमेरिका के मेसाचुसेस्ट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) के अनुसन्धानकर्ताओं के मुताबिक, कुछ वर्ष पहले तक माना जा रहा था कि सन् 2100 तक धरती के तापमान में करीब 4 डिग्री की बढ़ोत्तरी होगी, लेकिन अब यह 9 डिग्री सेल्सियस तक हो सकती है। इसकी वजह है ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में अपेक्षा से ज्यादा वृद्धि। साथ ही समुद्र की कार्बन डाइऑक्साइड सोखने की क्षमता जितनी मानी गई थी, यह क्षमता उससे कम साबित हो रही है।
जी-8 देशों और पाँच उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के इटली के शहर ला अकिला में हुए शिखर सम्मेलन में यह संकल्प लिया गया कि इस सदी के अन्त तक धरती का तापमान पूर्व औद्योगिक युग के स्तर की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने दिया जाएगा। लेकिन यह कैसे किया जाएगा, इस बारे में कोई ठोस कार्य योजना सामने नहीं आई। जो आई, वैज्ञानिक उसे अपर्याप्त मानते हैं। बहरहाल, अगले दिसम्बर में कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन पर होने वाले संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन पर सबकी निगाहें टिकी हैं। सवाल यही है कि क्या वहाँ कोई ऐसी कार्य योजना सामने आएगी, जिस पर भरोसा किया जा सके?
आखिर धरती क्यों गरम हो रही है? इसकी वजह यह है कि धरती सूरज से जितनी ऊर्जा ग्रहण करती है, वह उससे कम अन्तरिक्ष में वापस भेज पा रही है। नतीजा है— असन्तुलन। यह असन्तुलन धरती के हर वर्गमीटर क्षेत्र में एक वॉट बिजली के बराबर है। मतलब यह कि धरती एक ऐसे कमरे की तरह हो गई है, जिसमें ताप तो लगातार पैदा हो रहा है, लेकिन खिड़कियाँ, दरवाजें और छत से उस अनुपात में ऊर्जा निकल नहीं पा रही है। ऐसा इसलिए कि तमाम निकास द्वारों पर गैसों की परतें जम गईं हैं।
धरती का तापमान बढ़ने का असर जलवायु पर पड़ रहा है, जिससे कई तरह के खतरे सामने आ रहे हैं। इसका बेहद बुरा असर इंसान की सेहत पर पड़ रहा है, लेकिन इस पर विस्तार से नजर डालने से पहले एक बार इस पर निगाह डाल लेना उचित होगा कि जलवायु परिवर्तन का खतरा किन-किन रूपों में सामने आ सकता है।
जलवायु परिवर्तन से कई तरह की प्राकृतिक आपदाएँ आ सकती हैं। एक अनुमान के मुताबिक अगर धरती का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो तूफान और समुद्री चक्रवातों की औसत ताकत में 50 फीसदी का इजाफा होगा। यानी ये तूफान और चक्रवात ज्यादा विनाशकारी हो जाएँगे। हर साल आने वाले तूफानों की संख्या भी बढ़ेगी।
एक अनुमान के मुताबिक अगर धरती का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो तूफान और समुद्री चक्रवातों की औसत ताकत में 50 फीसदी का इजाफा होगा। यानी ये तूफान और चक्रवात ज्यादा विनाशकारी हो जाएँगे।वैज्ञानिकों का कहना है कि 21वीं सदी में ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती की तपन बढ़ने की वजह से समुद्र के जल-स्तर में बढ़ोत्तरी शायद सबसे ज्यादा घातक साबित हो सकती है। अभी अनुमान यह है कि हर साल समुद्र के जल-स्तर में औसतन 3.7 मिलीमीटर का इजाफा हो रहा है। जानकारों का कहना है कि अगर समुद्र का जल-स्तर 50 से.मी. बढ़ गया तो सवा नौ करोड़ लोग खतरे के दायरे में आ जाएँगे। अगर समुद्र का जल-स्तर एक मीटर बढ़ा, तो 12 करोड़ की आबादी के डूबने का खतरा होगा। उस हालत में बहुत से छोटे द्वीप डूब जाएँगे, जबकि कई देशों में समुद्री तट वाले इलाके पानी में समा जाएँगे।
धरती का तापमान बढ़ने का एक और दुष्परिणाम हिमनदों का पिघलना है। अंटार्कटिक में बर्फ की चादरों के पिघलने की गति तेज हो गई है। यह हिमालय में भी देखने को मिल रहा है। ग्लेशियर के पिघलने से भी समुद्र के जल स्तर में बढ़ोत्तरी होगी।
बढ़ते तापमान ने बारिश के मिजाज को भी बदल दिया है। ऐसा माना जा रहा है कि 3 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर दुनियाभर में ज्यादा तेज बारिश होने लगेगी, क्योंकि समुद्र के पानी का ज्यादा वाष्पीकरण होगा। लेकिन इसके साथ ही मिट्टी में मौजूद जल, ताजा पानी के स्रोतों और नदियों से कहीं ज्यादा वाष्पीकरण होगा। इससे गर्म इलाके शुष्क हो जाएँगे। वहाँ पीने और सिंचाई के पानी की समस्या और गम्भीर हो जाएगी।
भारत जैसे देश में, जहाँ खेती आज भी काफी हद तक मानूसन पर निर्भर है, ग्लोबल वार्मिंग का खाद्य सुरक्षा पर बहुत खराब असर पड़ सकता है। जानकारों का कहना है कि भारत में मानसून की वजह से होने वाली कुल बारिश पर तो शायद धरती के तापमान बढ़ने का ज्यादा असर नहीं होगा, लेकिन बारिश के मिजाज में बदलाव जरूर देखने को मिल सकता है। मसलन, बारिश का समय बदल सकता है, किसी इलाके में बरसात का मौसम कम अवधि का हो सकता है, तो कहीं बहुत ज्यादा बारिश हो सकती है। इससे सूखे और बाढ़ दोनों की स्थिति ज्यादा गम्भीर हो सकती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि धरती की तपन से पानी की समस्या और गहरी हो जाएगी। भारत में दुनिया की 16 फीसदी आबादी रहती है, लेकिन उसके पास ताजा जल के स्रोत महज 4 फीसदी हैं। आजादी के बाद से प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता घटकर एक तिहाई रह गई है और सन् 2050 तक हर व्यक्ति को अभी मिल रहे पानी का महज 60 फीसदी ही मिल पाएगा।
विश्व बैंक ने भारत के आन्ध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे सूखा प्रभावित इलाकों और ओडिशा जैसे बाढ़ प्रभावित इलाकों के अध्ययन के आधार पर एक रिपोर्ट निकाली है। इसके मुताबिक आन्ध्र प्रदेश में शुष्क जमीन पर फसलों की पैदावार में भारी गिरावट आएगी। महाराष्ट्र में गन्ने की पैदावार में 30 फीसदी तक गिरावट आ सकती है। यही हाल ओडिशा के बाढ़ प्रभावित इलाकों में होगा, जहाँ चावल की पैदावार में 12 फीसदी गिरावट आने का अन्देशा है।
ये सारी घटनाएँ इंसान के अस्तित्व को खतरे में डाल सकती हैं। बहरहाल, जलवायु परिवर्तन का असर जहाँ स्पष्ट दिखने लगा है, वह है इंसान का स्वास्थ्य। हम सभी जानते हैं कि तापमान में बदलाव, बारिश, नमी, तूफान आदि का इंसान की सेहत पर असर पड़ता है। यह भी सर्वविदित है कि इन स्थितियों से सबसे ज्यादा उन तबकों की सेहत प्रभावित होती है, जिन्हें पूरा पोषण नहीं मिलता।
धरती के गर्म होने का सीधा असर इंसान की सेहत पर पड़ रहा है। हवा में ऐसे कण और गैसें हैं, जो मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। मौसम की स्थितियों से वायु प्रदूषण का स्तर प्रभावित होता है। ताप, नमी और बारिश से इंसान का स्वास्थ्य प्रभावित होता है। इनकी वजह से मौसमी एलर्जी होती है। ऐसा माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से संक्रामक रोग तेजी से फैलेंगे। तापमान बढ़ने से रोगों को फैलाने वाले मच्छर जैसे जीव और दूसरे जीवाणुओं में बढ़ोत्तरी हो सकती है या उनका जीवन काल लम्बा हो सकता है। मलेरिया अपनी वापसी कर चुका है। डेंगू अब हर साल की बात बन गया है। इसी तरह कई दूसरी बीमारियों का प्रकोप बढ़ने की भी आशंका है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि गरीब देशों में हर साल करीब डेढ़ लाख मौतें जलवायु परिवर्तन के मानव स्वास्थ्य पर हो रहे असर की वजह से हो रही हैं। इन देशों में जलवायु परिवर्तन का असर मुख्य रूप से इन चार क्षेत्रों में हुआ है— फसल की बर्बादी, कुपोषण, डायरिया के ज्यादा मामले एवं बाढ़ की वजह से मलेरिया की बढ़ती घटनाएँ।दुनियाभर में वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन से लोगों की सेहत पर होने वाले असर पर अनुसन्धान कर रहे हैं। इस बारे में अब वे कुछ निश्चित नतीजों तक पहुँच चुके हैं। बहरहाल, उनका कहना है कि इस बारे में निश्चित समझ बनाने के लिए यह जरूरी है कि ‘जलवायु और स्वास्थ्य’ के बीच मौजूद सम्बन्ध को ‘मौसम और स्वास्थ्य’ के आपसी सम्बन्ध से अलग करके देखा जाए। मौसम समय के साथ बदलता रहता है, जिसका स्वास्थ्य पर कई तरह का असर होता है। मसलन, गर्म हवाओं या अति वर्षा की वजह से कुछ खास तरह की बीमारियों का फैलना आम बात है और इनका उपचार भी आम ढंग से हो जाता है। दूसरी तरफ जलवायु बदलने से स्वास्थ्य पर अलग ढंग से असर होता है। अध्ययनों में देखा गया है कि अल नाइनो में बदलाव की स्थितियों की वजह से मलेरिया, डेंगू और मच्छर से फैलने वाली अन्य बीमारियों का प्रकोप बढ़ता है। जलवायु परिवर्तन एक दीर्घकालीन परिघटना है और मौटे तौर पर इसके परिणामों से सारी दुनिया प्रभावित हो रही है। दरअसल, जलवायु परिवर्तन का असर वार्षिक और मासिक मौसम में बदलाव के रूप में देखने को मिलेगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन पर अन्तरराष्ट्रीय समिति (आईपीसीसी) के मुताबिक धरती की प्राकृतिक जलवायु में अवरोध के मानव स्वास्थ्य के लिए गम्भीर नतीजे होंगे। मनुष्य खाने, पानी और अपनी दूसरी भौतिक जरूरतों के लिए धरती पर निर्भर है और अगर पानी जैसी बेहद बुनियादी चीज किसी बात से प्रभावित होती है तो इससे सेहत निश्चित रूप से प्रभावित होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि गरीब देशों में हर साल करीब डेढ़ लाख मौतें जलवायु परिवर्तन के मानव स्वास्थ्य पर हो रहे असर की वजह से हो रही हैं। इन देशों में जलवायु परिवर्तन का असर मुख्य रूप से इन चार क्षेत्रों में हुआ है— फसल की बर्बादी, कुपोषण, डायरिया के ज्यादा मामले एवं बाढ़ की वजह से मलेरिया की बढ़ती घटनाएँ। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक इन वजहों से जो ज्यादा मौतें हुई हैं, उनके शिकार बने लोगों में 84 फीसदी बच्चे हैं।
यूरोप में 2003 में गर्म हवाओं की वजह से 70 हजार मौतें हुई थीं। मध्य अफ्रीका के देशों में नये प्रकार के मलेरिया से मौतें बढ़ रही हैं। इन सभी जगहों पर एक बात समान है यह कि मौत की मार सबसे ज्यादा गरीबों पर पड़ रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि फिलहाल जलवायु परिवर्तन की वजह से जिन इलाकों के लोगों को सबसे ज्यादा खतरा है, उनमें छोटे द्वीप, पहाड़ी क्षेत्र, पानी की कमी वाले इलाके, विकासशील देशों के बड़े शहर और तटीय इलाके शामिल हैं।
विश्व मंच पर अब वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता इस बात पर जोर दे रहे हैं कि अगर इंसान की सेहत बचानी है तो पर्यावरण की स्थितियों में सुधार जरूरी है। इसलिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती अब स्वास्थ्य नीति से भी जुड़ी एक माँग बन गई है। वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर ग्रीन हाउस गैसों में कटौती पर सभी देश राजी हो जाएँ तो बीमारियों के इलाज पर होने वाले खर्च में 24 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। दरअसल, गैसों के उत्सर्जन का ज्यादा सम्बन्ध ऊर्जा के उपभोग और परिवहन व्यवस्थाओं से है। अब ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की नीतियाँ बनेगी तो इसका लाभ दूसरे क्षेत्रों में भी मिलेगा। मसलन, इससे वायु प्रदूषण कम होगा, जिसकी वजह से हर साल दुनियाभर में आठ लाख मौतें होती हैं। इससे सड़क हादसे भी घटेंगे, जिनसे हर साल 12 लाख लोगों की जान जाती हैं। लोगों में शारीरिक सक्रियता बढ़ेगी, जिसकी कमी सालाना 19 लाख मौतों के लिए जिम्मेदार है। घरों के अन्दर का वायु प्रदूषण भी घटेगा, जिसे हर साल दुनियाभर में 15 लाख मौतों का कारण माना जाता है।
आबादी की अच्छी सेहत काफी हद तक धरती की जीवनदायी व्यवस्था की स्थिरता और ठीक से काम करने पर निर्भर है। धरती की प्राकृतिक व्यवस्थाएँ जटिल हैं, लेकिन अगर हमें स्वस्थ रहना है तो हमें अब इन्हें समझना ही होगा और इन्हें बचाना भी होगा।इसीलिए अब जानकार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि कोपेनहेगन में जब दुनियाभर की सरकारों के नुमाइन्दे इकट्ठा होंगे, तो उन्हें जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य से जुड़े प्रभावों को भी अपनी बहस के केन्द्र में लाना चाहिए। क्योटो प्रोटोकॉल की जगह लेने के लिए वहाँ जो प्रोटोकॉल तैयार किया जाएगा, उसमें इस बात की खास चर्चा होनी चाहिए कि जलवायु परिवर्तन रोकने के नये उपायों से इंसान को क्या आर्थिक एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी फायदे होंगे। इस बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन पहले से ही इस बारे में दुनियाभर में एक अभियान चला रहा है, जिसके ये चार उद्देश्य रखे गए हैं— स्वास्थ्य पर प्रभाव सम्बन्धी दलीलों के प्रति दुनियाभर में जागरुकता लाना, सभी क्षेत्रों (मसलन परिवहन, आवास निर्माण, ऊर्जा और कृषि) में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा में कटौती के पक्ष में माहौल बनाना, जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य पर होने वाले असर को दिखाने के लिए वैज्ञानिक प्रमाण सामने लाना और प्रचारित करना तथा जलवायु परिवर्तन से स्वास्थ्य के लिए पैदा हो रहे खतरे से निपटने के लिए जरूरी स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को मजबूत करना।
वैज्ञानिकों के मुताबिक पर्यावरण सम्बन्धी जिन वजहों से मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा हो रहा है, उनमें मौसम में बदलाव, धरती के वातावरण में ओजोन परत का क्षरण, बायोडायवर्सिटी यानी जैव-विविधता का ह्रास, धरती की जल प्रणाली में परिवर्तन और ताजा जल की उपलब्धता में कमी, भूमि क्षरण और खाद्यान्न की पैदावार में आ रही कमी शामिल हैं।
ओजोन गैस की परत खतरनाक पराबैंगनी किरणों से धरती को बचाती है। यह परत दोनों ध्रुवों के आठ किलोमीटर ऊपर से लेकर भूमध्य रेखा के 15 किलोमीटर ऊपर तक धरती के रक्षा कवच के रूप में मौजूद है। इसी ऊँचाई पर ज्यादातर मौसम और जलवायु सम्बन्धी परिघटनाएँ होती हैं। ओजोन परत में छेद होने की आशंका भी मानवता की एक बड़ी चिन्ता रही है। यह खतरा क्लोरोफ्लोरो कार्बन (सीएफसी) की बढ़ती मात्रा से पैदा हुआ। सीएफसी औद्योगिक गैसें हैं। मुख्य रूप से ये रेफ्रिजरेटर और एयर कण्डीशनरों से निकलती हैं। ये गैसें सदियों तक वातावरण में बनी रहती हैं। पराबैंगनी किरणों की मौजूदगी में ये अति सक्रिय हो जाती हैं, जिससे ओजोन परत को नुकसान पहुँचता है। इसीलिए माना जाता है कि सीएफसी गैसों का एक कण कार्बन डाइऑक्साइड के एक कण से दस हजार गुना ज्यादा खतरनाक होता है।
1970-80 के दशक तक जलवायु परिवर्तन की समस्या को बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा था। औद्योगिक घराने और तेल लॉबी इसे पर्यावरणवादियों की मनोगत समस्या बताकर खारिज कर देते थे। लेकिन बढ़ते वैज्ञानिक सबूत और जाहिर होते खतरों ने आखिरकार सबको यह मानने को मजबूर कर दिया कि ग्लोबल वार्मिंग एक वास्तविक समस्या है और इसकी वजह से अपना यह ग्रह खतरे में है।
अब वैज्ञानिकों ने अपने शोध से यह भी साबित कर दिया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से इंसान की सेहत के लिए कई तरह के और बड़े पैमाने पर खतरे पैदा हो रहे हैं। जानकार बताते हैं कि इन खतरों को समझने के लिए एक नयी दृष्टि की जरूरत है जिसमें प्रकृति की व्यवस्था पर खास ध्यान दिया जाए। इस बुनियादी बात को आज समझने की जरूरत है कि हमारी आबादी की अच्छी सेहत काफी हद तक धरती की जीवनदायी व्यवस्था की स्थिरता और ठीक से काम करने पर निर्भर है। धरती की प्राकृतिक व्यवस्थाएँ जटिल हैं, लेकिन अगर हमें स्वस्थ रहना है तो हमें अब इन्हें समझना ही होगा और इन्हें बचाना भी होगा। धरती से मनमाना व्यवहार करते हुए हम अब स्वस्थ नहीं रह सकते, बल्कि हमारे लिए अपना अस्तित्व बचाना भी मुश्किल है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
ई-मेल : satyendra.ranjan@gmail.com
धरती का तापमान हर साल बढ़ रहा है। मनुष्य की गतिविधियों की वजह से धरती का तापमान वैसे तो सदियों से बढ़ता रहा है, लेकिन पिछले 100 साल में यह रफ़्तार काफी तेज हो गई है।
सन् 1905 से 2005 के बीच धरती का सालाना औसत तापमान 0.76 डिग्री सेल्सियस बढ़ा। 1995 से 2006 तक के 12 साल औसतन सबसे ज्यादा गर्म साल रहे (सन् 1850 में तापमान के रिकॉर्ड रखने की शुरुआत हुई। यह आँकड़ा इसी रिकॉर्ड पर आधारित है)।
आखिर धरती क्यों गरम हो रही है? इसकी वजह यह है कि धरती सूरज से जितनी ऊर्जा ग्रहण करती है, वह उससे कम अन्तरिक्ष में वापस भेज पा रही है। नतीजा है— असन्तुलन। यह असन्तुलन धरती के हर वर्गमीटर क्षेत्र में एक वॉट बिजली के बराबर है।अगर धरती का तापमान मौजूदा दर से ही बढ़ता रहा तो सन् 2030 तक इसमें 2 से 2.8 डिग्री और इस सदी के अन्त तक 6 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है। एक अनुमान के अनुसार सन् 2100 तक 1.5 से लेकर 3.5 डिग्री सेल्सियस तक धरती का तापमान बढ़ना तय माना जा रहा है। अमेरिका के मेसाचुसेस्ट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) के अनुसन्धानकर्ताओं के मुताबिक, कुछ वर्ष पहले तक माना जा रहा था कि सन् 2100 तक धरती के तापमान में करीब 4 डिग्री की बढ़ोत्तरी होगी, लेकिन अब यह 9 डिग्री सेल्सियस तक हो सकती है। इसकी वजह है ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में अपेक्षा से ज्यादा वृद्धि। साथ ही समुद्र की कार्बन डाइऑक्साइड सोखने की क्षमता जितनी मानी गई थी, यह क्षमता उससे कम साबित हो रही है।
जी-8 देशों और पाँच उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के इटली के शहर ला अकिला में हुए शिखर सम्मेलन में यह संकल्प लिया गया कि इस सदी के अन्त तक धरती का तापमान पूर्व औद्योगिक युग के स्तर की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने दिया जाएगा। लेकिन यह कैसे किया जाएगा, इस बारे में कोई ठोस कार्य योजना सामने नहीं आई। जो आई, वैज्ञानिक उसे अपर्याप्त मानते हैं। बहरहाल, अगले दिसम्बर में कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन पर होने वाले संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन पर सबकी निगाहें टिकी हैं। सवाल यही है कि क्या वहाँ कोई ऐसी कार्य योजना सामने आएगी, जिस पर भरोसा किया जा सके?
आखिर धरती क्यों गरम हो रही है? इसकी वजह यह है कि धरती सूरज से जितनी ऊर्जा ग्रहण करती है, वह उससे कम अन्तरिक्ष में वापस भेज पा रही है। नतीजा है— असन्तुलन। यह असन्तुलन धरती के हर वर्गमीटर क्षेत्र में एक वॉट बिजली के बराबर है। मतलब यह कि धरती एक ऐसे कमरे की तरह हो गई है, जिसमें ताप तो लगातार पैदा हो रहा है, लेकिन खिड़कियाँ, दरवाजें और छत से उस अनुपात में ऊर्जा निकल नहीं पा रही है। ऐसा इसलिए कि तमाम निकास द्वारों पर गैसों की परतें जम गईं हैं।
धरती का तापमान बढ़ने का असर जलवायु पर पड़ रहा है, जिससे कई तरह के खतरे सामने आ रहे हैं। इसका बेहद बुरा असर इंसान की सेहत पर पड़ रहा है, लेकिन इस पर विस्तार से नजर डालने से पहले एक बार इस पर निगाह डाल लेना उचित होगा कि जलवायु परिवर्तन का खतरा किन-किन रूपों में सामने आ सकता है।
जलवायु परिवर्तन से कई तरह की प्राकृतिक आपदाएँ आ सकती हैं। एक अनुमान के मुताबिक अगर धरती का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो तूफान और समुद्री चक्रवातों की औसत ताकत में 50 फीसदी का इजाफा होगा। यानी ये तूफान और चक्रवात ज्यादा विनाशकारी हो जाएँगे। हर साल आने वाले तूफानों की संख्या भी बढ़ेगी।
एक अनुमान के मुताबिक अगर धरती का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो तूफान और समुद्री चक्रवातों की औसत ताकत में 50 फीसदी का इजाफा होगा। यानी ये तूफान और चक्रवात ज्यादा विनाशकारी हो जाएँगे।वैज्ञानिकों का कहना है कि 21वीं सदी में ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती की तपन बढ़ने की वजह से समुद्र के जल-स्तर में बढ़ोत्तरी शायद सबसे ज्यादा घातक साबित हो सकती है। अभी अनुमान यह है कि हर साल समुद्र के जल-स्तर में औसतन 3.7 मिलीमीटर का इजाफा हो रहा है। जानकारों का कहना है कि अगर समुद्र का जल-स्तर 50 से.मी. बढ़ गया तो सवा नौ करोड़ लोग खतरे के दायरे में आ जाएँगे। अगर समुद्र का जल-स्तर एक मीटर बढ़ा, तो 12 करोड़ की आबादी के डूबने का खतरा होगा। उस हालत में बहुत से छोटे द्वीप डूब जाएँगे, जबकि कई देशों में समुद्री तट वाले इलाके पानी में समा जाएँगे।
धरती का तापमान बढ़ने का एक और दुष्परिणाम हिमनदों का पिघलना है। अंटार्कटिक में बर्फ की चादरों के पिघलने की गति तेज हो गई है। यह हिमालय में भी देखने को मिल रहा है। ग्लेशियर के पिघलने से भी समुद्र के जल स्तर में बढ़ोत्तरी होगी।
बढ़ते तापमान ने बारिश के मिजाज को भी बदल दिया है। ऐसा माना जा रहा है कि 3 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर दुनियाभर में ज्यादा तेज बारिश होने लगेगी, क्योंकि समुद्र के पानी का ज्यादा वाष्पीकरण होगा। लेकिन इसके साथ ही मिट्टी में मौजूद जल, ताजा पानी के स्रोतों और नदियों से कहीं ज्यादा वाष्पीकरण होगा। इससे गर्म इलाके शुष्क हो जाएँगे। वहाँ पीने और सिंचाई के पानी की समस्या और गम्भीर हो जाएगी।
भारत जैसे देश में, जहाँ खेती आज भी काफी हद तक मानूसन पर निर्भर है, ग्लोबल वार्मिंग का खाद्य सुरक्षा पर बहुत खराब असर पड़ सकता है। जानकारों का कहना है कि भारत में मानसून की वजह से होने वाली कुल बारिश पर तो शायद धरती के तापमान बढ़ने का ज्यादा असर नहीं होगा, लेकिन बारिश के मिजाज में बदलाव जरूर देखने को मिल सकता है। मसलन, बारिश का समय बदल सकता है, किसी इलाके में बरसात का मौसम कम अवधि का हो सकता है, तो कहीं बहुत ज्यादा बारिश हो सकती है। इससे सूखे और बाढ़ दोनों की स्थिति ज्यादा गम्भीर हो सकती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि धरती की तपन से पानी की समस्या और गहरी हो जाएगी। भारत में दुनिया की 16 फीसदी आबादी रहती है, लेकिन उसके पास ताजा जल के स्रोत महज 4 फीसदी हैं। आजादी के बाद से प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता घटकर एक तिहाई रह गई है और सन् 2050 तक हर व्यक्ति को अभी मिल रहे पानी का महज 60 फीसदी ही मिल पाएगा।
विश्व बैंक ने भारत के आन्ध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे सूखा प्रभावित इलाकों और ओडिशा जैसे बाढ़ प्रभावित इलाकों के अध्ययन के आधार पर एक रिपोर्ट निकाली है। इसके मुताबिक आन्ध्र प्रदेश में शुष्क जमीन पर फसलों की पैदावार में भारी गिरावट आएगी। महाराष्ट्र में गन्ने की पैदावार में 30 फीसदी तक गिरावट आ सकती है। यही हाल ओडिशा के बाढ़ प्रभावित इलाकों में होगा, जहाँ चावल की पैदावार में 12 फीसदी गिरावट आने का अन्देशा है।
ये सारी घटनाएँ इंसान के अस्तित्व को खतरे में डाल सकती हैं। बहरहाल, जलवायु परिवर्तन का असर जहाँ स्पष्ट दिखने लगा है, वह है इंसान का स्वास्थ्य। हम सभी जानते हैं कि तापमान में बदलाव, बारिश, नमी, तूफान आदि का इंसान की सेहत पर असर पड़ता है। यह भी सर्वविदित है कि इन स्थितियों से सबसे ज्यादा उन तबकों की सेहत प्रभावित होती है, जिन्हें पूरा पोषण नहीं मिलता।
धरती के गर्म होने का सीधा असर इंसान की सेहत पर पड़ रहा है। हवा में ऐसे कण और गैसें हैं, जो मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। मौसम की स्थितियों से वायु प्रदूषण का स्तर प्रभावित होता है। ताप, नमी और बारिश से इंसान का स्वास्थ्य प्रभावित होता है। इनकी वजह से मौसमी एलर्जी होती है। ऐसा माना जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से संक्रामक रोग तेजी से फैलेंगे। तापमान बढ़ने से रोगों को फैलाने वाले मच्छर जैसे जीव और दूसरे जीवाणुओं में बढ़ोत्तरी हो सकती है या उनका जीवन काल लम्बा हो सकता है। मलेरिया अपनी वापसी कर चुका है। डेंगू अब हर साल की बात बन गया है। इसी तरह कई दूसरी बीमारियों का प्रकोप बढ़ने की भी आशंका है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि गरीब देशों में हर साल करीब डेढ़ लाख मौतें जलवायु परिवर्तन के मानव स्वास्थ्य पर हो रहे असर की वजह से हो रही हैं। इन देशों में जलवायु परिवर्तन का असर मुख्य रूप से इन चार क्षेत्रों में हुआ है— फसल की बर्बादी, कुपोषण, डायरिया के ज्यादा मामले एवं बाढ़ की वजह से मलेरिया की बढ़ती घटनाएँ।दुनियाभर में वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन से लोगों की सेहत पर होने वाले असर पर अनुसन्धान कर रहे हैं। इस बारे में अब वे कुछ निश्चित नतीजों तक पहुँच चुके हैं। बहरहाल, उनका कहना है कि इस बारे में निश्चित समझ बनाने के लिए यह जरूरी है कि ‘जलवायु और स्वास्थ्य’ के बीच मौजूद सम्बन्ध को ‘मौसम और स्वास्थ्य’ के आपसी सम्बन्ध से अलग करके देखा जाए। मौसम समय के साथ बदलता रहता है, जिसका स्वास्थ्य पर कई तरह का असर होता है। मसलन, गर्म हवाओं या अति वर्षा की वजह से कुछ खास तरह की बीमारियों का फैलना आम बात है और इनका उपचार भी आम ढंग से हो जाता है। दूसरी तरफ जलवायु बदलने से स्वास्थ्य पर अलग ढंग से असर होता है। अध्ययनों में देखा गया है कि अल नाइनो में बदलाव की स्थितियों की वजह से मलेरिया, डेंगू और मच्छर से फैलने वाली अन्य बीमारियों का प्रकोप बढ़ता है। जलवायु परिवर्तन एक दीर्घकालीन परिघटना है और मौटे तौर पर इसके परिणामों से सारी दुनिया प्रभावित हो रही है। दरअसल, जलवायु परिवर्तन का असर वार्षिक और मासिक मौसम में बदलाव के रूप में देखने को मिलेगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन पर अन्तरराष्ट्रीय समिति (आईपीसीसी) के मुताबिक धरती की प्राकृतिक जलवायु में अवरोध के मानव स्वास्थ्य के लिए गम्भीर नतीजे होंगे। मनुष्य खाने, पानी और अपनी दूसरी भौतिक जरूरतों के लिए धरती पर निर्भर है और अगर पानी जैसी बेहद बुनियादी चीज किसी बात से प्रभावित होती है तो इससे सेहत निश्चित रूप से प्रभावित होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि गरीब देशों में हर साल करीब डेढ़ लाख मौतें जलवायु परिवर्तन के मानव स्वास्थ्य पर हो रहे असर की वजह से हो रही हैं। इन देशों में जलवायु परिवर्तन का असर मुख्य रूप से इन चार क्षेत्रों में हुआ है— फसल की बर्बादी, कुपोषण, डायरिया के ज्यादा मामले एवं बाढ़ की वजह से मलेरिया की बढ़ती घटनाएँ। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक इन वजहों से जो ज्यादा मौतें हुई हैं, उनके शिकार बने लोगों में 84 फीसदी बच्चे हैं।
यूरोप में 2003 में गर्म हवाओं की वजह से 70 हजार मौतें हुई थीं। मध्य अफ्रीका के देशों में नये प्रकार के मलेरिया से मौतें बढ़ रही हैं। इन सभी जगहों पर एक बात समान है यह कि मौत की मार सबसे ज्यादा गरीबों पर पड़ रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि फिलहाल जलवायु परिवर्तन की वजह से जिन इलाकों के लोगों को सबसे ज्यादा खतरा है, उनमें छोटे द्वीप, पहाड़ी क्षेत्र, पानी की कमी वाले इलाके, विकासशील देशों के बड़े शहर और तटीय इलाके शामिल हैं।
विश्व मंच पर अब वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता इस बात पर जोर दे रहे हैं कि अगर इंसान की सेहत बचानी है तो पर्यावरण की स्थितियों में सुधार जरूरी है। इसलिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती अब स्वास्थ्य नीति से भी जुड़ी एक माँग बन गई है। वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर ग्रीन हाउस गैसों में कटौती पर सभी देश राजी हो जाएँ तो बीमारियों के इलाज पर होने वाले खर्च में 24 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। दरअसल, गैसों के उत्सर्जन का ज्यादा सम्बन्ध ऊर्जा के उपभोग और परिवहन व्यवस्थाओं से है। अब ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती की नीतियाँ बनेगी तो इसका लाभ दूसरे क्षेत्रों में भी मिलेगा। मसलन, इससे वायु प्रदूषण कम होगा, जिसकी वजह से हर साल दुनियाभर में आठ लाख मौतें होती हैं। इससे सड़क हादसे भी घटेंगे, जिनसे हर साल 12 लाख लोगों की जान जाती हैं। लोगों में शारीरिक सक्रियता बढ़ेगी, जिसकी कमी सालाना 19 लाख मौतों के लिए जिम्मेदार है। घरों के अन्दर का वायु प्रदूषण भी घटेगा, जिसे हर साल दुनियाभर में 15 लाख मौतों का कारण माना जाता है।
आबादी की अच्छी सेहत काफी हद तक धरती की जीवनदायी व्यवस्था की स्थिरता और ठीक से काम करने पर निर्भर है। धरती की प्राकृतिक व्यवस्थाएँ जटिल हैं, लेकिन अगर हमें स्वस्थ रहना है तो हमें अब इन्हें समझना ही होगा और इन्हें बचाना भी होगा।इसीलिए अब जानकार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि कोपेनहेगन में जब दुनियाभर की सरकारों के नुमाइन्दे इकट्ठा होंगे, तो उन्हें जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य से जुड़े प्रभावों को भी अपनी बहस के केन्द्र में लाना चाहिए। क्योटो प्रोटोकॉल की जगह लेने के लिए वहाँ जो प्रोटोकॉल तैयार किया जाएगा, उसमें इस बात की खास चर्चा होनी चाहिए कि जलवायु परिवर्तन रोकने के नये उपायों से इंसान को क्या आर्थिक एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी फायदे होंगे। इस बीच विश्व स्वास्थ्य संगठन पहले से ही इस बारे में दुनियाभर में एक अभियान चला रहा है, जिसके ये चार उद्देश्य रखे गए हैं— स्वास्थ्य पर प्रभाव सम्बन्धी दलीलों के प्रति दुनियाभर में जागरुकता लाना, सभी क्षेत्रों (मसलन परिवहन, आवास निर्माण, ऊर्जा और कृषि) में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा में कटौती के पक्ष में माहौल बनाना, जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य पर होने वाले असर को दिखाने के लिए वैज्ञानिक प्रमाण सामने लाना और प्रचारित करना तथा जलवायु परिवर्तन से स्वास्थ्य के लिए पैदा हो रहे खतरे से निपटने के लिए जरूरी स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को मजबूत करना।
वैज्ञानिकों के मुताबिक पर्यावरण सम्बन्धी जिन वजहों से मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा हो रहा है, उनमें मौसम में बदलाव, धरती के वातावरण में ओजोन परत का क्षरण, बायोडायवर्सिटी यानी जैव-विविधता का ह्रास, धरती की जल प्रणाली में परिवर्तन और ताजा जल की उपलब्धता में कमी, भूमि क्षरण और खाद्यान्न की पैदावार में आ रही कमी शामिल हैं।
ओजोन गैस की परत खतरनाक पराबैंगनी किरणों से धरती को बचाती है। यह परत दोनों ध्रुवों के आठ किलोमीटर ऊपर से लेकर भूमध्य रेखा के 15 किलोमीटर ऊपर तक धरती के रक्षा कवच के रूप में मौजूद है। इसी ऊँचाई पर ज्यादातर मौसम और जलवायु सम्बन्धी परिघटनाएँ होती हैं। ओजोन परत में छेद होने की आशंका भी मानवता की एक बड़ी चिन्ता रही है। यह खतरा क्लोरोफ्लोरो कार्बन (सीएफसी) की बढ़ती मात्रा से पैदा हुआ। सीएफसी औद्योगिक गैसें हैं। मुख्य रूप से ये रेफ्रिजरेटर और एयर कण्डीशनरों से निकलती हैं। ये गैसें सदियों तक वातावरण में बनी रहती हैं। पराबैंगनी किरणों की मौजूदगी में ये अति सक्रिय हो जाती हैं, जिससे ओजोन परत को नुकसान पहुँचता है। इसीलिए माना जाता है कि सीएफसी गैसों का एक कण कार्बन डाइऑक्साइड के एक कण से दस हजार गुना ज्यादा खतरनाक होता है।
1970-80 के दशक तक जलवायु परिवर्तन की समस्या को बहुत गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा था। औद्योगिक घराने और तेल लॉबी इसे पर्यावरणवादियों की मनोगत समस्या बताकर खारिज कर देते थे। लेकिन बढ़ते वैज्ञानिक सबूत और जाहिर होते खतरों ने आखिरकार सबको यह मानने को मजबूर कर दिया कि ग्लोबल वार्मिंग एक वास्तविक समस्या है और इसकी वजह से अपना यह ग्रह खतरे में है।
अब वैज्ञानिकों ने अपने शोध से यह भी साबित कर दिया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से इंसान की सेहत के लिए कई तरह के और बड़े पैमाने पर खतरे पैदा हो रहे हैं। जानकार बताते हैं कि इन खतरों को समझने के लिए एक नयी दृष्टि की जरूरत है जिसमें प्रकृति की व्यवस्था पर खास ध्यान दिया जाए। इस बुनियादी बात को आज समझने की जरूरत है कि हमारी आबादी की अच्छी सेहत काफी हद तक धरती की जीवनदायी व्यवस्था की स्थिरता और ठीक से काम करने पर निर्भर है। धरती की प्राकृतिक व्यवस्थाएँ जटिल हैं, लेकिन अगर हमें स्वस्थ रहना है तो हमें अब इन्हें समझना ही होगा और इन्हें बचाना भी होगा। धरती से मनमाना व्यवहार करते हुए हम अब स्वस्थ नहीं रह सकते, बल्कि हमारे लिए अपना अस्तित्व बचाना भी मुश्किल है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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