सिर्फ 4-5 इंच की बढ़ोत्तरी से ही कई दक्षिणी समुद्री द्वीपों में बाढ़ की स्थिति आ सकती है और दक्षिण पूर्व एशिया का विस्तृत भूभाग जलमग्न हो सकता है। करोड़ों की संख्या में लोग समुद्रों के औसत जलस्तर से तीन फीट नीचे के दायरे में आ सकते हैं। इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं का खतरा भी बढ़ जायेगा।
प्रकृति का कोई धर्म नही होता, देश नही होता,जाति नहीं होती। प्रकृति छोटे,बड़े का भेद भी नहीं करती। वह सब को समभाव से देखती है। साथ ही साथ प्रकृति समय-समय पर मानव सभ्यता को चेतावनी भी देती रहती है। यह हम पर है कि हम प्रकृति की चेतावनी को कैसे ग्रहण करते हैं। पिछ्ले कई सालों से मानव ने अपनी सुख, सुविधाओं के लिये प्रकृति का जिस बुरी तरह से दोहन किया है, उसके दूरगामी परिणामों को जाने बिना, उसके परिणाम अब नजर आने लगे हैं। चाहे हम ग्लोबल वार्मिंग कह लें या जलवायु परिवर्तन या फिर इसे किसी और नाम से पुकार लें, तथ्य यह है कि प्रकृति के निर्मम दोहन का असर अब साफ दिखने लगा है। अब अमरीका और बड़े देश भी इस आसन्न खतरे को महसूस करने लगे हैं। जलवायु परिवर्तन पर एक अंतर्शासकीय पैनल (आई.पी.सी.सी.) भी गठित किया गया है। जिसने हाल ही में अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की है। वह रिपोर्ट भी ऐसी ही आशंकाओं की ओर इशारा करती है। आई.पी.सी.सी. ने माना है कि जलवायु परिवर्तन मानव सभ्यता के लिये एक गंभीर खतरा है। यह जलवायु परिवर्तन बिना किसी संदेह के मानव द्वारा प्रकृति के साथ किये गये खिलवाड़ के कारण ही है। जलवायु परिवर्तन के खतरों में शामिल है कि विश्व भर में वायु व समुद्र के तापमान में वृद्धि होना, समुद्र के सतह का ऊपर उठना, बर्फ का गलना और हिमपात में कमी 1961 से 2003 के बीच समुद्र की सतह 1.8 मिमी/वर्ष से 3.1 मिमी/वर्ष की दर से ऊपर उठ रही है। पिछले साल 130 देशों के 2,500 वैज्ञानिक गहन शोध और अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मौजूदा ग्लोबल वार्मिंग की मुख्य अथवा पूर्ण वजह मानवीय गतिविधियाँ ही हैं।
मानवजनित ग्लोबल वार्मिंग को ‘एंथ्रोपोजेनिक क्लाइमेट चेंज’ भी कहा जाता है। अनेक वर्षों से ओजोन परत के क्षतिग्रस्त होने और ग्रीनहाउस गैसों, जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड आदि, के अति उत्सर्जन से वायुमंडल पर पड़ रहे अतिरिक्त दबाव के चर्चा हर कोई कर रहा है लेकिन इसमें भी बड़े देश अपना अपराध स्वीकार ना करते हुए छोटे और विकासशील देशों पर सारा दोष मढ़ देना चाहते हैं। यह स्पष्ट है कि अमेरीका, जापान तथा यूरोप के देश इस अति उत्सर्जन लिये ज्यादा जिम्मेवार हैं लेकिन अक्सर अधिक जनसंख्या वाले देशों जैसे भारत व चीन पर सारा ठीकरा फोड़ दिया जाता है जो ठीक नहीं है। यदि हम वर्ष 2004 का आंकड़ा देखें तो उस वर्ष कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन 27 बिलियन (27 अरब) टन हुआ। इसमें अकेले अमरीका ने 5.9 बिलियन टन का उत्सर्जन किया अन्य देशों में चीन 4.7 बिलियन टन,रूस 1.7 बिलियन टन , जापान 1.3 बिलियन टन और भारत 1.1 बिलियन टन गैस उत्सर्जित कर रहे थे। यदि हम इसे प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में परिवर्तित करें तो पायेंगे कि यह अमरीका में 23.6 टन प्रति व्यक्ति, जापान में 13, रूस में 10, चीन में 4.7 और भारत में 1 टन प्रति व्यक्ति आता है। इससे साफ है कि किस देश का दोष कितना है लेकिन हमको आरोप प्रत्यारोपों की राजनीति से बचना चाहिये और जलवायु परिवर्तन जैसे खतरे को देश, जाति, धर्म की सीमाओं में ना बांटते हुए, उस पर समग्रता से विचार करना चाहिये।
जलवायु परिवर्तन के खतरे
1880 के बाद से पृथ्वी के औसत तापमान में 0.8 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज के मुताबिक इसमें सबसे ज्यादा वृद्धि हाल के दशकों में हुई है। आई.पी.सी.सी ने अपनी रपट में माना है कि पिछले 12 वर्ष (1995-2004) सर्वाधिक गर्म रहे हैं। तापामान वृद्धि की दर हर वर्ष बढ़ रही है। बढ़ते वैश्विक तापमान का सबसे ज्यादा असर आर्कटिक क्षेत्र पर पड़ रहा है। ‘मल्टीनेशनल आर्कटिक क्लाइमेट इंपैक्ट असेसमेंट’ द्वारा वर्ष 2000 से 2004 तक किये गये अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार पश्चिमी कनाडा और पूर्वी रूस के अलास्का के औसत तापमान में वैश्विक औसत तापमान की तुलना में दोगुनी वृद्धि हुई है। बर्फ के तेजी से पिघलने के कारण एक ओर समुद्र के जलस्तर के बढ़ने का खतरा है वहीं कई क्षेत्र हिमरहित हो जायेंगे। जैसे माना जा रहा है कोई आर्कटिक क्षेत्र 2040 या इससे भी पहले की गर्मियों तक पूर्णत: हिमरहित हो जाएगा। इसी तरह समुद्र में जमने वाली बर्फ की कमी के कारण अनेक समुद्री जीवों का अस्तित्व खतरे में आ जायेगा। मूंगा भित्ति (कोरल रीफ) का बढ़ते तापमान के कारण बहुत नुकसान हो रहा है। यदि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन अभी की रफ्तार से चलता रहा तो इस सदी के अन्त तक पृथ्वी का तापमान 4 से 5 डिग्री सैल्सियस बढ़ जायेगा। जिससे भूजल का भंडार घटेगा, पानी की उपलब्धता कम हो जायेगी। खेती ही नहीं वरन पीने के लिये भी साफ जल की उपलब्धता कम हो जायेगी, मरुस्थलीकरण बढ़ेगा। उत्तरी भारत का खेतिहर मैदानी क्षेत्र इससे पूरी तरह तबाह हो सकता है।
आईपीसीसी की रपट में चेतावनी दी गयी है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते बड़े स्तर पर जल और खाद्यान्न की कमी हो सकती है। कुछ क्षेत्रों में तो 50 प्रतिशत तक खाद्यान्न की पैदावार कम हो सकती है। एक शोध के अनुसार यदि वातावरण का तापमान औसत 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो इससे गेहूँ की पैदावार 17 % तक कम हो जाती है। वन्य जीवन पर भी जलवायु परिवर्तन का घातक प्रभाव पड़ेगा। ग्लेशियरों के पिघलने से एक ओर उन क्षेत्रों में पानी की कमी हो जाएगी जिनके लिए ये ग्लेशियर पेयजल के स्रोत हैं दूसरी ओर समुद्र का जलस्तर भी बढ़ेगा। इस सदी के अंत तक समुद्रों का जलस्तर 7 से 23 इंच (18वे 59 सेंटीमीटर) तक बढ़ सकता है। सिर्फ 4-5 इंच की बढ़ोत्तरी से ही कई दक्षिणी समुद्री द्वीपों में बाढ़ की स्थिति आ सकती है और दक्षिण पूर्व एशिया का विस्तृत भूभाग जलमग्न हो सकता है। करोड़ों की संख्या में लोग समुद्रों के औसत जलस्तर से तीन फीट नीचे के दायरे में आ सकते हैं। इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं का खतरा भी बढ़ जायेगा। दुनिया के कई हिस्सों में शक्तिशाली तूफान, बाढ़, सूनामी, तापतरंग (हीट वेव्स) जैसी बातें आम हो जायेंगी एक और हमें इन आपदाओं से निपटने के लिये तैयार होना होगा वहीं अन्य महामारियां जैसे मलेरिया, हैजा, डैंगू, डायरिया आदि से भी निबटना होगा। ज्यादा गर्मी होने से विश्व के घने जंगलों में आग लगने की संभावना भी बढ़ जायेगी जो कई देशों के लिये घातक होगी।
जो खतरे दिख रहे हैं वे हमारे दिमाग में घंटी बजाने के लिये पर्याप्त है। इन खतरों से किसी एक देश या समाज को ही संकट नहीं है बल्कि पूरी मानव सभ्यता को खतरा है। इसलिये हमें, हमारी सरकारों को समग्र रूप से कुछ कदम उठाने होंगे जो मानव सभ्यता को बचाने के लिये जरूरी हैं। हाल ही में अमेरीका के पूर्व उप-राष्ट्रपति अल-गोर ने इसी मुद्दे से जुड़ी एक फिल्म बनाई थी “इनकन्वीनियेंट ट्रुथ” यानि ‘असुविधाजनक सत्य’। जलवायु परिवर्तन का सत्य भले ही असुविधाजनक हो लेकिन यह है तो सत्य ही। जिस पर हर देश को अपनी सीमाओं को परे रखकर समग्रता में सोचना होगा। आई.पी.सी.सी. का गठन एक अच्छा कदम है लेकिन उसकी रपट में बताये खतरों को कम करने के उपायों पर सोचना भी अब बहुत जरूरी है।