जल और वायु को पृथ्वी पर जीवन का आधार अथवा प्राण कहा जाता है। इन दोनों शब्दों के जोड़ से मिलकर मौसम बनता है और मौसमी घटनाओं में बदलाव को ही जलवायु परिवर्तन कहा जाता है। इस मौसम को बनाने में ऋतुओं का अहम योगदान है। हर ऋतु की अपनी एक विशिष्ट विशेषता एवं पहचान है, लेकिन विकसित होने के लिए जैसे-जैसे भारत अनियमित विकास की गाड़ी पर बैठ कर आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे ही देश के खुशनुमा आसमान पर जलवायु परिवर्तन के बादल और घने होते जा रहे हैं। ऋतुओं के चक्र व समयकाल में बदलाव हो रहा है। हालांकि जलवायु परिवर्तन का असर पूरे विश्व पर पड़ रहा है, लेकिन भारत पर इसका प्रभाव अधिक दिख रहा है। जिसके लिए अनियमित औद्योगिकरण और अनियोजित विकास मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं, किंतु केवल उद्योगों को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, बल्कि देश का हर नागरिक या कहें कि बढ़ती आबादी भी इसके लिए जिम्मेदार है।
दरअसल बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने तथा रोजगार उपलब्ध कराने के लिए विश्व भर में औद्योगिकरण पर जोर दिया गया। लोगों के रहने, उद्योग लगाने, ढांचागत निर्माण जैसे रेलवे लाइन, मेट्रो स्टेशन, एयरपोर्ट, हाईवे, पुल आदि बनाने के लिए बड़े पैमाने पर जंगलों को काटा गया। पेड़ों के कटने की संख्या का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बीते 3 वर्षों में भारत के विभिन्न स्थानों पर 69 लाख 44 हजार 608 पेड़ों को काटा गया। सरल शब्दों में कहें तो विकास की गाड़ी को चलाने के लिए जीवन देने वाले पर्यावरण की बलि चढ़ा दी गई। यही हाल विश्व के अन्य देशों का भी है और पेड़ों का कटना थमने का नाम नहीं ले रहा है। जिस कारण दिल्ली, भोपाल, इंदौर, बुंदेलखंड जैसे देश के अनेक स्थान, जो कभी हरियाली से लहलहाते थे, आज सूने पड़े हैं। विदित हो कि वृक्षों का कार्य केवल हरियाली को बनाए रखना ही नहीं बल्कि वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को सोख कर ऑक्सीजन प्रदान करने सहित मृदा अपरदन रोकना और भूमिगत जल स्तर बनाए रखना भी होता है। वृक्ष मौसमचक्र को बनाए रखने में भी सहायता करते हैं, किंतु वैश्विक स्तर सहित भारत में हो रहे वनों के कटान ने जलवायु को काफी परिवर्तित कर दिया है। उद्योग जगत भी जलवायु परिवर्तन में अपना पूरा योगदान दे रहा है।
देश में नियमों का सख्ती से पालन न होने के कारण उद्योगों के जहरीले कचरे को नदियों और तालाबों आदि में बहा दिया जाता है। विशाल आबादी का सीवरेज भी सीधे नदियों आदि में बहाया जाता है। एनजीटी द्वारा प्रतिबंध लगाने के बावजूद भी खुले में प्लास्टिकयुक्त कूड़े को धड़ल्ले से जलाया जाता है। कुछ नगर निकाय तो खुद ही कचरे में आग लगा देते हैं। इससे कार्बन उत्सर्जन होता है। वहीं देश के अधिकांश उद्योग न तो पर्यावरणीय मानकों को पूरा करते हैं और न ही नियमों का पालन करते हैं। इसके बावजूद भी वे बेधड़क होकर हवा में जहर घोल रहे हैं। फलस्वरूप, चीन (27.2 प्रतिशत) और अमेरिका (14.6 प्रतिशत) के बाद भारत (6.8 प्रतिशत) दुनिया का तीसरा सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश है। विश्व में बड़े पैमाने पर हो रहे कार्बन उत्सर्जन ने ही ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ा दिया है। इससे जलवायु परिवर्तन जैसी घटनाएं भीषण रूप में घटने लगी तो पूरी दुनिया चिंतित हुई। कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए पेरिस समझौता किया गया, लेकिन अमेरिका ने कुछ समय बाद समझौते से खुद को पीछे खींच लिया। खैर भारत सहित विश्व के अधिकांश देशों में पेरिस समझौते का अनुपालन करते हुए कार्बन उत्सर्जन को कम करने के धरातल पर उपाय होते नहीं दिख रहे हैं। जिसके अब भयानक परिणाम सभी देशों को दिखने लगे हैं। भारत इससे भयावह रूप से प्राभावित दिख भी रहा है।
कार्बन के साथ ही विभिन्न गैसों के बढ़ते उत्सर्जन के कारण ग्लोबल वार्मिंग हो रही है। जिससे जलवायु परिवर्तन की घटनाओं में इजाफा हो रहा है। इससे न केवल दुनियाभर में वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, बल्कि सूखा, बाढ़ और जल संकट जैसी समस्याएं खड़ी हो रही हैं। इसके अलावा गर्म हवाओं (लू) के चलने के दिनों की संख्या में रिकाॅर्ड बढ़ोतरी हो रही है। सीएसई की ‘स्टेट आफ इंडियाज इनवायरमेंट 2020’’ के मुताबिक भारत में वर्ष 2013 से 2019 के बीच गर्म हवाओं में 69 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। वर्ष 2013 में 93 दिन गर्म हवाएं दर्ज की गई थीं, जबकि वर्ष 2014 में 128 दिन, वर्ष 2015 में 82 दिन, वर्ष 2016 में 138 दिन, वर्ष 2017 115 दिन, वर्ष 2018 में 86 दिन और वर्ष 2019 में रिकाॅर्ड 157 दिन गर्म हवाएं देश के विभिन्न राज्यों में दर्ज की गई थी। आंकड़ों के मुताबिक पिछले साले सालों में गर्म हवाओं के कारण 5300 लोगों की मौत भी हुई है। वर्ष 2103 में 1433 लोगों की मौत हुई थी, जबकि 2014 में 547 लोग गर्म हवाओं के कारण मरे थे। गर्म हवाओं के कारण अब तक सबसे ज्यादा मौतें वर्ष 2015 में हुई थीं। इस वर्ष 2081 लोग मरे थे। तो वहीं वर्ष 2016 में 510, 2017 में 375, 2018 में 26 और 2019 में 373 लोगों की मौत हुई थी। पिछले साल लू का सबसे ज्यादा सामना राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार को करना पड़ा था। नीचे चार्ट में राज्यवार गर्म हवाओं की संख्या की जानकारी दी गई है।
भारत के साथ ही पूरे विश्व को यह समझना होगा कि जलवायु परिवर्तन मानवीय गतिविधियों से उपजा है, इसलिए धन खर्च करके जलवायु परिवर्तन को नहीं रोका जा सकता। इसे रोकने के लिए आंदोलनों से ज्यादा मानवीय गतिविधियों या मानवीय जीवनशैली में बदलाव लाना बेहद जरूरी है, लेकिन देखा यह जाता है कि पर्यावरण के लिए आवाज उठाने वाले अधिकांश लोग अपनी जीवनशैली में परिवर्तन नहीं लाते। इसलिए उन सभी वस्तुओं का त्याग इंसानी जीवन से करना होगा, जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण को हानि पहुंचाती हैं। साथ ही उद्योगों और परिवहन सेक्टरों पर भी सख्ती से लगाम लगानी होगी।
हिमांशु भट्ट (8057170025)