देश में कहीं भी अगर सूखा, अकाल और भूख की चर्चा होती है, तो उसमें कालाहांडी का नाम सबसे पहले लिया जाता है। उड़ीसा स्थित कालाहांडी क्षेत्र जंगलों की भारी कटाई, वर्षा की अनियमितता, पानी के तेज बहाव और मिट्टी के कटाव की मार झेलता रहा है। इन्हीं कारणों से यहां जनवरी माह से ही पानी की भारी किल्लत होने लगती है और भारी संख्या में लोग यहां से पलायन कर जाते हैं।
लेकिन इसी जिले के जीरा डबरा प्रखण्ड स्थित कुर्सला गांव के एक युवा कोमल लोचन ज्ञानी, दस साल पहले ही इस बात को भाप चुके थे कि धरती की कोख में तभी पानी ठहर सकेगा, जब उस पर वृक्ष लगे हों। उन्होंने पानी के अभाव के मूल कारणों को महसूस किया और इसी मकसद से गांव के युवाओं को संगठित किया और एकमत से इस क्षेत्र को हरा- भरा बनाने का संकल्प लिया। लेकिन जिस जमीन पर वृक्षारोपण करने का निर्णय लिया गया था, वह सरकारी जमीन थी।
परन्तु युवाओं के जोश और ज्ञानी के सफल नेतृत्व से उन्हें करीब 100 एकड़ बंजर जमीन मिली। फिर आगे बंजर जमीन को आबाद करने का प्रयास शुरू हुआ, जिसके तहत जगह- जगह वर्षा जल संग्रहण के ढांचे खोदे गए और इन गड्ढों में सहज जल-जमाव के लिए एक लम्बी जुड़ाव नहर तैयारी की गई, जिससे वर्षा की एक-एक बूंद का संग्रहण संभव हुआ। ज्ञानी ने याद करते हुए बताया, “हमने करीब पचास आहर (जोहड़) बनाए और पानी को बहने से रोकने के ठोस उपाय किए।“
इसी गांव के युवा निधि साहू बताते हैं, “वर्षाजल के तेज बहाव वाले रास्ते को पूरी तरह से बंद कर दिया गया था। समीप के एक तालाब को भी खोदकर गहरा किया गया, जिसके किनारे-किनारे फलदार वृक्ष लगाए गए।“
सालों साल तक यह प्रयास चलता रहा और अंतत: दस साल बाद 492 एकड़ जमीन जंगल से ढ़क गई। वर्ष 1995 में इस क्षेत्र में बारिश नहीं हुई। लेकिन उस साल इस क्षेत्र में पानी की कमी की कोई बात नहीं सुनी गई। न लोगों का पलायन हुआ और न मवेशियों के मरने की घटनाएं सुनने को मिलीं। इसी क्षेत्र के प्रताप किशोर बताते हैं, “आहरों, तालाबों में इतना पानी था कि इससे पानी की कमी का तो कोई सवाल नहीं उठा।“
आज इस गांव में एक बड़ा बदलाव आ गया है। पानी की दिशा में किए गए इन उपायों से आज मई- जून महीने में भी कुओं में बराबर पानी बना रहता है। कालाहांडी, जहां सरकार भी कोई समाधान तलाश कर पाने में असक्षम रही है, वहीं कुर्सला के ग्रामवासी हंसते-हंसते इनका जवाब दे रहे हैं।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें : अमरेन्द्र किशोर/कोमल लोचन ज्ञानी द इण्डियन नैशनल ट्रस्ट फॉर द वेलफेयर ऑफ द ट्राइबल्स (इन्टवाट) 7/मी-7/230,रोहिणी, नई दिल्ली- 85 फोन- 011 - 27046583,27055172 वेबसाइट: www.helptribals.org
लेकिन इसी जिले के जीरा डबरा प्रखण्ड स्थित कुर्सला गांव के एक युवा कोमल लोचन ज्ञानी, दस साल पहले ही इस बात को भाप चुके थे कि धरती की कोख में तभी पानी ठहर सकेगा, जब उस पर वृक्ष लगे हों। उन्होंने पानी के अभाव के मूल कारणों को महसूस किया और इसी मकसद से गांव के युवाओं को संगठित किया और एकमत से इस क्षेत्र को हरा- भरा बनाने का संकल्प लिया। लेकिन जिस जमीन पर वृक्षारोपण करने का निर्णय लिया गया था, वह सरकारी जमीन थी।
परन्तु युवाओं के जोश और ज्ञानी के सफल नेतृत्व से उन्हें करीब 100 एकड़ बंजर जमीन मिली। फिर आगे बंजर जमीन को आबाद करने का प्रयास शुरू हुआ, जिसके तहत जगह- जगह वर्षा जल संग्रहण के ढांचे खोदे गए और इन गड्ढों में सहज जल-जमाव के लिए एक लम्बी जुड़ाव नहर तैयारी की गई, जिससे वर्षा की एक-एक बूंद का संग्रहण संभव हुआ। ज्ञानी ने याद करते हुए बताया, “हमने करीब पचास आहर (जोहड़) बनाए और पानी को बहने से रोकने के ठोस उपाय किए।“
इसी गांव के युवा निधि साहू बताते हैं, “वर्षाजल के तेज बहाव वाले रास्ते को पूरी तरह से बंद कर दिया गया था। समीप के एक तालाब को भी खोदकर गहरा किया गया, जिसके किनारे-किनारे फलदार वृक्ष लगाए गए।“
सालों साल तक यह प्रयास चलता रहा और अंतत: दस साल बाद 492 एकड़ जमीन जंगल से ढ़क गई। वर्ष 1995 में इस क्षेत्र में बारिश नहीं हुई। लेकिन उस साल इस क्षेत्र में पानी की कमी की कोई बात नहीं सुनी गई। न लोगों का पलायन हुआ और न मवेशियों के मरने की घटनाएं सुनने को मिलीं। इसी क्षेत्र के प्रताप किशोर बताते हैं, “आहरों, तालाबों में इतना पानी था कि इससे पानी की कमी का तो कोई सवाल नहीं उठा।“
आज इस गांव में एक बड़ा बदलाव आ गया है। पानी की दिशा में किए गए इन उपायों से आज मई- जून महीने में भी कुओं में बराबर पानी बना रहता है। कालाहांडी, जहां सरकार भी कोई समाधान तलाश कर पाने में असक्षम रही है, वहीं कुर्सला के ग्रामवासी हंसते-हंसते इनका जवाब दे रहे हैं।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें : अमरेन्द्र किशोर/कोमल लोचन ज्ञानी द इण्डियन नैशनल ट्रस्ट फॉर द वेलफेयर ऑफ द ट्राइबल्स (इन्टवाट) 7/मी-7/230,रोहिणी, नई दिल्ली- 85 फोन- 011 - 27046583,27055172 वेबसाइट: www.helptribals.org