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राजस्थान पत्रिका, 08 जुलाई 2014
वन क्षेत्रों के तालाब-कुओं में नहीं रहा पानी, घने जंगलों पर दिखने लगा जलवायु परिवर्तन का असर
घने जंगलों में भी जलवायु परिवर्तन का असर दिखने लगा है। पानी पर संकट बढ़ा है। इससे निपटने के लिए सरकार को समग्र जलनीति बनानी होगी। हमें तय करना होगा कि इस संसाधन को कैसे बनाया जाए।जंगलों को पानी का पारंपरिक संरक्षक माना जाता है। कहा जाता रहा है कि घने जंगल बरसात के पानी को रोककर भूमिगत जल को रिचार्ज करते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में इन संरक्षकों के वजूद पर ही खतरा मंडराने लगा है। पानी यहां के जंगलों में ही सूख गया है। वन क्षेत्र के गांवों के तालाब-कुओं में पानी नहीं है। ऐसे में ग्रामीणों को पीने का पानी भी बड़ी मशक्कत से हासिल करना पड़ रहा है। अंबागढ़ चौकी क्षेत्र के देव बावड़ी के ग्रामीणों ने बताया कि वे शिवनाथ नदी के लगभग किनारे बसे हैं। इसके बावजूद गांव के तालाब सूख गए हैं। पड़ोस के नाले में पानी तभी आता है जब बरसात हो। पास के जंगलों में भी अब पानी नहीं मिलता। मवेशियों को पीने भर के लेकिन उसका पानी भी पिछली गर्मियों में सूख गया। ऐसा कि उसमें लगे कुछ पेड़ भी पानी बिना सूख गए। ग्रामीणों ने उसे और गहरा किया थोड़ा पानी निकला। स्थानीय ग्रामीण छतर कहते हैं कि समय से बरसात नहीं हुई तो यह पानी भी सूख जाएगा।
पर्यावरण में बदलाव पर नजर रखने वाली संस्थाओं का मानना है कि छत्तीसगढ़ में भूमिगत जल तजी से नीचे जा रहा है। इसका असर तालाबों-कुओं पर भी पड़ा है। बरसात का समय कम हुआ। दो महीने में होने वाली बरसात एक सप्ताह में हो जा रही है। ऐसे बरसात में पानी देर तक जमीन पर नहीं टिक रहा है। ऐसे में भूमिगत जल रिचार्ज नहीं हो पा रहा है। नदियों-तालाबों में गाद बढ़ी है। इससे भी उनकी जलधारण क्षमता प्रभावित हुई है। भूमिगत जल के दोहन ने भी परेशानी बढ़ाई है।
पर्रमेटा गांव के बुजुर्गों को याद है कि 20 साल पहले गांव में भरपूर पानी था। शिवनाथ में भी पानी रहता था। अब वह एक महीने से धारा में बहती है। पड़ोस के नाले में बारहो महीने इतना पानी रहता था कि मवेशी डूब जाएं। कोई अकेले वहां उतरने की हिम्मत नहीं करता। अब पानी पाताल चला गया है।
ग्रामीणों के मुताबिक पानी के खत्म होने से स्थानीय अर्थतंत्र प्रभावित हो रहा है। वन क्षेत्रों की अधिकांश खेती असींचित है। बरसात में खरीफ की एक फसल होती है। नदियों-तालाबों में पानी था तो किसान उससे सिंचाई कर सब्जियां और कम पानी वाली अन्य फसले उगा लेते थे। अब वह संभव नहीं रहा। ऐसे में खेत खाली रहते हैं।
घने जंगलों में भी जलवायु परिवर्तन का असर दिखने लगा है। पानी पर संकट बढ़ा है। इससे निपटने के लिए सरकार को समग्र जलनीति बनानी होगी। हमें तय करना होगा कि इस संसाधन को कैसे बनाया जाए।
ईमेल- raipur@patrika.com
घने जंगलों में भी जलवायु परिवर्तन का असर दिखने लगा है। पानी पर संकट बढ़ा है। इससे निपटने के लिए सरकार को समग्र जलनीति बनानी होगी। हमें तय करना होगा कि इस संसाधन को कैसे बनाया जाए।जंगलों को पानी का पारंपरिक संरक्षक माना जाता है। कहा जाता रहा है कि घने जंगल बरसात के पानी को रोककर भूमिगत जल को रिचार्ज करते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में इन संरक्षकों के वजूद पर ही खतरा मंडराने लगा है। पानी यहां के जंगलों में ही सूख गया है। वन क्षेत्र के गांवों के तालाब-कुओं में पानी नहीं है। ऐसे में ग्रामीणों को पीने का पानी भी बड़ी मशक्कत से हासिल करना पड़ रहा है। अंबागढ़ चौकी क्षेत्र के देव बावड़ी के ग्रामीणों ने बताया कि वे शिवनाथ नदी के लगभग किनारे बसे हैं। इसके बावजूद गांव के तालाब सूख गए हैं। पड़ोस के नाले में पानी तभी आता है जब बरसात हो। पास के जंगलों में भी अब पानी नहीं मिलता। मवेशियों को पीने भर के लेकिन उसका पानी भी पिछली गर्मियों में सूख गया। ऐसा कि उसमें लगे कुछ पेड़ भी पानी बिना सूख गए। ग्रामीणों ने उसे और गहरा किया थोड़ा पानी निकला। स्थानीय ग्रामीण छतर कहते हैं कि समय से बरसात नहीं हुई तो यह पानी भी सूख जाएगा।
इन वजहों से चोरी हो गया पानी
पर्यावरण में बदलाव पर नजर रखने वाली संस्थाओं का मानना है कि छत्तीसगढ़ में भूमिगत जल तजी से नीचे जा रहा है। इसका असर तालाबों-कुओं पर भी पड़ा है। बरसात का समय कम हुआ। दो महीने में होने वाली बरसात एक सप्ताह में हो जा रही है। ऐसे बरसात में पानी देर तक जमीन पर नहीं टिक रहा है। ऐसे में भूमिगत जल रिचार्ज नहीं हो पा रहा है। नदियों-तालाबों में गाद बढ़ी है। इससे भी उनकी जलधारण क्षमता प्रभावित हुई है। भूमिगत जल के दोहन ने भी परेशानी बढ़ाई है।
20 साल पहले लबालब थे तालाब
पर्रमेटा गांव के बुजुर्गों को याद है कि 20 साल पहले गांव में भरपूर पानी था। शिवनाथ में भी पानी रहता था। अब वह एक महीने से धारा में बहती है। पड़ोस के नाले में बारहो महीने इतना पानी रहता था कि मवेशी डूब जाएं। कोई अकेले वहां उतरने की हिम्मत नहीं करता। अब पानी पाताल चला गया है।
प्रभावित हो रहा अर्थतंत्र
ग्रामीणों के मुताबिक पानी के खत्म होने से स्थानीय अर्थतंत्र प्रभावित हो रहा है। वन क्षेत्रों की अधिकांश खेती असींचित है। बरसात में खरीफ की एक फसल होती है। नदियों-तालाबों में पानी था तो किसान उससे सिंचाई कर सब्जियां और कम पानी वाली अन्य फसले उगा लेते थे। अब वह संभव नहीं रहा। ऐसे में खेत खाली रहते हैं।
बनानी होगी जलनीति
घने जंगलों में भी जलवायु परिवर्तन का असर दिखने लगा है। पानी पर संकट बढ़ा है। इससे निपटने के लिए सरकार को समग्र जलनीति बनानी होगी। हमें तय करना होगा कि इस संसाधन को कैसे बनाया जाए।
ईमेल- raipur@patrika.com