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चरखा फीचर्स
विज्ञान के क्षेत्र में रोज नई-नई खोज हो रही है। हमें यह जानकर खुशी होती है कि वैज्ञानिक खोज हमारे जीवन को ज्यादा सुगम, सहज बनाने के साथ-साथ प्रगति में भी सहयोगी होते हैं। वैज्ञानिक के रूप में बहुत ही कम महिलाओं को हम जानते हैं, पर कुछ ऐसी महिला वैज्ञानिक हैं जिनके काम की बदौलत अलग-अलग क्षेत्रों में नए रहोस्याद्घाटन हो रहे हैं। विज्ञान की दुनिया में सायनोबैक्टेरियोलॉजिस्ट के नाम से अपनी पहचान कायम करने वाली भोपाल की प्रो. मीनाक्षी बैनर्जी का नाम भी उनमें से एक है। पिछले 20 सालों से सायनोबैक्टेरिया पर काम कर रही हैं। यह एक ऐसा विषय है, जिस पर अब बहुत ज्यादा काम हो रहा है, पर जब प्रो. बैनर्जी ने इस विषय पर काम करना शुरू किया था, तब यह चुनौतियों भरा क्षेत्र था। प्रो. बैनर्जी ने काम के प्रति समर्पित होकर चुनौतियों को स्वीकार किया और सुविधाओं के अभाव में काम करते हुए सफलता हासिल की। अब उनके 88 विस्तृत शोध पत्र विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय जर्नल्स में प्रकाशित हो चुके हैं, 102 शोध पत्र वह विभिन्न सम्मेलनों और सेमिनारों में पढ़ चुकी हैं, जैव तकनीक पर ’बायोटेक्नोलॉजी‘ नाम से उनकी एक किताब प्रकाशित हो चुकी है। वह 7 विदेशी जर्नल्स की रिव्यूवर हैं।
प्रो. बैनर्जी कहती हैं, ’’जब मैंने काम शुरू किया, तो इसके मूल रूप को निकालने में मुझे साल भर लग गए। इसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैंने ’नाइट्रोजन फिक्सेशन इन राइस फील्ड बाय ऑलोसायरा फर्टिलाइसिमा‘ पर पीएच.डी. की. इसमें मैंने पाया कि चावल की खेती में सायनोबैक्टेरिया खाद का काम कर सकता है और यह रासायनिक खाद और जैविक खाद से बहुत ही बेहतर साबित होता है। सायनोबैक्टेरिया के उपयोग को लेकर हमने एन.पी.के. खाद के साथ लगातार तुलना की है और पाया है कि सायनोबैक्टेरिया इकोफ्रेण्डली है और ज्यादा उत्पादन बढ़ाने का काम करता है। इसे किसान किसी बड़े गढ्ढे में थोड़ा सा स्टार्टर कल्चर डालकर पैदा कर सकते हैं। उसे गढ्ढे से सायनोबैक्टेरिया को सीधे निकाल कर खेतों में डाल सकते हैं या फिर उसे सूखाकर पावडर बनाकर छिड़काव कर सकते हैं। यूएसए और यूरोप में सैकड़ों हेक्टेयर के खेतों में इसका उत्पादन और उपयोग हो रहा है। अब चावल के अलावा गेहूं, सरसो, पालक, भिण्डी आदि की खेती में भी यह कारगर साबित हो रहा है।‘‘
प्रो. बैनर्जी की स्कूली शिक्षा आसनसोल में हुई, फिर 12 वीं की पढ़ाई रांची विश्वविद्यालय से की। उसके बाद उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राकृतिक विज्ञान में स्नातक और गोल्ड मेडल के साथ स्नातकोत्तर किया। स्नातकोत्तर में उन्होंने सायनोबैक्टेरिया को विशेष-पत्र के रूप में लिया था। जब उन्होंने पीएच.डी. का मन बनाया, तो उनके गाइड प्रो. एच.डी. कुमार ने सलाह दी कि वह सायनोबैक्टेरिया के क्षेत्र में काम करें। वैज्ञानिकों को यह बात पहले से ही मालूम थी कि यह आदिम बैक्टेरिया है, पर किसी ने इसके मूल स्वरूप पर काम नहीं किया था।
प्रो. बैनर्जी अपने काम के बारे में यह भी बताती है, ’’सायनोबैक्टेरिया से आर्सेनिक टॉक्सिक को भी खत्म किया जा सकता है। इसके चारों ओर पॉलीसैकैराइड का घेरा होता है, जिसकी वजह से उसके अंदर टॉक्सिक नहीं जा पाता और उससे वह चिपक कर रह जाता है। इसके माध्यम से पानी को शुद्ध किया जा सकता है। यदि एक तालाब में सायनोबैक्टेरिया को बढ़ाकर उसे बाद में छान लिया जाए, तो उसके साथ तालाब के पानी में मिश्रित टॉक्सिक भी बाहर चला आएगा।‘‘ प्रो. बैनर्जी अब मेडिसिनल प्लांट पर भी काम कर रही हैं। यानी सायनोबैक्टेरिया का उपयोग टिश्यू कल्चर में भी किया जा सकता है और एल्गालाइजेशन के माध्यम से मेडिसिनल प्लांट को ज्यादा बेहतर कर संरक्षित किया जा सकता है।
अगर सायनोबैक्टीरिया से आॅर्सेनिक टॉक्सिक को खत्म किया जा सकता है तो ऐसे शोध बिहार के बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों में मददगार साबित हो सकता है, जहां 12 लाख की आबादी गुजर बसर कर रही है। कोसी तटबंध के जलीय क्षेत्रों में फ्लोराइड और ऑर्सेनिक की मात्रा बहुत अधिक पायी गई है। यह शोध विश्व बैंक के द्वारा हाल के दिनों में की गई थी। यह बात दिगर है कि यह कितना संभव है लेकिन यह शोध ऐसे क्षेत्रों के लिए जरूर मददगार साबित हो सकता है।
प्रो. बैनर्जी ने बताया, ’’पीएच.डी. के तुरंत बाद मुझे 1989 में भोपाल विश्वविद्यालय में व्याख्याता की नौकरी मिल गई, पर यहां उस वक्त एक सामान्य लैब ही था। तब मैंने धीरे-धीरे यहां ऐसा लैब बनाया, जो कि अब मध्यप्रदेश में अपनी तरह का इकलौता है। यद्यपि काम की तुलना में यहां सुविधाएं कम हैं, पर इस लिमिटेशन से हमें फायदा भी है। यानी बिना किसी हस्तक्षेप के अपने काम को आगे बढ़ाते जाना। ज्यादा आधुनिक प्रयोग के लिए हम राष्ट्रीय लैब की मदद लेते हैं।‘‘
प्रो. बैनर्जी को पर्यावरण विज्ञान में उत्कृष्ट योगदान के लिए जर्मनी की डाड फेलोशिप, स्टाफ एकेडेमिक कॉमनवेल्थ फेलोशिप, अल्बर्ट स्वीट्जर इंटरनेशनल गोल्ड मेडल फॉर साइंस, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का कैरियर अवार्ड, अकादमी ऑफ एनवायरमेण्टल बायोलॉजी की ओर से देवकी दत्ता मेडल सहित कई सम्मान, अवार्ड और फैलोशिप मिल चुकी हैं। प्रो. बैनर्जी को अपने अकादमिक जीवन में सबसे बड़ी खुशी तब मिली थी, जब भारतीय विज्ञान अकादमी, बंगलेरू से भारतीय महिला वैज्ञानिकों पर प्रकाशित पुस्तक ’लीलावतीज़ डॉटर्स‘ में उनकी बायोग्राफी प्रकाशित हुई थी।
प्रो. बैनर्जी कहती हैं, ’’जब मैंने काम शुरू किया, तो इसके मूल रूप को निकालने में मुझे साल भर लग गए। इसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैंने ’नाइट्रोजन फिक्सेशन इन राइस फील्ड बाय ऑलोसायरा फर्टिलाइसिमा‘ पर पीएच.डी. की. इसमें मैंने पाया कि चावल की खेती में सायनोबैक्टेरिया खाद का काम कर सकता है और यह रासायनिक खाद और जैविक खाद से बहुत ही बेहतर साबित होता है। सायनोबैक्टेरिया के उपयोग को लेकर हमने एन.पी.के. खाद के साथ लगातार तुलना की है और पाया है कि सायनोबैक्टेरिया इकोफ्रेण्डली है और ज्यादा उत्पादन बढ़ाने का काम करता है। इसे किसान किसी बड़े गढ्ढे में थोड़ा सा स्टार्टर कल्चर डालकर पैदा कर सकते हैं। उसे गढ्ढे से सायनोबैक्टेरिया को सीधे निकाल कर खेतों में डाल सकते हैं या फिर उसे सूखाकर पावडर बनाकर छिड़काव कर सकते हैं। यूएसए और यूरोप में सैकड़ों हेक्टेयर के खेतों में इसका उत्पादन और उपयोग हो रहा है। अब चावल के अलावा गेहूं, सरसो, पालक, भिण्डी आदि की खेती में भी यह कारगर साबित हो रहा है।‘‘
प्रो. बैनर्जी की स्कूली शिक्षा आसनसोल में हुई, फिर 12 वीं की पढ़ाई रांची विश्वविद्यालय से की। उसके बाद उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राकृतिक विज्ञान में स्नातक और गोल्ड मेडल के साथ स्नातकोत्तर किया। स्नातकोत्तर में उन्होंने सायनोबैक्टेरिया को विशेष-पत्र के रूप में लिया था। जब उन्होंने पीएच.डी. का मन बनाया, तो उनके गाइड प्रो. एच.डी. कुमार ने सलाह दी कि वह सायनोबैक्टेरिया के क्षेत्र में काम करें। वैज्ञानिकों को यह बात पहले से ही मालूम थी कि यह आदिम बैक्टेरिया है, पर किसी ने इसके मूल स्वरूप पर काम नहीं किया था।
प्रो. बैनर्जी अपने काम के बारे में यह भी बताती है, ’’सायनोबैक्टेरिया से आर्सेनिक टॉक्सिक को भी खत्म किया जा सकता है। इसके चारों ओर पॉलीसैकैराइड का घेरा होता है, जिसकी वजह से उसके अंदर टॉक्सिक नहीं जा पाता और उससे वह चिपक कर रह जाता है। इसके माध्यम से पानी को शुद्ध किया जा सकता है। यदि एक तालाब में सायनोबैक्टेरिया को बढ़ाकर उसे बाद में छान लिया जाए, तो उसके साथ तालाब के पानी में मिश्रित टॉक्सिक भी बाहर चला आएगा।‘‘ प्रो. बैनर्जी अब मेडिसिनल प्लांट पर भी काम कर रही हैं। यानी सायनोबैक्टेरिया का उपयोग टिश्यू कल्चर में भी किया जा सकता है और एल्गालाइजेशन के माध्यम से मेडिसिनल प्लांट को ज्यादा बेहतर कर संरक्षित किया जा सकता है।
अगर सायनोबैक्टीरिया से आॅर्सेनिक टॉक्सिक को खत्म किया जा सकता है तो ऐसे शोध बिहार के बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों में मददगार साबित हो सकता है, जहां 12 लाख की आबादी गुजर बसर कर रही है। कोसी तटबंध के जलीय क्षेत्रों में फ्लोराइड और ऑर्सेनिक की मात्रा बहुत अधिक पायी गई है। यह शोध विश्व बैंक के द्वारा हाल के दिनों में की गई थी। यह बात दिगर है कि यह कितना संभव है लेकिन यह शोध ऐसे क्षेत्रों के लिए जरूर मददगार साबित हो सकता है।
प्रो. बैनर्जी ने बताया, ’’पीएच.डी. के तुरंत बाद मुझे 1989 में भोपाल विश्वविद्यालय में व्याख्याता की नौकरी मिल गई, पर यहां उस वक्त एक सामान्य लैब ही था। तब मैंने धीरे-धीरे यहां ऐसा लैब बनाया, जो कि अब मध्यप्रदेश में अपनी तरह का इकलौता है। यद्यपि काम की तुलना में यहां सुविधाएं कम हैं, पर इस लिमिटेशन से हमें फायदा भी है। यानी बिना किसी हस्तक्षेप के अपने काम को आगे बढ़ाते जाना। ज्यादा आधुनिक प्रयोग के लिए हम राष्ट्रीय लैब की मदद लेते हैं।‘‘
प्रो. बैनर्जी को पर्यावरण विज्ञान में उत्कृष्ट योगदान के लिए जर्मनी की डाड फेलोशिप, स्टाफ एकेडेमिक कॉमनवेल्थ फेलोशिप, अल्बर्ट स्वीट्जर इंटरनेशनल गोल्ड मेडल फॉर साइंस, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का कैरियर अवार्ड, अकादमी ऑफ एनवायरमेण्टल बायोलॉजी की ओर से देवकी दत्ता मेडल सहित कई सम्मान, अवार्ड और फैलोशिप मिल चुकी हैं। प्रो. बैनर्जी को अपने अकादमिक जीवन में सबसे बड़ी खुशी तब मिली थी, जब भारतीय विज्ञान अकादमी, बंगलेरू से भारतीय महिला वैज्ञानिकों पर प्रकाशित पुस्तक ’लीलावतीज़ डॉटर्स‘ में उनकी बायोग्राफी प्रकाशित हुई थी।