1. फ्लोराइड नॉन-कैल्सीफाइड कोषिकाओं, ऊतकों, अंगों तथा शरीर की विभिन्न कार्य-प्रणालियों की संरचना और कार्य का विषाक्तीकरण एवं डीरेंजिंग कर रहा है, जिसके परिणामस्वरूप अनेक तरह की स्वास्थ्य समस्याओं को अ-कंकालीय फ्लोरोसिस के अंतर्गत एक समूह में रखा गया है।
2. यह बात अत्यंत महत्वपूर्ण है, अतएव जब किसी रोगी से विगत समय के बारे में जानकारी हासिल की जाए तो रोगी द्वारा बताई जाने वाली स्वास्थ्य संबंधी शिकायतों के स्वरूप एवं प्रकार को सुनते समय डॉक्टर को फ्लोरोसिस की संभावना होने के बारे में संदेह करना चाहिए।
स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव क्या हैं:
1. कंकालीय मांसपेषी
रोगी थकान/कमजोरी होने की शिकायत कर सकता है। यह संभवतः फ्लोराइड के मांसपेशी की संरचना एवं कार्य को नष्ट करने के कारण हो। फ्लोराइड के बारे में समझा जाता है कि यह मांसपेशी सूत्रकणिका (माइटोकोन्ड्रिया) (काम करने या चलने की शक्ति का ह्रास) को भी नष्ट कर देता है ; फ्लोराइड प्रोटीन के जीवसंष्लेषण में रहता है, इसलिए किसी मायोसिन में भी कोई क्रिया होने पर मांसपेशियों के प्रोटीन अपने निर्धारित रूप में नहीं रहते।
महिलाओं की सबसे अधिक आम शिकायत यह होगी कि वे घरेलू कामकाज अच्छी तरह से नहीं कर पाती हैं, क्योंकि उन्हें कमजोरी महसूस होती रहती है। पुरुष लंबी दूरी तक चलने अथवा साइकिल चलाने में सक्षम नहीं रहते। फ्लोराइड विषाक्तता और उसके परिणामस्वरूप गैर-कंकाल फ्लोरोसिस के होने की एक संभावना के तौर पर संदेह कीजिए। रोग निदान की पुष्टि करने के लिए किस प्रकार के चिकित्सकीय परीक्षणों की आवश्यकता है, इस संबंध में भी इस भाग में चर्चा की गई है।
2. एरीथ्रोसाइट्स (लाल रक्त कण - RBCs)
कोई रोगी थकावट, उत्साह न होने और अवसाद का अनुभव होने की भी शिकायत कर सकता है। ऐसा फ्लोराइड द्वारा लाल रक्त कणों को नष्ट करने के कारण भी संभवतः हो सकता है, जिसके कारण हीमोग्लोबिन का स्तर कम हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप रक्ताल्पता एवं अंततः अवसाद की स्थिति हो सकती है। इस अवस्था में मनोचिकित्सक के पास भेजने की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि डॉक्टर को रोग निदान की पुष्टि करने के लिए कुछ परीक्षण करने की आवश्यकता होती है। जो चिकित्सकीय परीक्षण या जाँच कराई जानी चाहिए, उनका ब्यौरा इस भाग के अंत में दिया है।
3. जठरांत्रीय श्लेष्मा (Gastro-intestinal mucosa)
हीमोग्लोबिन का निम्न स्तर और रक्ताल्पता इस कारण से भी हो सकती है कि फ्लोराइड की अधिक मात्रा शरीर में किसी भी स्रोत से चली जाए जिसके परिणामस्वरूप उदर एवं आँत का श्लेष्मा नष्ट हो जाए। फ्लोराइड विषाक्तता के कारण जो तीन प्रमुख संरचनाएँ नष्ट होती हैं, वो हैं ; सूक्ष्म-अंकुर समाप्त हो जाते हैं और श्लेष्मा की स्तंभाकार सतह निरावृत्त एवं अनाच्छादित रह जाती है, इसलिए आहार से पोषक-तत्व अवशोषित नहीं होंगे; कोशिश सतह में दरार आ जाती हैं। जिसके कारण दर्द होता है;’ हीमोग्लोबिन का स्तर घटता है; 2. गॉबलेट कोशिकाएँ श्लेष्मा बनाना बंद कर देती हैं, जिसके कारण कब्ज हो जाता है; आँत की दीवार की मांसपेशियों की सतहें कुशलता से काम नहीं करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप पुनःसरण संबंधी गति नहीं होती है और उसके कारण से कब्ज होने लगता है।
1. स्तंभाकार कोशिका सतहों पर सूक्ष्म-अंकुर के साथ सामान्य श्लेष्मा एवं श्लेष्मा ड्रॉपलेट दिखाई देते हैं।
2. प्रतिदीप्त श्लेष्मा जिसमें अल्प संख्या में सूक्ष्म-अंकुर हैं, स्तम्भाकार कोशिका की सतहें उभर आई हैं।
जो उपर्युक्त संरचनात्मक एवं कार्य निष्पादन संबंधी क्षति पहुंचती हैं, उनके परिणामस्वरूप ये समस्याएँ हो सकती हैं; 1. जी मिचलाना, 2. भूख न लगना, 3. पेट में दर्द, 4. गैस बनना, (पेट फूला हुआ लगना) एवं 5. कब्जियत रहना, जिसके बीच-बीच में दस्त लगना। ये अ-ब्रणीय (नॉन-अल्सर) अग्निमांद्य की आम तौर पर की जाने वाले शिकायतें हैं। इसका संदेश यह है कि यह फ्लोराइड- विषाक्तीकरण से भी अ-ब्रणीय अग्निमांद्यता (Gastro-intestinal mucosa) हो सकती है।
4. प्रतिमूत्रल हार्मोन एवं वृक्क कार्य:
कोई रोगी गला सूखने के कारण सामान्य से अधिक प्यास लगने (पोलीडिप्सिया) की शिकायत कर सकता है। यह भी संभव है कि रोगी की प्रवृत्ति बहुत जल्दी-जल्दी पेशाब करने (पोलीयूरिया) की हो; हो सकता है कि उसे कुछ मिनट इंतजार करना भी संभव न हो, क्योंकि उसे तुरंत मूत्रालय जाना आवश्यक हो जाता है। यह संभवतः इस कारण है कि फ्लोराइड उस हार्मोन का बनना रोकता है, जो प्रतिमूत्रल हार्मोन के बनने के लिए उत्तरदायी है, जिसके कारण हार्मोन की कमी हो जाती है, वृक्कों द्वारा पानी के ट्यूबलर पुनःअवषोषण की क्रिया होना बंद हो जाती है और उससे काफी अधिक मात्रा में मूत्र बाहर आता है और सामान्य से बहुत अधिक प्यास लगती है। कुछ परीक्षण किए जाने की आवश्यकता है, जिनके बारे में विवरण इस भाग के अंत में दिया गया है।
5. रक्त वाहिकाएँ:
कोई महिला रोगी बार-बार गर्भ-स्राव/मृत बच्चे के जन्म की शिकायत कर सकती हैं, क्योंकि उस महिला ने जीवित बच्चे को जन्म न दिया हो। यह फ्लोराइड के भ्रूण की रक्त-वाहिकाओं को अवरुद्ध करने/रक्त-वाहिकाओं में कैल्शियम जमा होने, बढ़ते हुए एम्ब्रियो/भ्रूण को पोषण का अभाव होने के कारण संभव हो सकता है। इस प्रकार की शिकायतें उन रोगियों की ओर से आ सकती हैं, जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं, भोजन पकाने एवं पीने के लिए हैण्डपंपों/ट्यूबवेलों से निकाले जाने वाले अनुपचारित भूगर्भीय जल पर निर्भर करते हैं। डॉक्टर को इसके निदान की पुष्टि के लिए कुछ परीक्षण करवाने होंगे, जिसके बारे में विवरण इस भाग के अंत में दिए गए हैं।
6. स्पर्मेटोजोआ:
किसी महिला रोगी को विवाह के कुछ वर्ष बाद भी गर्भवती न हो पाने की शिकायत हो सकती है। हो सकता है उस महिला की सभी जाँच रिपोर्टें ‘‘सामान्य’’ आएँ ; किंतु उसके पति का स्पर्म काउण्ड निम्न (ओलिगोस्पर्मिया)/ या ’’कुछ नहीं’’ (एजोस्पर्मिया) हो सकता है। वीर्य के नमूने को प्रकाश-सूक्ष्मदर्शी से देखने पर हो सकता है ये सभी असामान्यताएँ पूरी स्पष्टता के साथ व्यक्त न हों। यह संभव है कि जो स्पर्मेटोजोआन मौजूद हो, वह घुण्डीदार पूँछ वाला, असामान्य सिर, दोहरे सिर वाले और इसी प्रकार के स्पर्मेटोजोआन हों। संभव है कि स्पर्मेटोजोआन में ये असामान्यताएँ भाग 1 में बताए गए स्रोतों के माध्यम से अधिक मात्रा में फ्लोराइड का उपभोग होने के कारण हों। इसके निदान की पुष्टि करने के लिए कुछ परीक्षण करवाना होंगे, जिनके बारे में इस भाग के अंत में चर्चा की गई है।
1. बच्चों में फ्लोरोसिस:
ब्राह्य रोगी विभाग (ओ.पी.डी.) में ऐसे बच्चों को लाया जा सकता है, जिनमें गंभीर असामान्यताएँ, जैसे- वृद्धि- मंदता (क्रेटिन), विकृत अस्थियाँ (नॉक-नी, बो-लेग) ए बधिर, मूक व मानसिक मंदता (बुद्धि-गुणांक निम्न होना)। (भाग 4 में 24, 25 एवं 26)। कैल्शियम एवं विटामिन ‘डी’ की कमी, रिकेट्स की संभावना के साथ अन्य संभावनाओं पर भी विचार किया जाना चाहिए, जैसे- उसी व्यक्ति में फ्लोराइड विषाक्तता एवं आयोडीन की कमी। बच्चों की इस प्रकार की समस्या को अच्छी तरह से समझने के लिए कुछ परीक्षण करवाने की आवश्यकता है।
अ-कंकाल फ्लोरोसिस के निदान की पुष्टि के लिए किए जाने वाले परीक्षण:
1. परीक्षण के लिए पेयजल उस स्रोत से अर्थात हैण्डपंप, ट्यूबवेल, खुले कुओं आदि से प्लास्टिक की बोतलों में लिया जाए, काँच की बोतलों में नहीं। पेयजल में फ्लोराइड राष्ट्रीय मानकों के अनुसार 0.1mg लीटर से अधिक नहीं होना चाहिए, परंतु जितना कम से कम हो उतना ही अच्छा।
2. मूत्र में फ्लोराइड का परीक्षण 24 घंटे के एकत्र मूत्र से अथवा तुरंत मूत्र का नमूना (स्पॉट सेम्पल) लेकर किया जा सकता है। फ्लोराइड की सामान्य ऊपरी सीमा 0ण.1mg लीटर है।
3. सीरम में फ्लोराइड का परीक्षण दिन के किसी भी समय लिए गए रक्त नमूनों से किया जा सकता है। खाली पेट होना जरूरी नहीं है। सीरम में फ्लोराइड की सामान्य ऊपरी सीमा 0.02 mg लीटर है।
अ. एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जब पीने के पानी में फ्लोराइड सामान्य सीमाओं के अंदर हो, किंतु मूत्र एवं सीरम में फ्लोराइड का स्तर काफी ऊँचा हो सकता है।
ब. उपर्युक्त अवलोकन से यह पता चलता है कि शरीर में फ्लोराइड का प्रवेश पेयजल के अलावा अन्य स्रोतों के माध्यम से होता है। यद्यपि आगे और विस्तारपूर्वक जाँच करने से शरीर में फ्लोराइड प्रवेश के वास्तविक स्रोत के रूप में आहार, औषधि/दंत उत्पाद का निश्चय किया जा सकता है अथवा क्या वह किसी फ्लोराइड उत्सर्जित करने वाले औद्योगिक इकाई के आस-पास रहता है।
स. जिस स्रोतों की फ्लोराइड के स्रोत के रूप में पहचान की गई है, उसे प्रयोग में न लेकर, एक सप्ताह अथवा दस दिनों के पश्चात मूत्र एवं सीरम के पुनर्परीक्षण से मूत्र और सीरम में फ्लोराइड का स्तर घटेगा। शारीरिक-द्रवों में फ्लोराइड स्तर में कमी होने के परिणामस्वरूप अ-कंकालीय फ्लोरोसिस से प्रोद्भूत स्वास्थ्य संबंधी शिकायतें 10-15 दिनों की अल्प समयावधि में ही गायब हो जाएंगी।
4. बच्चों में जब सामान्य से अधिक मात्रा में फ्लोराइड का सेवन किया जा रहा हो, तो आयोडीन की सम्पूरकता आई.डी.डी. घटाने के लिए पर्याप्त नहीं होगी। शरीर में फ्लोराइड के अंतःप्रवेश को हटाने के लिए पहले आयोडीन की सम्पूरकता का होना आवश्यक है।
अ. ऐसे बच्चे जिन्हें दंत फ्लोरोसिस है और जो स्थानिक फ्लोरोसिस क्षेत्रों में रहते हैं एवं आई.डी.डी. थॉयरॉयड संबंधी डीरेंजमेंट हो सकते हैं, जिनके लिए विशेष देखभाल और ध्यान दिए जाने की आवश्यकता होती है।
ब. आई.डी.डी. का प्राथमिक कारण हमेशा आयोडीन की कमी नहीं हो सकता है, बल्कि यह फ्लोराइड विषाक्तीकरण की वजह से हो सकता है।
स. फ्लोराइड के साथ-साथ एफ टी3 एवं टी एस एच का पता करने के लिए पेयजल एवं शारीरिक द्रवों की जाँच - बिना दंत फ्लोरोसिस वाले बच्चों में भी, थॉयरॉयड संबंधी असंतुलन का पता लगाने के लिए वांछनीय है।
द. आई.डी.डी. एवं फ्लोरोसिस की रोकथाम एवं नियंत्रण के लिए प्रचलित तरीकों के विपरीत रोग के निदान एवं रोगी के प्रबंधन के लिए एक समेकित दृष्टिकोण अपनाए जाने की आवश्यकता है।
रोगी के प्रबंधन के लिए निम्नलिखित पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए:
1. फ्लोराइड के स्रोत का प्रयोग न होने देना
2. भोजन में आयोडीन की पर्याप्त मात्रा के प्रयोग करने को बढ़ावा देना और यह सुनिश्चित करना कि मूत्र में आयोडीन का स्तर अनुशांसित सीमा में हो।
3. आहार संबंधी परामर्श/इंटरवेंशन देना (विवरण भाग 5 में)