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स्वच्छता दिवस, 02 अक्टूबर 2015 पर विशेष
पिछले साल 2 अक्टूबर को देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महात्मा गाँधी के स्वच्छ भारत के सपने को साकार करने का बीड़ा उठाया था। दरअसल महात्मा गाँधी पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने मंच से स्वच्छता का मुद्दा पहली बार उठाया था। स्वच्छता के मसले को उन्होंने पहली बार दक्षिण अफ्रीका में उस समय उठाया जब वहाँ डरबन में प्लेग के प्रकोप का डर पैदा हुआ।
वहाँ हिन्दुस्तानियों पर अक्सर यह आरोप जिसमें कुछ तथ्य था, लगाया जाता था कि वे बहुत गन्दे रहते हैं और अपने घर-बार कतई साफ नहीं रखते हैं। महात्मा गाँधी के अनुसार- ‘‘इसका इलाज करने का काम मैंने वहाँ अपने निवास काल में ही सोच लिया था। हिन्दुस्तानियों पर लगे इस आरोप को निःशेष करने के लिये आरम्भ में सुधार की शुरुआत वहाँ हिन्दुस्तानियों के मुखिया माने-जाने वाले लोगों के घरों में से हुई। बाद में घर-घर घूमने का सिलसिला शुरू हुआ। इसमें म्यूनिसपैलिटी के अधिकारियों की सहमति भी थी और उनका सहयोग भी मिला। हमारी सहायता मिलने से उनका काम हल्का हो गया। कुछ जगहों पर मेरा अपमान किया जाता तो कुछ जगह पर विनयपूर्वक उपेक्षा का परिचय दिया जाता। गन्दगी साफ करने के लिये कष्ट उठाना उन्हें बहुत अखरता था। तब पैसा खर्च करने की बात ही क्या। लोगों से कुछ भी काम कराना हो, तो धीरज रखना चाहिए। यह पाठ मैंने अच्छी तरह सीख लिया था। सुधार की गरज तो सुधारक की अपनी होती है। जिस समाज में वह सुधार करना चाहता है, उससे तो उसे विरोध, तिरस्कार और प्राणों के संकट की भी आशा करनी चाहिए। सुधारक जिसे सुधार मानता है, समाज उसे बिगाड़ क्यों न माने। बिगाड़ न भी माने तो उसके प्रति उदासीन क्यों न रहे। आखिरकार इस आन्दोलन का परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज में घर-बार साफ रखने के महत्त्व को स्वीकार कर लिया गया। वहाँ मैं कई बातें अनायास सीख रहा था। सत्य एक विशाल वृक्ष है। इसकी ज्यों-ज्यों सेवा की जाती है, त्यों-त्यों उसमें अनेक फल पैदा होते हैं। उनका अन्त नहीं होता।’’
उसके बाद उन्होंने भारत आने पर अपने सफाई के मुद्दे को अभियान में बदल दिया। ग़ौरतलब है कि देश में गाँधीजी ने गाँव की स्वच्छता के सम्बन्ध में सार्वजनिक रूप से पहला भाषण 14 फरवरी 1916 को मिशनरी सम्मेलन में दिया था। उसमें उन्होंने कहा था कि गुरुकुल के बच्चों के लिये स्वच्छता के नियमों के साथ ही उनका पालन करना भी प्रशिक्षण का अभिन्न हिस्सा होना चाहिए।
दरअसल बीते साल इस अभियान की शुरुआत में प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों की बड़ी फौज के साथ प्रख्यात अभिनेता महानायक अमिताभ बच्चन, सलमान खान, आामिर खान, रितिक रोशन, नागार्जुन, कपिल शर्मा आदि अनके सेलिब्रिटी, टेनिस स्टार सानिया मिर्जा, शूटर अंजलि भागवत, उद्योगपति अनिल अंबानी, उनकी पत्नी टीना अंबानी, मुकेश अंबानी, उनकी पत्नी नीता अंबानी सहित बड़ी तादाद में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के ख्यातनामा लोगों ने हिस्सा लिया।
देश के अखबारों में कई दिनों तक झाड़ू हाथ में लेकर सफाई करते राजनीतिज्ञों और इन महानुभावों के फोटो भी प्रकाशित हुए। मुम्बई में इस अभियान से डिब्बा वाले जुड़े। दिल्ली, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि प्रदेशों में ऑटो रिक्शा चालक भी जुड़े। बहुतेरे सेलेब्रिटीज इस मिशन के ब्रांड एंबेसेडर के रूप में शामिल हुए।
यही नहीं देश के अधिकारी भी इस दौड़ में किसी से पीछे नहीं रहे और वह यह दिखाने का भरसक प्रयास करते रहे कि प्रधानमंत्री के इस अभियान में वह बढ़-चढ़कर भागीदारी कर रहे हैं। कई राज्यों के स्कूलों के अध्यापक, सरकारी कर्मचारी और सफाई कर्मचारी भी इस अभियान के हिस्सा बने।
इस अभियान को सफल बनाने के लिये नीति आयोग के साथ राज्यों का एक उप समूह बनाया गया। इसका प्रमुख आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू को बनाया गया। इसमें कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, बिहार, महाराष्ट्र, मिजोरम, उत्तराखण्ड, सिक्किम, पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों को सदस्य के तौर पर शामिल किया गया। विश्व बैंक सहित नामी गिरामी कम्पनियाँ यथा भारती और टीसीएस आदि इस मिशन में आर्थिक सहयोग देने को आगे आईं।
अभियान की कामयाबी की खातिर पर्यावरण मंत्रालय कूड़ा फेंकने वालों पर शिकंजा कसने के लिये कानून लाने वाला है। यह कानून पर्यावरण अधिनियम में संशोधन कर शामिल किया जाएगा। यह काूनन खुलेआम और सार्वजनिक स्थानों पर कूड़ा-कचरा फेंकने वालों के खिलाफ होगा। इसके अलावा इलेक्ट्रॉनिक व प्लास्टिक कचरा फेंकना दंडनीय अपराध होगा।
कहने का मतलब यह है कि पिछली सरकारों में असफल रहे तीन स्वच्छता अभियानों यथा 1986 में शुरू केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम, 1999 में शुरू सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान और 2012 में शुरू निर्मल भारत अभियान से सबक लेते हुए मोदी सरकार ने इस अभियान की सफलता के लिये सबको जोड़ने की भरपूर कोशिश की है ताकि इस अभियान के जरिए न सिर्फ देश के जनमानस की मानसिकता बदले बल्कि पर्यावरण व लोगों की सेहत में भी सुधार हो सके। स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में कमी लाई जा सके, स्वच्छता के क्षेत्र में रोज़गार में वृद्धि हो और पर्यटन को बढ़ावा मिल सके।
दुख इस बात का है कि प्रधानमंत्री द्वारा जोर-शोर से शुरू किये गए स्वच्छता अभियान के एक साल बाद भी देश की तस्वीर में कोई खास बदलाव नहीं आया है। अभियान की सफलता को जाँचने की खातिर केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय द्वारा जो सर्वे कराया गया, उसने सरकार के सारे दावों की पोल खोलकर सामने ला दी है।
सर्वे से इस बात का खुलासा होता है कि साफ-सफाई के मोर्चे पर देश की तस्वीर में कोई खास बदलाव नहीं आया है। खुले में शौच करने, कूड़े के निस्तारण के मामले में और पीने के पानी की गुणवत्ता आदि के मामले में एक लाख की आबादी वाले कुल 476 शहरों की सूची में देश में कर्नाटक का मैसूर जिला सबसे साफ शहरों में पहले स्थान पर है जबकि सबसे गन्दे शहरों में मध्य प्रदेश का दमोह जिला अव्वल नम्बर पर है।
राज्यों की राजधानियों में सबसे स्वच्छ राजधानी का तमगा बंगलुरु को मिला है जबकि सबसे गन्दी पटना है। विडम्बना देखिए कि देश के दस शीर्ष शहरों में एक भी हिन्दी भाषी राज्यों से नहीं है। और-तो-और पहले 100 शहरों में उत्तर भारत के मात्र 12 शहर ही अपनी जगह बनाने में कामयाब हुए हैं। हम दावे कुछ भी करें सच तो यह है कि देश में 62.6 करोड़ के आसपास लोग खुले में शौच करने को मजबूर हैं। यह तादाद देश की आबादी की तकरीब 50 फीसदी है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनीसेफ भी इसकी पुष्टि कर चुके हैं। असलियत है कि देश में कुल 67.3 प्रतिशत ग्रामीण परिवार यानी तकरीब 11.3 करोड़ लोग शौचालय की सुविधा का लाभ नहीं उठा पाते हैं। यही नहीं देश के 10 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिये शौचालय तक उपलब्ध नहीं हैं।
जबकि सरकार ने निजी शौचालयों के निर्माण के लिये दी जाने वाली राशि को 10 हजार से बढ़ाकर 15 हजार कर दिया है, स्कूली शौचालयों के निर्माण के लिये दी जाने वाली राशि 35 हजार से बढ़ाकर 54 हजार कर दी है, आँगनवाड़ी शौचालयों के निर्माण के लिये सहायता राशि 8 से बढ़ाकर 20 हजार कर दी है और सामुदायिक शौचालयों के निर्माण के लिये दी जाने वाली राशि को बढ़ाकर 2 लाख से 6 लाख कर दिया गया है।
विडम्बना यह कि पिछले 10 सालों के दौरान बने 60 प्रतिशत शौचालयों का इस्तेमाल अभी भी नहीं हो पा रहा है। कुछ महीनों पहले की ही बात है देश की राजधानी कूड़े के ढेर में तब्दील हो गई थी और राजधानी के लोग कूड़े के ढेरों के बीच गुजरने-रहने को विवश थे। देश में आज भी कुछ नहीं बदला है।
साफ-सफाई के मोर्चे पर देश की तस्वीर में कोई खास बदलाव नहीं आया है। खुले में शौच करने, कूड़े के निस्तारण के मामले में और पीने के पानी की गुणवत्ता आदि के मामले में एक लाख की आबादी वाले कुल 476 शहरों की सूची में देश में कर्नाटक का मैसूर जिला सबसे साफ शहरों में पहले स्थान पर है जबकि सबसे गन्दे शहरों में मध्य प्रदेश का दमोह जिला अव्वल नम्बर पर है। राज्यों की राजधानियों में सबसे स्वच्छ राजधानी का तमगा बंगलुरु को मिला है जबकि सबसे गन्दी पटना है। विडम्बना देखिए कि देश के दस शीर्ष शहरों में एक भी हिन्दी भाषी राज्यों से नहीं है।
पिछले साल प्रधानमंत्री द्वारा सफाई अभियान की शुरुआत के कुछ दिन बाद ही स्थिति जस-की-तस थी। एक आध जगहें अपवाद हो सकती हैं। आज हालत यह है कि छोटे शहरों-कस्बों की बात छोड़िए, वहाँ की हालत तो बदतर है ही, महानगर, राज्यों व देश की राजधानी दिल्ली के अधिकांश हिस्से में आज भी जगह-जगह कूड़े के ढेर पड़े मिल जाएँगे। नाले-नालियों की सफाई कहीं-कहीं तो हफ्तों और कहीं महीनों नहीं होती। उनमें कीड़े बजबजाते रहते हैं। स्वच्छ पानी देशवासियों के लिये सपना है।प्रदूषित पानी जैसे उनकी नियति बन चुका है। दुख की बात यह है कि इसके लिये जिम्मेवार नगर परिषदें, नगर निगम और महानगर निगम मौन हैं। हालात गवाह हैं कि प्रदूषित पानी पीने से हजारों आज भी अनचाहे जानलेवा बीमारियों की चपेट में आकर मौत के मुॅंह में जाने को मजबूर हैं। दिल्ली के कुछ हिस्सों के लोग आज भी प्रदूषित पी रहे हैं।
आँकड़े इस बात के जीते-जागते सबूत हैं। उत्तर भारत इसमें शीर्ष पर है। जबकि दक्षिण भारत की स्थिति इससे उलट है। वहाँ शहरों की साफ-सफाई उत्तर भारत के शहरों के बनिस्बत बेहतर है। वहाँ शहरी विकास का ढाँचा सुनियोजित ढंग से रचा-बुना है। शौचालय, कूड़े का निस्तारण, सड़क और सार्वजनिक स्थानों की साफ-सफाई तथा पेयजल की गुणवत्ता के मामले में वहाँ के स्थानीय निकाय सजग हैं। यह सब उनकी सोच और मानसिकता के बदलाव से ही सम्भव हुआ है।
हमारे केन्द्रीय मंत्री वेंकैया नायडू स्वच्छ भारत मिशन की कामयाबी के लिये इसे जनान्दोलन बनाए जाने की अपील कर रहे हैं। उनके अनुसार यह हमारे लिये एक चुनौती है। पाँच साल में 11.11 करोड़ शौचालयों के निर्माण का लक्ष्य रखा गया है। 2019 तक 1.04 करोड़ परिवारों को शौचालय उपलब्ध करा दिये जाएँगे। उस हाल में जबकि अभी तक केवल 4 लाख शौचालय ही बन सके हैं।
सरकार की मानें तो 2022 तक खुले में शौच को खत्म कर दिया जाएगा। 2019 तक 4041 शहरों में ठोस कचरा प्रबन्धन की योजना पूरी हो जानी है। इसमें सबसे बड़ी चुनौती शौचालयों के लिये जगह की पहचान, अभियान के लिये जागरुकता फैलाना और प्रशासन की लापरवाही पर निगरानी रखना है।
मौजूदा हालात इसकी गवाही नहीं देते कि सरकार यह लक्ष्य निर्धारित समय में हासिल कर लेगी। इस बारे में प्रख्यात पर्यावरणविद् महेश चन्द्र मेहता कहते हैं कि यह एक अच्छा मिशन है। लेकिन यह केवल कागज पर न रह जाये। इसे प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण के खिलाफ कई फैसले दिये हैं। पिछली सरकार ने भी कई अभियान चलाए हैं लेकिन अब तक सफलता हाथ नहीं लगी। इस अभियान के प्रति जागरुकता, लोगों की मानसिकता और सोच में बदलाव की महती आवश्यकता है। इस हेतु बच्चों की किताबों में इसे लाया जाना बेहद जरूरी है। सिर्फ कानून और कुछ दिन की कवायदों से स्वच्छता का अभियान सफल हो पाएगा, इसमें सन्देह है। लगता है गाँधी का सपना सपना ही रहेगा।