खतरे में है टीकमगढ़ की तालाब संस्कृति: भाग 2

Submitted by admin on Fri, 04/16/2010 - 13:52
Author
पंकज चतुर्वेदी
वेब/संगठन

टीकमगढ़ जिले के 13 तालाब पंचायत और समाज कल्याण विभाग के आधीन है। इनमें से भिडोरा, शिवपुरा, जगतनग, मांची, बरया (तालाब) (वर्माताल) कोडिया तालाब से बिल्कुल सिंचाई नही होती है। शेष तालाबों की क्षमता कुल मिलाकर 40 एकड़ से भी कम है। एक मजेदार बात और कि जिले के गांवों में कोई दो दर्जन तालाब ऐसे भी हैं, जिनका रिकार्ड सरकरी बही में दर्ज ही नहीं हैं।

हालांकि हर साल विभिन्न विभाग इन तालाबों की मरम्मत गहरीकरण और सफाई के नाम पर भारी धन खर्च करते रहे है। लेकिन तालाबों की दिनों-दिन होती जर्जर स्थिति और इलाके के बांशिदे बताते हैं कि यह धन सिर्फ कागजों पर ही व्यय होता रहा है।

निवाड़ी तिगैला मुख्य राजकीय मार्ग के कृषकों ने बताया कि पंद्रह साल पहले सरकारी अफसर उन्हें घेर कर तालाब की सफाई के लिए ले गए थे। उन्हें इस काम का कोई पैसा ही नहीं दिया गया।

कहा गया था कि यह सब उन्ही किसानों के लिए हो रहा है, लेकिन जब किसानों ने इस तालाब का पानी सिंचाई के लिए मांगा तो उनसे 50 रू. प्रति एकड़ से किराया वसूला गया। उधर विकासखंड कार्यालय के रिकार्ड में तालाब सफाई की मजदूरी भुगतान के बाकायदा बिल वाउचर लगे हैं।

दो दशक पहले कन्नपुर तालाब के नवीनीकरण व वेस्टवियर निर्माण पर दो लाख 99 हजार रू. खर्च किए गये थे। निर्भयसागर तालाब के गहरीकरण पर तीन लाख खर्चा दिखाया गया है। पूरे ताल की फीडर केनाल निर्माण पर 4.79 लाख, फुटेरा तालाब के गहरीकरण पर 1.72 का खर्चा दिखाया गया। इस प्रकार 21 तालाबों की मरम्मत पर 21 लाख 27 हजार रू. फूंके गए। परंतु वहां गहरीकरण के नाम पर कुछ हुआ नही। जिन नहरों की मरम्मत की गई, वहां रिसन यथावत है।

जिले के जल संसाधान विभाग में सालाना लाखों का खर्च सिर्फ सर्वे पर होना दर्शाया जाता है। जिले के हर शहर, कस्बे, पुरवा गांवों में छितरे इन चंदेलकालीन जीवनदायी तालाबों के संरक्षण की दिशा में बीते 90 वर्षो के दौरान कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया। लगभग 80 तालाब तो मिट्टी धूल और नजदीकी पेडो़ की पत्तियां गिरने से पुर चुके हैं। इनमें से कुछ पर खेती हो रही है और कही-कही सीमेंट, कंकीट के जंगल उगा दिए गए है।

जिला मुख्यालय टीकमगढ़ शहर की कभी खूबसूरती का कारण रहे, आधा दर्जन तालाबों में से तीन तो अब चौरस मैदान में तब्दील हो गए हैं। इन पर अब कालोनियां बन गई हैं। शेष तीन में शहर की गंदी नालियां गिर रही हैं। और अब वे विभिन्न संक्रामक रोग फैलाने वाले कीटाणुओं की उत्पादन स्थली बन कर रह गए हैं।

दस साल पहले राज्‍य शासन ने पांच जून ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ पर ‘सरोवर हमारी धरोहर’ नामक योजना की घोषणा की थी। इसके तहत शहर के महेन्दª सागर तालाब का सौंदर्यीकरण किया जाना था। पर अभी तक उस योजना पर क्रियान्वयन नहीं हो पाया है। हां, इसमें पानी भराव का क्षेत्र साल हर साल सिकुड़ता जा रहा है।

जिले के एक अन्य कस्बे बलदेवगढ़ के तालाबों की मछलियां तो कलकत्ता के मछली बाजार में आवाज दे कर विशेष रूप से बिका करती थी। बलदेवगढ़ में विक्रम संवत 1185 से 1220 के बीच राज्य करने वाले चंदेली शासक मदनवर्मन ने वहां सात तालाब बनवाए थे ग्वालासागर, जुगल सागर, धर्म सागर, सौतेला, मुचया, गगनताल की विशालता वास्तव में सागर के समान हुआ करती थी।

पिछली सदी में इन तालाबों में ‘पंडरा’ नामक काई हो गई। जिससे पानी विषैला हो गया और कस्बे में पांडू, मलेरिया और हैजा का प्रकोप होने से बस्ती वीरान हो गई। तब ओरछा के अंतिम शासक बीरसिंह जू देव (द्वितीय) ने ‘धर्मसागर’ तालाब तुड़वा दिया था। उसके बाद बढ़ती आबादी ने इन्हीं तालाबों पर अपना कब्जा बढ़ाया। आज वहां सिर्फ तीन तालाब ग्वाल सागर, जुगल सागर ओर मुचया ताल रह गए हैं।

टीकमगढ़ जिले में इतने तालाब होने के बावजूद जलसंकट रहता है, जब कही से पानी की मांग होती हैं, तो सरकार वहां जमीन खोद कर ट्यूबवेल लगा रही है। जबकि वर्षो पूर्व भूवैज्ञानिक चेतावनी दे चुके थे कि इस ग्रेनाइट स्ट्रक्चर वाले क्षेत्र में भूगर्भ उत्खनन सफल नही है। इसके बावजूद रोपे जा रहे ट्यूबवेल यहां 40 फीसदी की दर से असफल हो रहे हैं। तालाब मिटने से जिले के 46 हजार से अधिक कुंओं का जलस्तर भी बुरी तरह नीचे गिर रहा है।

इंटरनेशनल क्राप्स रिसर्च इंस्टीटयूट फार द सेडिएरीडट्रापिक्स के विशेषज्ञ बोन एप्पन ओर सुब्बाराव का कहना है कि तालाबों से सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक और अधिक उत्पादक होता है। उनका सुझाव है कि पुराने तालाबों के संरक्षण और नए तालाब बनाने के लिए ‘भारतीय तालाब प्राधिकरण’ का गठन किया जाना चाहिए।

पूर्व कृषि आयुक्त बी. आर. भंबूला का मानना है कि जिन इलाकों में सालाना बारिश का औसत 750 से 1150 मिमि है, वहां नहरों की अपेक्षा तालाब से सिंचाई अधिक लाभप्रद होती है। टीकमगढ़ भी इसी प्रकार का क्षेत्र है।

तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नही है। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद, सालों साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ठ पदार्थो के कारण ही उपजी है। जो उम्दा दर्जे की खाद है। किसानों को इस खाद रूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपने पर वे सहर्ष राजी हो जाएंगे।

उल्लेखनीय है कि राजस्थान के झालावाड़ जिले में ‘‘खेतों मे पालिश करने’’ के नाम से यह प्रयोग अत्यधिक सफल व लोकप्रिय रहा है। इससे एक तो उनके खेतों को उर्वरक मिलेगा साथ ही साथ उनकी सिंचाई सुविधा भी बढ़ेगी। जरूरत है तो सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और अपनी पंरपरा तालाबों के संरक्षण की दिली भावना की।

14 फरवरी 94 को बुंदेलखंड के दौरे के दौरान प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने चंदेलकालीन तालाबों के संरक्षण हेतु विशेष योजना की घोषणा, आम सभाओं में की थी, पर अभी तक उस योजना का कार्यरूप कही उजाकर नही हो पाया है। इसकी जगह दिसंबर-96 से ‘राजीव गांधी जलग्रहण मिशन’ के सफेद हाथी की सौगात जरूर मिली।

आंकडों की बाजीगरी में उस्ताद रहे इसके अफसर साढ़े तीन करोड़ का खर्चा कर 15 मिनी और 38 माईक्रो वाटरशेड़ बनाने की बात करते हैं। यह बात दीगर है कि जिले में हजार साल पुराने ‘वाटरशेडों’ की जिंदा बनाए रखे के लिए एक छदाप भी नहीं खर्च किया गया। अन्ना हजारें के ‘रालेगांव प्रयोग’ की नकल पर जन भगीदारी से पानी पैदा करने की इस परियोजना में जनता तो क्या निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की भी भागीदारी नहीं रही।

टीकमगढ़ जिले की 20 फीसदी पानी के लिए पलायन कर चुकी हैं। राजीव गांधी मिशन की हकीकत दिवंगत राजीव गांधी के उस बयान की तर रही है कि ग्राम विकास का 85 फीसदी पैसा पाईप लाइन में ही उड़ जाता हैं।

टीकमगढ़ में कथित रूप से विकसित दिए गए वाटरशेडों का स्वीकृत क्षेत्रफल 35 हजार 397 हेक्टेयर निर्धारित था जबकि उपचारित क्षेत्रफल मात्र छह हजार, 170 हेक्टेयर रहा है। काश, वाटर शेड़ कार्यक्रम के तहत योजना स्थानीय स्तर पर तैयार की गई होती, यहां के पारंपरिक तालाबों को सहेजने के लिए स्थानीय लोगों को एकजुट दिया जाता।

टीकमगढ़ मध्यप्रदेश के उन जिलों में शीर्ष पर है जहां की 25 प्रतिशत आबादी गरमी आने से पहले ही पानी के संकट के चलते गांव-घर छोड़ कर दिल्ली-पंजाब मजदूरी के लिए चली जाती है। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी थे। मछली, कमलगट्टा, सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे।

शहरीकरण के चलते लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है। गांव या शहर के रूतबेदार लोग जमीन पर कब्जा करने के लिए बाकायदा तालाबों को सुखाते हैं, पहले इनके बांध फोड़े जाते हैं, फिर इनमें पानी की आवक के रास्तों को रोका जाता है – न भरेगा पानी, ना रह जाएगा तालाब। गांवों में तालाब से खाली हुई उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है तो शहरों में कालोनियां बनाने वाले भूमाफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं।

एक तरफ प्यास से बेहाल हो कर अपने घर-गांव छोड़ते लोगों की हकीकत है तो दूसरी ओर पानी का अकूत भंडार! यदि जिले के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो यहां के हर इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है। जरूरत इस बात की है कि आधुनिकता की आंधी के विपरीत दिशा में ‘‘अपनी जड़ों को लौटने’’ की इच्छा शक्ति विकसित करनी होगी।

एक तो यहां के तालाबों का पूरा सर्वेक्षण हो फिर उनको जीवित करने के लिए कौन से उपाय व कितने खर्चे की जरूरत होगी, इसका सही-सही आकलन हो। अलग-अलग महकमों के अंतर्गत आने वाले तालाबों को किसी एक महकमे (यदि इसके लिए अलग से तालाब विकास प्राधिकरण हो तो बेहतर होगा) के अंर्तगत कर दिया जाए। एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए, इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए।

यहां जानना जरूरी है कि अभी एक सदी पहले तक इन तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ठीमर समाज के लोग करते थे। वे तालाब को साफ रखते, उसकी नहर, बांध, जल आवक को सहेजते- एवज में तालाब की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता। तालाब यहां की संस्कृति सभ्यता का अभिन्न अंग हैं और इन्हें सरकारी बाबुओं के लाल बस्ते के बदौलत नहीं छोड़ा जा सकता।