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राधाकांत भारती की किताब 'मानसून पवन : भारतीय जलवायु का आधार'
जब मानसून का आगमन देर से होता है तब वर्षा की मात्रा अपेक्षाकृत रुक-रुक कर कम होती है। मानसून पवन के देर से पहुंचने पर आरंभ में वर्षा धीरे-धीरे होती है, फिर अचानक भारी वर्षा हो जाती है। कृषि फ़सलों पर प्रायः इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। किंतु भारतीय कृषि के लिए मानसून की इस मार को सहने के अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। देर से वर्षा होने के वजह से फसल पीछे हो जाती है, फिर अचानक अधिक मात्रा में वर्षा हो जाने पर उगी फ़सलों के खराब होने या बह कर खराब हो जाने का खतरा बना रहता है। जेठ-वैशाख की तेज धूप से धरती तवे-सी गर्म हो जाती है। गर्म हवा और अधिक तापमान से समस्त जीवधारी व्याकुल हो जाते हैं। किंतु इस कष्टदायक ताप में ही वर्षा की शीतल फुहार का रहस्य छिपा है। प्रकृति देवी की ऐसी विचित्र व्यवस्था है कि भूतल के अधिक गर्म होने पर वहां का वायुभार कम होने लगता है। फलस्वरूप उच्च भार वाले महासागरीय क्षेत्र में हवा का बहाव निम्न वायुभार वाले थल भाग की ओर होता है। हिंद महासागर की विशाल जल राशि के ऊपर से बहती हुई ये हवाएं यथेष्ट जलवाष्प ग्रहण कर मेघवाहिनी के रूप में भारतीय उपमहाद्वीप में आती हैं। प्रतिवर्ष मई-जून के महीने में मानसून पवन के सृजन तथा बहाव की यह घटना दुहराई जाती रही है।
अपने देश भारत में बरसात लाने वाली हवा की प्रतीक्षा हम कितनी आतुरता से करते हैं, यह बात जून-जुलाई में प्रकाशित मौसम संबंधी समाचारों से स्पष्ट हो जाता है। सभी समाचार पत्रों में मौसम के संबंध में जानकारी देने वाले समाचारों को प्रमुखता से छापा जाता है। भारत में मानसून के आगमन को अधिक महत्व दिए जाने का एक कारण यह भी है कि कृषि प्रधान देश में किसान खेती का कार्य वर्षा होने के साथ ही आरंभ करते हैं।
केवल कृषि कार्यों के लिए ही नहीं, सामूहिक यात्राओं, सैन्यबलों के आवागमन तथा यातायात सुविधाओं की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए भी मानसून की स्थिति का प्रबोधन (मॉनिटरिंग) किया जाता रहा है। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन के अलावा सुदूर संवेदन तथा आधुनिक कंप्यूटर प्रणाली का उपयोग भी अब इस कार्य के लिए किया जाने लगा है।
भूभौतिक विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान प्रो. हेली ने दीर्घ विश्लेषण के बाद यह निर्णय दिया कि मानसून पवन के सृजन का मुख्य कारण स्थल और सागर के बीच तापांतर का होना है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि उत्तरी गोलार्ध के उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र में मई और जून के महीनों में अधिक गर्मी पड़ती है। इस वजह से एशिया का भूभाग, विशेषकर इसके मध्य का पठारी हिस्सा अधिक तप्त हो जाता है। अधिक ताप से वहां का वातावरण प्रभावित होता है और स्थल भाग की वायुपट्टियों में परिवर्तन आने लगता है। किंतु इसके विपरीत दक्षिणी गोलार्ध तक फैली हुई हिंद महासागर की विशाल जल राशि का ताप भूखंड के ताप से तुलना में काफी कम रहता है। जल और थल के तापों के इस अंतर से क्रमशः दक्षिणी हिंद महासागर में उच्चदाब तथा एशिया महाद्वीप के मध्य भाग में निम्न दाब की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। फलस्वरूप दक्षिण के उच्च दाब वाले सागरीय क्षेत्र से हवा का तेज बहाव एशिया के मध्य में स्थित निम्न दाब की ओर हो जाता है। इस तरह से मानसून पवन का बहना आरंभ हो जाता है। वायु प्रवाह हिंदमहासागर के सुदूर दक्षिणी भाग (ऑस्ट्रेलिया और मालागासी के बीच का इलाक़ा) से उत्तर की दिशा में प्रभावित होने लगता है। एशिया के मध्य में स्थित निम्न दाब के क्षेत्र में पहुंचने के लिए ये तेज हवाएं विषुवत रेखा को पार करती हैं। यहां पृथ्वी के घूमने की गति के कारण इन हवाओं के बहने की दिशा में कुछ परिवर्तन आ जाता है।
सीधी उत्तर की ओर बहने वाली ये हवाएं घूमती पृथ्वी की दैनिक गति के कारण मुड़कर उत्तर-पूर्व की कोणात्मक दिशा में बहने लगती हैं। इस प्रकार मानसून पवन का वेगवान प्रवाह सीधा अरब देशों की ओर न होकर भारतीय उपमहाद्वीप की ओर हो जाता है।
सागर के अगाध जल पर बहुत दूर तक बहने के कारण ये हवाएं जलपूरित होती हैं और बादलों की विशाल राशि लेकर प्रायद्वीपीय भारत और म्यांमार (बर्मा) के पश्चिमी तट से एशिया के विशाल भूभाग में प्रवेश करती हैं, हालांकि विषुवत रेखा को पार करते समय इनका जल कुछ कम हो जाता है। किंतु सागर से ये हवाएं पुनः अधिक जल प्राप्त कर लेती हैं। मानसून हवाएं भारी मात्रा में भाप के रूप में पानी लेकर तप्त भूभाग पर फैले नीले आसमान को अपनी बादलों की विशाल सेना से भर देती है।
ऊष्णगतिकी (थर्मोडाइनैमिक्स) के सिद्धांतों के अनुसार गर्म भूमि के ऊपर उष्म हवा की तह के संसर्ग में आने पर ताप की विषमता उत्पन्न होती है। इस कारण मेघपूर्ण हवाओं में हलचल होने लगती है। फलस्वरूप उनमें चक्रवातीय विक्षोभ (साइक्लोनिक डिस्टरबैन्स) पैदा हो जाते हैं। इससे तेज झंझावात, गर्जन तथा बिजली की चमक के साथ मौसम की वर्षा की पहली बूंद प्यासी धरती पर गिरती है। प्रायः मानसून के आगमन से पूर्व स्थानीय कारणों से वर्षा की शीतल फुहार आती है, जिसे पूर्व मानसून (प्री-मानसून) वर्षा कहते हैं। इस प्रकार भारत भूमि में बरसात की शुरुआत होती है।
महासागर के आंदोलित वक्षस्थल से ऊपर आकाश में उठकर तप्त धरती पर बरसने वाला मानसून तेज गति और गर्जन के साथ ही अपनी मतवाली चाल के लिए भी मशहूर है। उसके आगमन का समय और इससे विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली वर्षा की मात्रा का 70 प्रतिशत से अधिक दक्षिण-पश्चिम मानसून से प्राप्त होता है। परंतु इस दक्षिण-पश्चिम मानसून का प्रभाव लगभग 100 दिनों तक पूरे जोर-शोर से भारतीय उपमहाद्वीप में रहता है। ऐसा अनुमान है कि पश्चिमी तट के निकट (पश्चिमी घाट क्षेत्र) महाबलेश्वर में 500 घंटे, बेंगलूर में 400, मुंबई में 300 तथा तिरुवंतपुरम में मात्र 110 घंटे की वर्षा की मात्रा रिकार्ड की गई है। एक ही क्षेत्र के विभिन्न स्थानों में एक ही साल में ऐसी भिन्नता मानसूनी वर्षा की असमानता का उदाहरण है। यही नहीं, दूसरे वर्ष इस मात्रा में पुनः अंतर आने की पूरी संभावना बनी रहती है। फिर भी, सामान्यतः इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि दक्षिण-पश्चिम मानसून से भारत के पश्चिमी तट से उत्तर में हिमालयी इलाके तक लगभग 100 दिनों तक की अवधि में बरसात का मौसम कायम रहता है और थोड़ी-थोड़ी वर्षा बराबर होती रहती है, जिससे कृषि क्षेत्रों में खेतीबाड़ी का काम चलता रहता है।
जब मानसून का आगमन देर से होता है तब वर्षा की मात्रा अपेक्षाकृत रुक-रुक कर कम होती है। मानसून पवन के देर से पहुंचने पर आरंभ में वर्षा धीरे-धीरे होती है, फिर अचानक भारी वर्षा हो जाती है। कृषि फ़सलों पर प्रायः इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। किंतु भारतीय कृषि के लिए मानसून की इस मार को सहने के अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। देर से वर्षा होने के वजह से फसल पीछे हो जाती है, फिर अचानक अधिक मात्रा में वर्षा हो जाने पर उगी फ़सलों के खराब होने या बह कर खराब हो जाने का खतरा बना रहता है। विशेषकर धान की फसल के लिए अतिवृष्टि या अनावृष्टि का मानसूनी खेल हानिकारक साबित होता है। ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने धान के पौधों की नई किस्में तैयार की हैं। बौनी किस्म की इन फ़सलों में सूखे से उत्पन्न कठिनाइयों का सामना करने की ताकत रहती है। साथ ही बाढ़ के तेज बहाव में भी बर्बाद होने से बच जाती है। सामान्यतः जुलाई-सितंबर का महीना मानसून के लिए सबसे अधिक महत्व का समय है। इन दिनों मानसून भारतीय उपमहाद्वीप पर पूर्ण रूप से छाया रहता है। दक्षिण वृष्टि छाया के क्षेत्र तथा पश्चिम के मरुस्थल को छोड़कर संपूर्ण भारत में मानसून की बरसात बनी रहती है।
मानसून की सबसे तेजगति कभी जुलाई तो कभी अगस्त में हुआ करती है। इसके बाद कुछ दिनों के लिए एक विश्रांति काल आता है, जो प्रायःदस से बीस दिनों का होता है। इसका मुख्य कारण विषुवत रेखीय पट्टी में होने वाले वायविक परिवर्तन है। इस व्यापारिक पवन (ट्रेड विंड) का प्रवाह-पथ खिसकता हुआ पश्चिम की ओर चला जाता है जिससे दक्षिण-पश्चिम मानसून को यथेष्ट गति नहीं मिल पाती है और यह शिथिल हो जाता है। तभी बंगाल की खाड़ी में (या अरब सागर में भी) चक्रवात (साइक्लोन) का सृजन होने लगता है। ये चक्रवात तेज गति से सागरीय भाग को पार कर पूर्वी तट से अथवा पश्चिम में गुजरात के रास्ते से भारत में प्रवेश करते हैं। बंगाल की खाड़ी से आने वाले चक्रवातीय तूफानों की शाखा गंगा के विस्तृत मैदान की ओर जाती है। दूसरी शाखा बांग्लादेश से होती हुई अरुणाचल और नागालौंड की ओर जाकर भारी वर्षा करती है।
भारत के पश्चिमी तट के इलाके में अगस्त के बाद से ही वर्षा कम होने लगती है। सितंबर के बाद मध्य और उत्तरी भारत के इलाकों में वर्षा की मात्रा क्षीण होने लगती है। इस समय तक एशिया महाद्वीप के मध्य स्थित निम्न दाब का केंद्र समाप्त हो जाता है और फिर उच्च दाब की स्थिति आने लगती है। इस प्रकार अक्टूबर तक उत्तर भारत में वर्षा का मौसम समाप्त हो जाता है। पीछे की ओर हटते हुए इस मानसून से उत्तरी-पूर्वी भारत के तटीय क्षेत्रों में पुनः वर्षा का आरंभ हो जाता है। मानसून पवन की इस शाखा को उत्तरी-पूर्वी मानसून कहते हैं; जो बंगाल की खाड़ी के तटों पर और दक्षिण भारत को वर्षाजल से सराबोर करता रहता है। यहां अक्टूबर से लेकर नवंबर तक भारी बरसात होती है।
अक्टूबर के अंत तक दक्षिण-एशिया मानसून भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी बरसाती लीला दिखाकर विदाई के लिए तैयार हो जाता है। वसुंधरा जलवर्षा प्राप्त कर तृप्त हो चुकी होती है। मैदानों में दूर-दूर तक फैले खेतों में बोए गए बीजों से उगी फसलें लहलहाने लगती है। तरल-तलैया और नदियां जल से पूर्ण हो छलकने लगती हैं। पर्वत श्रृंखलाएं और घाटियां वनस्पति की हरी चादर लपेट लेती हैं। मेघ रहित नीले आसमान में उदित सूर्य की सुनहरी किरणें वर्षा जल से धुली धरती के सस्य श्यामल कलेवर पर खेलने लगती है। इस प्रकार नैसर्गिक उल्लास और उमंग से पुरिपूर्ण यह धरती वसंतागमन के स्वागत के लिए तैयार होकर प्रतीक्षा करने लगती है।
अपने देश भारत में बरसात लाने वाली हवा की प्रतीक्षा हम कितनी आतुरता से करते हैं, यह बात जून-जुलाई में प्रकाशित मौसम संबंधी समाचारों से स्पष्ट हो जाता है। सभी समाचार पत्रों में मौसम के संबंध में जानकारी देने वाले समाचारों को प्रमुखता से छापा जाता है। भारत में मानसून के आगमन को अधिक महत्व दिए जाने का एक कारण यह भी है कि कृषि प्रधान देश में किसान खेती का कार्य वर्षा होने के साथ ही आरंभ करते हैं।
केवल कृषि कार्यों के लिए ही नहीं, सामूहिक यात्राओं, सैन्यबलों के आवागमन तथा यातायात सुविधाओं की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए भी मानसून की स्थिति का प्रबोधन (मॉनिटरिंग) किया जाता रहा है। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन के अलावा सुदूर संवेदन तथा आधुनिक कंप्यूटर प्रणाली का उपयोग भी अब इस कार्य के लिए किया जाने लगा है।
भूभौतिक विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वान प्रो. हेली ने दीर्घ विश्लेषण के बाद यह निर्णय दिया कि मानसून पवन के सृजन का मुख्य कारण स्थल और सागर के बीच तापांतर का होना है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि उत्तरी गोलार्ध के उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र में मई और जून के महीनों में अधिक गर्मी पड़ती है। इस वजह से एशिया का भूभाग, विशेषकर इसके मध्य का पठारी हिस्सा अधिक तप्त हो जाता है। अधिक ताप से वहां का वातावरण प्रभावित होता है और स्थल भाग की वायुपट्टियों में परिवर्तन आने लगता है। किंतु इसके विपरीत दक्षिणी गोलार्ध तक फैली हुई हिंद महासागर की विशाल जल राशि का ताप भूखंड के ताप से तुलना में काफी कम रहता है। जल और थल के तापों के इस अंतर से क्रमशः दक्षिणी हिंद महासागर में उच्चदाब तथा एशिया महाद्वीप के मध्य भाग में निम्न दाब की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। फलस्वरूप दक्षिण के उच्च दाब वाले सागरीय क्षेत्र से हवा का तेज बहाव एशिया के मध्य में स्थित निम्न दाब की ओर हो जाता है। इस तरह से मानसून पवन का बहना आरंभ हो जाता है। वायु प्रवाह हिंदमहासागर के सुदूर दक्षिणी भाग (ऑस्ट्रेलिया और मालागासी के बीच का इलाक़ा) से उत्तर की दिशा में प्रभावित होने लगता है। एशिया के मध्य में स्थित निम्न दाब के क्षेत्र में पहुंचने के लिए ये तेज हवाएं विषुवत रेखा को पार करती हैं। यहां पृथ्वी के घूमने की गति के कारण इन हवाओं के बहने की दिशा में कुछ परिवर्तन आ जाता है।
सीधी उत्तर की ओर बहने वाली ये हवाएं घूमती पृथ्वी की दैनिक गति के कारण मुड़कर उत्तर-पूर्व की कोणात्मक दिशा में बहने लगती हैं। इस प्रकार मानसून पवन का वेगवान प्रवाह सीधा अरब देशों की ओर न होकर भारतीय उपमहाद्वीप की ओर हो जाता है।
विशाल मेघवाहिनी
सागर के अगाध जल पर बहुत दूर तक बहने के कारण ये हवाएं जलपूरित होती हैं और बादलों की विशाल राशि लेकर प्रायद्वीपीय भारत और म्यांमार (बर्मा) के पश्चिमी तट से एशिया के विशाल भूभाग में प्रवेश करती हैं, हालांकि विषुवत रेखा को पार करते समय इनका जल कुछ कम हो जाता है। किंतु सागर से ये हवाएं पुनः अधिक जल प्राप्त कर लेती हैं। मानसून हवाएं भारी मात्रा में भाप के रूप में पानी लेकर तप्त भूभाग पर फैले नीले आसमान को अपनी बादलों की विशाल सेना से भर देती है।
ऊष्णगतिकी (थर्मोडाइनैमिक्स) के सिद्धांतों के अनुसार गर्म भूमि के ऊपर उष्म हवा की तह के संसर्ग में आने पर ताप की विषमता उत्पन्न होती है। इस कारण मेघपूर्ण हवाओं में हलचल होने लगती है। फलस्वरूप उनमें चक्रवातीय विक्षोभ (साइक्लोनिक डिस्टरबैन्स) पैदा हो जाते हैं। इससे तेज झंझावात, गर्जन तथा बिजली की चमक के साथ मौसम की वर्षा की पहली बूंद प्यासी धरती पर गिरती है। प्रायः मानसून के आगमन से पूर्व स्थानीय कारणों से वर्षा की शीतल फुहार आती है, जिसे पूर्व मानसून (प्री-मानसून) वर्षा कहते हैं। इस प्रकार भारत भूमि में बरसात की शुरुआत होती है।
अनिश्चित स्थिति
महासागर के आंदोलित वक्षस्थल से ऊपर आकाश में उठकर तप्त धरती पर बरसने वाला मानसून तेज गति और गर्जन के साथ ही अपनी मतवाली चाल के लिए भी मशहूर है। उसके आगमन का समय और इससे विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली वर्षा की मात्रा का 70 प्रतिशत से अधिक दक्षिण-पश्चिम मानसून से प्राप्त होता है। परंतु इस दक्षिण-पश्चिम मानसून का प्रभाव लगभग 100 दिनों तक पूरे जोर-शोर से भारतीय उपमहाद्वीप में रहता है। ऐसा अनुमान है कि पश्चिमी तट के निकट (पश्चिमी घाट क्षेत्र) महाबलेश्वर में 500 घंटे, बेंगलूर में 400, मुंबई में 300 तथा तिरुवंतपुरम में मात्र 110 घंटे की वर्षा की मात्रा रिकार्ड की गई है। एक ही क्षेत्र के विभिन्न स्थानों में एक ही साल में ऐसी भिन्नता मानसूनी वर्षा की असमानता का उदाहरण है। यही नहीं, दूसरे वर्ष इस मात्रा में पुनः अंतर आने की पूरी संभावना बनी रहती है। फिर भी, सामान्यतः इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि दक्षिण-पश्चिम मानसून से भारत के पश्चिमी तट से उत्तर में हिमालयी इलाके तक लगभग 100 दिनों तक की अवधि में बरसात का मौसम कायम रहता है और थोड़ी-थोड़ी वर्षा बराबर होती रहती है, जिससे कृषि क्षेत्रों में खेतीबाड़ी का काम चलता रहता है।
आगमन का विलंब
जब मानसून का आगमन देर से होता है तब वर्षा की मात्रा अपेक्षाकृत रुक-रुक कर कम होती है। मानसून पवन के देर से पहुंचने पर आरंभ में वर्षा धीरे-धीरे होती है, फिर अचानक भारी वर्षा हो जाती है। कृषि फ़सलों पर प्रायः इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। किंतु भारतीय कृषि के लिए मानसून की इस मार को सहने के अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। देर से वर्षा होने के वजह से फसल पीछे हो जाती है, फिर अचानक अधिक मात्रा में वर्षा हो जाने पर उगी फ़सलों के खराब होने या बह कर खराब हो जाने का खतरा बना रहता है। विशेषकर धान की फसल के लिए अतिवृष्टि या अनावृष्टि का मानसूनी खेल हानिकारक साबित होता है। ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने धान के पौधों की नई किस्में तैयार की हैं। बौनी किस्म की इन फ़सलों में सूखे से उत्पन्न कठिनाइयों का सामना करने की ताकत रहती है। साथ ही बाढ़ के तेज बहाव में भी बर्बाद होने से बच जाती है। सामान्यतः जुलाई-सितंबर का महीना मानसून के लिए सबसे अधिक महत्व का समय है। इन दिनों मानसून भारतीय उपमहाद्वीप पर पूर्ण रूप से छाया रहता है। दक्षिण वृष्टि छाया के क्षेत्र तथा पश्चिम के मरुस्थल को छोड़कर संपूर्ण भारत में मानसून की बरसात बनी रहती है।
विश्रांति और तीव्रता
मानसून की सबसे तेजगति कभी जुलाई तो कभी अगस्त में हुआ करती है। इसके बाद कुछ दिनों के लिए एक विश्रांति काल आता है, जो प्रायःदस से बीस दिनों का होता है। इसका मुख्य कारण विषुवत रेखीय पट्टी में होने वाले वायविक परिवर्तन है। इस व्यापारिक पवन (ट्रेड विंड) का प्रवाह-पथ खिसकता हुआ पश्चिम की ओर चला जाता है जिससे दक्षिण-पश्चिम मानसून को यथेष्ट गति नहीं मिल पाती है और यह शिथिल हो जाता है। तभी बंगाल की खाड़ी में (या अरब सागर में भी) चक्रवात (साइक्लोन) का सृजन होने लगता है। ये चक्रवात तेज गति से सागरीय भाग को पार कर पूर्वी तट से अथवा पश्चिम में गुजरात के रास्ते से भारत में प्रवेश करते हैं। बंगाल की खाड़ी से आने वाले चक्रवातीय तूफानों की शाखा गंगा के विस्तृत मैदान की ओर जाती है। दूसरी शाखा बांग्लादेश से होती हुई अरुणाचल और नागालौंड की ओर जाकर भारी वर्षा करती है।
बरसात का अवसान
भारत के पश्चिमी तट के इलाके में अगस्त के बाद से ही वर्षा कम होने लगती है। सितंबर के बाद मध्य और उत्तरी भारत के इलाकों में वर्षा की मात्रा क्षीण होने लगती है। इस समय तक एशिया महाद्वीप के मध्य स्थित निम्न दाब का केंद्र समाप्त हो जाता है और फिर उच्च दाब की स्थिति आने लगती है। इस प्रकार अक्टूबर तक उत्तर भारत में वर्षा का मौसम समाप्त हो जाता है। पीछे की ओर हटते हुए इस मानसून से उत्तरी-पूर्वी भारत के तटीय क्षेत्रों में पुनः वर्षा का आरंभ हो जाता है। मानसून पवन की इस शाखा को उत्तरी-पूर्वी मानसून कहते हैं; जो बंगाल की खाड़ी के तटों पर और दक्षिण भारत को वर्षाजल से सराबोर करता रहता है। यहां अक्टूबर से लेकर नवंबर तक भारी बरसात होती है।
अक्टूबर के अंत तक दक्षिण-एशिया मानसून भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी बरसाती लीला दिखाकर विदाई के लिए तैयार हो जाता है। वसुंधरा जलवर्षा प्राप्त कर तृप्त हो चुकी होती है। मैदानों में दूर-दूर तक फैले खेतों में बोए गए बीजों से उगी फसलें लहलहाने लगती है। तरल-तलैया और नदियां जल से पूर्ण हो छलकने लगती हैं। पर्वत श्रृंखलाएं और घाटियां वनस्पति की हरी चादर लपेट लेती हैं। मेघ रहित नीले आसमान में उदित सूर्य की सुनहरी किरणें वर्षा जल से धुली धरती के सस्य श्यामल कलेवर पर खेलने लगती है। इस प्रकार नैसर्गिक उल्लास और उमंग से पुरिपूर्ण यह धरती वसंतागमन के स्वागत के लिए तैयार होकर प्रतीक्षा करने लगती है।