मानसून की देन - बाढ़ और सूखा

Submitted by admin on Mon, 10/07/2013 - 10:34
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राधाकांत भारती की किताब 'मानसून पवन : भारतीय जलवायु का आधार'
सामान्यतः बाढ़ तब आती है जब नदी, झील अथवा तालाब का जल तट से ऊपर होकर बहने लगता है। यह अधिक वर्षा अथवा उपयुक्त जल निकास की व्यवस्था के अभाव के कारण होता है। किनारों के ऊपर से नदी जल का बहाव नदी-तल के भर जाने या प्रवाह में बाधा के कारण भी होता है। नदी, सरिता या जलधाराओं के मिलन-स्थल (संगम) पर भी बाढ़ की शंका बनी रहती है। गंगा तथा गोदावरी नदियों के बहाव क्षेत्र में ऐसा भी देखने में आता है कि मुख्य नदी का जलस्तर ऊंचा हो जाता है और सहायक नदियों से होकर आसपास में फैलकर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करता है। हमारे देश में बरसात के मौसम में प्रतिवर्ष कहीं न कहीं बाढ़ आती रहती है। अगर बाढ़ नहीं आई तो सूखा चला आता है। इससे भी अधिक विडंबना पूर्ण स्थिति यह है कि एक ही इलाके को एक ही साल में बारी-बारी से सूखे तथा बाढ़ दोनों का दारुण दुःख भुगतना पड़ता है। यह मानसूनी बरसात की विशेषता है कि कहीं बाढ़ और कहीं सूखे का चक्र चलता रहता है।

अतिशयताओं के देश भारत में मौसम की सामान्य स्थितियों में भी काफी भिन्नताएं पाई जाती हैं। उदाहरण के तौर पर पूर्वोत्तर भारत में स्थित चेरापूँजी में सालाना वर्षा का औसत 11 (ग्यारह) मीटर के करीब है, जबकि पश्चिमोत्तर क्षेत्र में स्थित जैसलमेर में जलवर्षा का औसत केवल 0.2 मीटर का है। लेकिन इस औसत में भी प्रति वर्ष अंतर आता रहता है, जिससे मौसम की असामान्य स्थिति उत्पन्न होती है। बाढ़ और सूखा दोनों मौसम की असामान्य स्थितियाँ हैं, जिनके कारणों पर अब तक वैज्ञानिक नियंत्रण कर पाने में समर्थ नहीं हो सके हैं। फिर भी प्रयास जारी है कि इनके प्रभाव को कम करके जन-धन की हानि को रोका जा सके।

बाढ़ की स्थिति


मौसम वैज्ञानिकों ने बाढ़ की स्थिति को इस प्रकार से परिभाषित किया है -

किसी नदी में जलप्रवाह का अपेक्षाकृत ऊंचा स्तर अथवा वैसी स्थिति जो सामान्य से अत्यधिक हो जिससे कि निचली भूमि जलमग्न हो जाए। वह जलराशि जो तेज गति से उफनति हुई उस भूमि पर फैल जाए जहां सामान्यतया पानी की धारा नहीं पहुँचती थी। यही बाढ़ की स्थिति है।

प्रायः यह देखा जाता है कि वर्षा अथवा नदी जल के बिखराव के कारण भी बाढ़ आ जाती है, जबकि जल उसी गति से बाहर नहीं निकल पाता, जितनी गति से उसके निकलने की आवश्यकता होती है। जल निकास नालियों की अपर्याप्त क्षमता के कारण तटबंधों के पीछे जल का जमाव होना भी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करता है।

उल्लेखनीय है कि किसी नदी के जलग्रहण क्षेत्र या आवाह क्षेत्र में अचानक अधिक वर्षा के कारण भी बाढ़ आती है। वर्षा की मात्रा तथा जलग्रहण क्षेत्र की विशेषताओं के ऊपर ही बाढ़ की प्रकृति तथा आकार निर्भर करता है।

बाढ़ के कारण


सामान्यतः बाढ़ तब आती है जब नदी, झील अथवा तालाब का जल तट से ऊपर होकर बहने लगता है। यह अधिक वर्षा अथवा उपयुक्त जल निकास की व्यवस्था के अभाव के कारण होता है। किनारों के ऊपर से नदी जल का बहाव नदी-तल के भर जाने या प्रवाह में बाधा के कारण भी होता है। नदी, सरिता या जलधाराओं के मिलन-स्थल (संगम) पर भी बाढ़ की शंका बनी रहती है। गंगा तथा गोदावरी नदियों के बहाव क्षेत्र में ऐसा भी देखने में आता है कि मुख्य नदी का जलस्तर ऊंचा हो जाता है और सहायक नदियों से होकर आसपास में फैलकर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न करता है।

पर्वतों से उतरकर मैदानी भागों में आने वाली नदियों में बरसात के समय बाढ़ की संभावनाएं अधिक रहती है। पर्वतों पर होने वाली अधिक जलवर्षा के प्रवाह को रुकने के लिए पेड़-पौधे या मिट्टी नहीं है तो वह अबाध गति से ढलानों पर बहती हुई नीचे मैदान में आकर बाढ़ लाती है। पहाड़ी ढालों पर वनों के रहने से पत्तियों के आच्छादन के कारण वर्षा-जल का बहाव तेज नहीं होता है और मिट्टी का कटाव भी कम होता है। किंतु वनों के काटे जाने से जलवर्षा के कारण पहाड़ी ढालों पर प्रवाह की गति तेज होती है मिट्टी का कटाव बढ़ता है, जिसके फलस्वरूप नदियों में बाढ़ आने लगती है।

भारत के बाढ़ वाले मैदानी भागों में भूमि के उचित उपयोग पर नियंत्रण की कमी और असंतुलित निर्माण कार्यों की वजह से जलप्रहाव बाधित होता है और बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है।

बाढ़ की चेतावनी


संभावित लक्षणों को परख कर यदि बाढ़ के आने की पूर्व सूचना समय रहते दिए जाने की समुचित व्यवस्था हो तो जन-धन के नुकसान से बचाव हो सकता है। यह संतोष की बात है कि मानसूनी बरसात के समय केंद्रीय जल आयोग के द्वारा भारत के विभिन्न बाढ़ क्षेत्रों में पूर्व-चेतावनी देने के लिए वैज्ञानिक प्रबंध किए गए हैं।

बाढ़ की चेतावनी देने के लिए विभिन्न नदी बेसिनों में जल प्रवाहमापी यंत्रों को लगाया गया है, साथ ही बेतार यंत्रों द्वारा स्थिति की नियमित सूचनाएं क्षेत्रीय तथा केंद्रीय मुख्यालयों को भेजी जाती है। इसके अलावा उत्तर भारत तथा उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों के बाढ़ वाले इलाकों के लिए अलग से गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग नामक संगठन की स्थापना की गई है, जो बाढ़ संबंधी पूर्वानुमान देने का कार्य वैज्ञानिक ढंग से करता है।

सूखा या अनावृष्टि


भारी वर्षा से आई भयंकर बाढ़ के लिए नुकसान का पैगाम बनकर आती है। लेकिन अनावृष्टि से उत्पन्न सूखा और उसका प्रभाव अधिक दुःखदाई होता है। सूखे का अर्थ है - संभावित वर्षा से कम वर्षा, सामान्य वर्षा से 75 प्रतिशत या 50 प्रतिशत से कम वर्षा की स्थिति को अनावृष्टि कहा जाता है। अनावृष्टि की यह परिभाषा सटीक नहीं होते हुए भी पर्याप्त है। लेकिन यह भी ध्यान रखने की बात है कि फ़सलों के लिए वर्षा की कुल मात्रा के अलावा यह भी देखने की बात है कि वर्षा की कितनी मात्रा कितने अंतराल के बाद होती है। जरूरी नहीं कि वर्षा में मामूली-सी कमी या बढ़ोतरी का कृषि उत्पादकता से सीधा संबंध हो। इसलिए वांछनीय होगा कि संपूर्ण मौसम के दौरान होने वाली वर्षा के ऐसे सूचकांक तैयार किए जाएं जो कृषि उत्पादकता से जुड़े हों तथा जिनसे मिट्टी की नमी का भी पता चल सके।

अब हमारे वैज्ञानिकों ने उन क्षेत्रों की पहचान कर ली है, जहां प्रायः हर साल सूखे की स्थिति के आने की संभावना बनी रहती है। सामान्य रूप से ये ऐसे क्षेत्र हैं, जहां औसत वर्षा बहुत कम होती है। करीब 20 सेमी. औसत वर्षा वाले क्षेत्र में 15 सेमी. की कमी या वृद्धि से गंभीर बाढ़ या भयंकर सूखे की स्थिति पैदा हो सकती है। आश्चर्य की बात है कि अचानक बाढ़ आने की अधिक संभावना रेगिस्तानों में होती है। कम वर्षा के कारण मरुस्थल में जल-निकासी की अच्छी स्थायी व्यवस्था नहीं होती है। वहां काफी संख्या में प्राकृतिक नदी नाले नहीं होते हैं। इसलिए बरसात में अचानक हुई तेज वर्षा से बाढ़ की स्थिति पैदा होती है। दूसरी तरफ वर्षा में 15 सेमी. की कमी सूखे का कारण बन जाती है।

इससे यह स्पष्ट है कि सूखा-क्षेत्रों में जल की समस्या अधिक विकट है। यहां जल की उपलब्धि कम है तो उसे संजोने की कोशिश की जा रही है। वहीं किसी साल अचानक वर्षा होने से भयंकर बाढ़ आने का भय भी बना रहता है। यहां के निवासियों ने बरसों के अभ्यास से ऐसे तरीके निकाल रखे हैं और रहन-सहन की ऐसी आदत विकसित कर रखी हैं। जिससे उन्हें परिस्थिति की आवश्यकताओं के अनुरूप सूखे की स्थिति से अच्छे ढंग से निबटने की क्षमता पैदा हो गई है। वे उपयोग में आने वाले अधिकांश जल को जमा करने तथा पानी की बर्बादी को रोकने के उपायों की अच्छी जानकारी रखते हैं। इन क्षेत्रों में जल के उचित और अधिकतम उपयोग के लिए प्रभावी अनुसंधान कार्य किए गए हैं।

इस दिशा में एक व्यावहारिक और प्रभावशाली तरीका यह है कि जलबहुल क्षेत्रों से पानी को उन क्षेत्रों में लाना जहां उसकी आवश्यकता है। उदाहरणार्थ हिमालयी इलाके में प्राप्त होने वाले अधिक तथा फालतू जल को सदुपयोग हेतु राजस्थान की थार मरुभूमि तक पहुंचाने का सफल प्रयास किया गया है। पश्चिमोत्तर भारत में निर्मित इंदिरा गांधी नहर प्रणाली का निर्माण आधुनिक युग में एक सराहनीय प्रयास है। संभव है कि वर्तमान परिस्थितियों में यह प्रणाली सर्वाधिक अनुकूल साबित नहीं हो, किंतु वैज्ञानिक दृष्टि से हमारी मौलिक नीति उचित प्रतीत होती है। मरुस्थलीय क्षेत्रों में सिंचाई तथा जल के अन्य उपयोग से अनेक प्रकार की नई समस्याएं उठ खड़ी होने लगी हैं। जल निकास के लिए पर्याप्त प्राकृतिक साधनों के अभाव में सिंचन जल बहुत अधिक परिमाण में ज़मीन के अंदर रिसकर चला जाता है, जिससे भूमि के लवणीकरण की समस्या सामने आने लगी है। अंततोगत्वा यह मानना पड़ेगा कि बाढ़ और सूखा मानसूनी वर्षा के आधिक्य अथवा कमी से पैदा होने वाली विकट स्थितियाँ हैं। इसके समाधान के लिए ऐसे निर्माण कार्य पूरे करने होंगे, जिससे बहुत अधिक वर्षा होने से फालतू जल को रोक कर सूखे की स्थिति में उपयोग के लिए रखा जा सके। इसके लिए बांधों का निर्माण तथा जल संसाधन उपयोग की अनेक परियोजनाओं को रुपांकित करने का प्रयास हो रहा है।

बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम


प्रतिवर्ष बाढ़ से होने वाली अपार हानि को कम करने के उद्देश्य से सरकार ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कई प्रकार के उपाय किए हैं। 1954 में बाढ़ की समस्या को राष्ट्रीय स्तर पर सुलझाने के लिए बाढ़ नियंत्रण कार्यक्रम बनाया गया था। उल्लेखनीय है कि तब से बाढ़ प्रवण क्षेत्रों के लगभग एक तिहाई भाग को उचित संरक्षण दिया जा चुका है। बाढ़ संकट से ग्रस्त ऐसे शेष इलाकों को भी सुरक्षा देने का उपाय किए जा रहे हैं। इस दिशा में प्रभावी उपायों को पूरा करने के लिए 1976 में राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की स्थापना की गई।

देश में बाढ़ नियंत्रण के प्रभावी कार्यक्रमों को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार राज्य सरकारों के साथ मिलकर महत्वपूर्ण प्रयास करती रही है। यह ध्यान देने की बात है कि नदी जल तथा बाढ़ नियंत्रण कार्य भारतीय संविधान के अनुसार राज्यों का विषय है। फिर भी भारत सरकार ने 1990 से राज्यों के सहयोग से राष्ट्रीय स्तर पर बाढ़ प्रबंध का कार्यक्रम चालू किया है, जिसके अच्छे परिणाम प्राप्त हो रहे हैं। इस आयोग को बाढ़ प्रबंध स्कीमों की तकनीकी और आर्थिक जांच, मूल्यांकन तथा प्रबोधन (मानिटरिंग) का काम सौंपा गया है। साथ ही रेल और सड़क पुल के अंतर्गत विद्यमान जल धाराओं की स्थिति का आंकलन भी सम्मिलित है। यह आयोग देश की प्रमुख नदियों और बाढ़ प्रवण क्षेत्रों का वैज्ञानिक अध्ययन कर बाढ़ प्रबंधन की व्यापक योजना तैयार कर प्रस्तुत करने जा रहा है।