मानसून की टेढ़ी चाल से भारत में सभी हतप्रभ हैं। पिछले कुछ वर्षो से जिस तरह से मानसून दगा दे रहा है वो भारत जैसे कृषि प्रधान देश में भारी चिंता का विषय हैं। सामान्यतः मानसून शब्द का उपयोग भारी वर्षा के पर्याय के रूप में होता है, लेकिन वस्तुतः यह हवा कि दिशा बदलने का प्रतीक है, जिससे वर्षा कि सम्भावनाएं ज्ञात होती है।
भारत में मानसूनी हवाएं अरब सागर और हिंद महासागर से दक्षिण-पश्चिम को बहती है और यही हवाएं आपने साथ भारत के लिए जीवन दायिनी मानसून लेकर आती हैं। हम माने या न माने लेकिन आज भी इतनी उन्नति के बाद भी हम भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों की जिंदगी इन हवाओं पर निर्भर हैं, यह हवाएं ही हमारी किस्मत का फैसल करती है, कि आने वाले एक -दो सालो में हमारी आर्थिक और सामजिक सेहत कैसी रहेगी।
इतना सब होने के बाद भी हम आज भी इस मानसून को गंभीरता से नहीं लेते हैं ,पिछले कुछ वर्षो से ये हमें बराबर छकाता आ रहा है, लेकिन हम इस और से बिल्कुल आंख मूंद कर बैठे है ,हम यह जानने का प्रयास भी नहीं कर रहे कि कौन सी ऐसी ताकत है .जो मानसून कि मजबूत हवाओं को कमजोर कर देती है या उनको पथ से विचलित कर देती हैं। भारत में जिस धरती को हम माँ वसुंधरा कहते हैं,वो आज प्यासी हैं जिसमे एक बड़ा हाथ मानसून का भी हैं। मानसून कि इस गड़बड़ी और अनिश्चिता कि एक प्रमुख वजह ग्लोबल वार्मिंग हैं, यह ग्लोबल वार्मिंग इस लिए हो रही है कि मनुष्य खुद को विधाता समझ बैठा है और विज्ञानं कि दम पर जब-तब प्रकृति को चुनौती अवश्य दे रहा हैं,पर इस द्वन्द में सदा ही मुंह कि खाता है। प्रकृति को छेड़ने और क्षतिग्रस्त करने के परिणाम कुछ स्थायी और कुछ तात्कालिक होते हैं,ग्लोबल वार्मिंग स्थायी परिणामों में से एक है।
कहीं मूसलधार बारिश तो कहीं सूखा और भीषण अकाल। हम कृत्रिम वर्षा और उसकी तकनीक विकसित करने कि बात करतें है और दूसरी और वर्षा के प्राकृतिक साधनों और स्वरुप को लगातार नष्ट करतें जा रहें हैं। ग्लोबल वार्मिंग के सभी कारण और करक मानसून को बुरी तरह से प्रभावित कर रहें हैं। इन में सर्वाधिक क्षतिदायक भारत में बढ़त अंधाधुंध औधौगिकरन हैं। भारत भूमि पर मौजूद लाखो छोटी-बड़ी ओधोगिक इकाइयाँ उत्पाद निर्माण कि प्रकिया उपरांत तमाम तरह कि विषैली गैसें वातावरण में छोड रही हैं। जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं है। यह गैसे धरती के पर्यावरण कि सुरक्षा कवच ओजोन परत को क्षति पंहुचा रहीं है।
दूसरा मुख्य कारण वनों और जंगलो कि अवैध कटाई है, भारत में वनाच्छादित क्षेत्र दिनों-दिन कम होता जा रहा हैं और इसको नियंत्रित करनें कि सभी प्रयास अपेक्षित परिणाम नहीं दे सके हैं। इन पेड़ो को लगाने बाद सघन वनीकरण से आक्सीजन उत्पादन बढता है, जिससे वातावरण में कार्बन की बढ़ी मात्रा के दुष्प्रभावों को कम करने में सहायता मिलती है। इसके अलावा प्रतिदिन हजारों लीटर की मात्रा में डीजल और पेट्रोल के जलने से भी वातावरण प्रदूषित हो, ग्लोबल वार्मिंग को बढा दे रहा और मानसून प्रभावित हो रहा है। ये बात भी कटु सत्य है कि हम औधोगिक और ऑटोमोबाइल से जनित प्रदुषण का इलाज नहीं ढूंड सकें हैं। परंतु ये अवश्य है कि हम धरती को हरी चादर पहनकर ग्लोबल वार्मिंग से मानसून और पर्यावरण को हो रही क्षति और अन्य दुष्प्रभावों को बहुत हद तक सीमित और नियंत्रित कर सकते हैं।
इन प्रदूषण के कारण उत्तपन सूक्ष्म कणों ने भारत और उसके सम्पूर्ण समुद्री क्षेत्रों पर एक परत सी बन दी है ,जो सामान्यतः नग्न आँखों से नजर नहीं आती; पर इस कारण से मानसून की अनिश्चितता अवश्य सुनिश्चित हो जाती है। इन सूक्ष्म कणों को एरोसोल कहते है, ये प्रदूषण के कारण भारत के वायुमंडल में स्थाई रूप से लंबित है। ये एरोसोल मुख्यतः सल्फेट और अन्य घातक अवयवों के साथ राख से मिलकर बने होते हैं। फैक्ट्री और वाहनों से निकलने वाला धुआं इस सब का मुख्य जनक है। ये एरोसोल भू-स्तर से लगभग तीन किलोमीटर कि ऊचाई पर मौजूद रहते है।
भारत में मानसून के वाष्पीकरण अधिकाशतः अक्टूबर से मार्च के दौरान होता है। भारत में इस वाष्पीकरण का मुख्य स्त्रोत अरब सागर और बंगाल कि खाड़ी हैं’ किन्तु भारत में शीत ऋतु के दौरान चलने वाली उत्तर-पूर्वी हवाए भरी तादाद में इस धुंधले प्रदूषण से अरब सागर और बंगाल कि खाड़ी को ढक देती है। इस वजह से पृथ्वी पर वाष्पीकरण के लिए आने वाले सौर–विकिरण कि मात्रा लगभग पांच से दस प्रतिशत कम हो जाती है। इस प्रदूषण परत में शामिल सल्फेट सौर – विकिरण को वापिस अंतरिक्ष में भेज देता है; वहि कोयले की राख इस विकिरण को सोख लेती है। इस वाष्पीकरण के चक्र में कमी और कमजोरी मानसून को अनिश्चित और अनियमित बना रही है। इस दिशा में हमारे सब विज्ञान और गणित फेल हो रहे है और प्रकृति से लोहा लेने कि हमारा निर्णय हम पर भरी पड़ रहा है।
ग्लोबल वार्मिंग से गर्म हुई धरती पर सौर –विकिरण कम आ रहा है एवं इस गर्मी के कारण भारत के समुद्री क्षेत्रो से पहले कि तुलना में कम पानी वाष्पीकृत हो रहा है। इस के साथ ही अधिक गर्म भू मंडल से वाष्पीकृत होने वाला जल सरलता से बूंदों का रूप नहीं ले पता है। परिणामतः कम बारिश। अभी भी समय है और प्रकृति हमें संकेत दे रहा है कि वो ही सर्वशक्तिमान है ,हम नहीं। पर शायद हम उसके सन्देश और संकेत समझ नहीं पा रहे है ,कही ऐसा ना हो कि हमें अकल आते- आते देर ना हो जाये।