सिलिकोसिस पीड़ित संघ के 2012 के 102 गाँवों पर किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 743 परिवार ऐसे थे जिनका कम-से-कम एक सदस्य पलायन करके क्वार्ट्ज या गिट्टी की खदान में काम करने गया था और इसी कारण वह सिलिकोसिस की बीमारी की चपेट में आ गया। जिन परिवारों पर इस बीमारी का असर पड़ा उनमें से 57 प्रतिशत लोगों का कोई सहारा नहीं रह गया था। प्रभावित 511 लोगों में से 74 लोग यानी 14 प्रतिशत लोग अपनी बीमारी पर एक लाख रुपए और 54 प्रतिशत लोग 25,000 रुपए से ज्यादा खर्च कर चुके हैं। यह कहानी दो राज्यों और दो बीमारियों के बीच फँसे आदिवासियों की है जो मध्य प्रदेश में पेट नहीं भर सकते और गुजरात में काम करके लौटने के बाद जी नहीं सकते। आदिवासी बहुल झाबुआ जिले के मांडली गाँव की भिलाला जाति की गमली महिला (60) के सिर पर जैसे आसमान फट गया है। इस बुढ़ापे में उस पर अपने बेटे और बेटी के चार बच्चों को पालने की जिम्मेदारी आ गई है। पति लालचंद (70) पहले से ही लाचार हैं। बचपन में किसी मशीन पर काम करते समय उसका हाथ कट गया था। इसलिये वह कोई काम कर नहीं सकता।
गमली का बेटा बाबू (35) और बेटी संदूड़ी (18) गुजरात की पत्थर फ़ैक्टरी में काम करने गए थे। वहाँ गोधरा के धरती धन में कुछ महीने काम करने के बाद उनकी ताकत घट गई और दम फूलने लगा। वे घर लौट आये और फिर ज्यादा दिन नहीं जी सके। वे जिस फ़ैक्टरी में कम करते थे वहाँ पत्थर पीसा जाता था। वे लोग मुँह पर कपड़ा बाँध कर काम करते थे लेकिन उनके फेफड़े बच नहीं पाए। यहाँ मेघनगर लौटे तो डाक्टरों ने टीबी की दवाई शुरू की। पर उससे कोई काम नहीं बना क्योंकि बीमारी तो कुछ और थी। गमली कहती है, “वे दोनों 2005 में ही शान्त हो गए। घर आने के बाद वे ज्यादा दिन नहीं बच सके। उन्हें गोधरा का पाउडर (सिलिकोसिस) खा गया। बेटे की दो लड़कियाँ हैं और बेटी के भी दो बच्चे हैं। बेटी के सास ससुर दारू पीकर पड़े रहते हैं इसलिये हम पाल रहे हैं बेटी के बच्चों को। लेकिन हमारे पास आमदनी का कोई नियमित जरिया नहीं है। पेंशन मिलती थी जो बन्द हो गई और नरेगा में काम मिलना बन्द हो गया।’’
परिवार के कर्ता लालचन्द कहते हैं, “हमारे पास दो-तीन बीघा ज़मीन है। उसे भी रेहन पर रख दिया है। पहले पेंशन के रूप में 150 रुपए महीना मिलता था। अब वो भी बन्द हो गया है। नरेगा में आजकल काम बन्द है। वैसे भी हमारे पास एक हाथ ही नहीं है कौन काम देगा। इसलिये कुछ पैसा फसल से मिल जाता है और कुछ मवेशी बेचकर कमा लेते हैं। सरकार की तरफ से न तो किसी प्रकार का मुआवजा है और न ही राहत।’’
इस गाँव के पटेल दिनेश भाई (40) खुद सिलिकोसिस के शिकार हैं। बोलते-बोलते हाँफ जाते हैं। चलते-चलते थक जाते हैं। वे भी गुजरात गए थे कमाने पर वहाँ से जानलेवा बीमारी लेकर आये। वे सिलिकोसिस पीड़ित संघ के सदस्य हैं और यह संगठन पीड़ितों की जाँच करवाकर उन्हें सर्टीफिकेट दिलवाता है। उनका कहना है कि पहले डॉक्टर इस प्रकार का कोई सर्टिफ़िकेट देने को तैयार नहीं होते थे। पर खेड़ूत मजदूर चेतना संगठन की ओर से मामला राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और सुप्रीम कोर्ट गया तब सरकार ने इतना करना शुरू किया है। लेकिन यह काम भी काफी जद्दोजहद के बाद हुआ।
पहले न तो जिले के अफ़सर और न ही सरकारी डॉक्टर यह मानने को तैयार थे कि इस तरह की कोई बीमारी होती है और यह बीमारी उन्हें गोधरा से लगी है। वजह साफ है कि गोधरा के फ़ैक्टरी मालिक मज़दूरों को मास्क वगैरह तो देते ही नहीं थे और मस्टर रोल पर न तो नाम चढ़ाते थे और न ही किसी प्रकार का पहचान पत्र देते थे। सरकार के कान पर तब जूं रेगना शुरू हुआ जब मरने वालों का पोस्टमार्टम कराया गया और उनके फेफड़ों से पत्थर में बदल चुके सिलिका के कण निकले।
इस बीच डाक्टर इन मरीजों को टीबी की ही दवा देते हैं। जिससे सिलिकोसिस पर कोई असर नहीं पड़ता महज खाँसते फेफड़ों को थोड़ी राहत मिलती है। सिलिकोसिस वाले प्रमाण पत्रों का एक ही फायदा होता है और वो यह कि उन्हें कभी-कभी पेंशन मिल जाती है और परिवार के सदस्यों को नरेगा में काम मिल जाता है। पर आज कल नरेगा से भी सरकार ने हाथ खींच रखा है।
दिनेश भाई बताते हैं कि यह रोग झाबुआ जिले के मेघनगर के आसपास तकरीबन छह सात गाँवों में लगा है। करीब 2000 की आबादी वाले एक गाँव में इस बीमारी से सात-आठ लोग प्रभावित हैं। इनमें से कुछ मर गए कुछ मौत का इन्तजार कर रहे हैं। वजह साफ है कि उनके पास खाने के लिये पर्याप्त भोजन नहीं है और इस मर्ज की भारत में कोई दवाई भी नहीं है।
सिलिकोसिस पीड़ित संघ के 2012 के 102 गाँवों पर किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 743 परिवार ऐसे थे जिनका कम-से-कम एक सदस्य पलायन करके क्वार्ट्ज या गिट्टी की खदान में काम करने गया था और इसी कारण वह सिलिकोसिस की बीमारी की चपेट में आ गया। जिन परिवारों पर इस बीमारी का असर पड़ा उनमें से 57 प्रतिशत लोगों का कोई सहारा नहीं रह गया था। प्रभावित 511 लोगों में से 74 लोग यानी 14 प्रतिशत लोग अपनी बीमारी पर एक लाख रुपए और 54 प्रतिशत लोग 25,000 रुपए से ज्यादा खर्च कर चुके हैं।
मांडली गाँव की मैता की बेटी खीमा (35) भी सिलिकोसिस से शान्त हो (मर) गई। वह भी गोधरा की फैक्टरी में काम करने गई थी। वह 2014 में चल बसी। उसके पाँच बच्चे हैं। उसे भी कोई मुआवजा नहीं मिला। मैता के साथ ही रहता है खीमा का पति। मैता का पति नहीं है। बेटा और बहू हैं और वे खेती करते हैं। उससे बाद उनके घर से कोई गोधरा जाने को तैयार नहीं है।
इसी तरह शैतान (55) का भाई भी गोधरा से काम करके लौटा तो खत्म हो गया। उसके भाई ने वहाँ आठ महीने काम किया था। शैतान खुद भी इस बीमारी की शिकार है। वह बताता है कि फैक्टरी में मुँह पर बाँधने के लिये कोई किट नहीं दी जाती। न ही वहाँ किसी प्रकार का कोई कार्ड या पहचान पत्र मिलता है। फैक्टरी वाले ज्यादा-से-ज्यादा यही अहसान करते हैं कि बीमार होने पर अपनी गाड़ी से घर तक छुड़वा जाते हैं। पर दवा का कोई खर्च या किसी तरह का मुआवजा वगैरह देने का सवाल ही नहीं है।
बसु (40) वल्द मल्जी भी गोधरा काम करने गए थे। उन्हें दो महीने में ही दिक्कत होने लगी। अब वे दवा खा रहे हैं। राजस्थान के बाँसवाड़ा से उनका इलाज चल रहा है। इलाज भी क्या है, डॉक्टर ने परचे पर टीबी लिख रखा है और पीने के लिये कफ सीरप देते हैं।
इनमें सबसे बुरी दशा शैतान (45) वल्द मंजी की दिखी। वे गोधरा में पाँच-छह महीने काम करने के बाद किसी लायक नहीं बचे। आजकल खाट पर पड़े रहते हैं। खाँसी आती है सांस फूलती है, चलना फिरना बन्द है। उनको राजस्थान के डूंगरपुर में दिखाया था। डॉक्टर ने अपने परचे पर टीबी लिखा है। एक झोला दवाएँ रखे हुए हैं। दिक्कत होने पर उसी में से कुछ खा लेते हैं। लेकिन इस बात को डॉक्टर, मरीज और तीमारदार सब जानते हैं कि इन दवाओं से कुछ होना नहीं है और न ही यह बीमारी ठीक होनी है।
शिल्पी केन्द्र, खेड़ूत मजदूर चेतना संगठन, आदिवासी दलित मोर्चा, सिलिकोसिस पीड़ित संघ और जनस्वास्थ्य अभियान के संयुक्त प्रयास से सिलिकोसिस से होने वाली 238 मौतों में से प्रत्येक को तीन लाख का मुआवजा मिला है। 304 पीड़ितों के पुनर्वास का आदेश भी हुआ है। मध्य प्रदेश के धार, झाबुआ और अलीराजपुर जैसे तीन जिलों के 102 गाँवों के 1701 पीड़ितों जिनमें से 503 मृत हैं, काम मामला सुप्रीम कोर्ट और मानवाधिकार आयोग में दायर है।
इसी प्रयास के कारण मेघनगर के ग्वाली गाँव के रूपला भूरिया की पत्नी हकरी और उसके पति रूपला को सिलिकोसिस का सर्टीफिकेट भी मिला है। उनका जॉब कार्ड भी बन गया है। लेकिन जब मनरेगा में पैसा ही नहीं आ रहा है तो उनके आश्रितों को काम कैसे मिलेगा। इस तरह गुजरात और मध्य प्रदेश के बीच मजदूरी के लिये विस्थापित होने और पलायन करने वाले आदिवासी सिलिकोसिस की चपेट में आकर जान दे रहे हैं वहीं सरकारें और विशेषज्ञ सिलिकोसिस बनाम टीबी की बहस में उलझे हुए हैं।
गमली का बेटा बाबू (35) और बेटी संदूड़ी (18) गुजरात की पत्थर फ़ैक्टरी में काम करने गए थे। वहाँ गोधरा के धरती धन में कुछ महीने काम करने के बाद उनकी ताकत घट गई और दम फूलने लगा। वे घर लौट आये और फिर ज्यादा दिन नहीं जी सके। वे जिस फ़ैक्टरी में कम करते थे वहाँ पत्थर पीसा जाता था। वे लोग मुँह पर कपड़ा बाँध कर काम करते थे लेकिन उनके फेफड़े बच नहीं पाए। यहाँ मेघनगर लौटे तो डाक्टरों ने टीबी की दवाई शुरू की। पर उससे कोई काम नहीं बना क्योंकि बीमारी तो कुछ और थी। गमली कहती है, “वे दोनों 2005 में ही शान्त हो गए। घर आने के बाद वे ज्यादा दिन नहीं बच सके। उन्हें गोधरा का पाउडर (सिलिकोसिस) खा गया। बेटे की दो लड़कियाँ हैं और बेटी के भी दो बच्चे हैं। बेटी के सास ससुर दारू पीकर पड़े रहते हैं इसलिये हम पाल रहे हैं बेटी के बच्चों को। लेकिन हमारे पास आमदनी का कोई नियमित जरिया नहीं है। पेंशन मिलती थी जो बन्द हो गई और नरेगा में काम मिलना बन्द हो गया।’’
परिवार के कर्ता लालचन्द कहते हैं, “हमारे पास दो-तीन बीघा ज़मीन है। उसे भी रेहन पर रख दिया है। पहले पेंशन के रूप में 150 रुपए महीना मिलता था। अब वो भी बन्द हो गया है। नरेगा में आजकल काम बन्द है। वैसे भी हमारे पास एक हाथ ही नहीं है कौन काम देगा। इसलिये कुछ पैसा फसल से मिल जाता है और कुछ मवेशी बेचकर कमा लेते हैं। सरकार की तरफ से न तो किसी प्रकार का मुआवजा है और न ही राहत।’’
इस गाँव के पटेल दिनेश भाई (40) खुद सिलिकोसिस के शिकार हैं। बोलते-बोलते हाँफ जाते हैं। चलते-चलते थक जाते हैं। वे भी गुजरात गए थे कमाने पर वहाँ से जानलेवा बीमारी लेकर आये। वे सिलिकोसिस पीड़ित संघ के सदस्य हैं और यह संगठन पीड़ितों की जाँच करवाकर उन्हें सर्टीफिकेट दिलवाता है। उनका कहना है कि पहले डॉक्टर इस प्रकार का कोई सर्टिफ़िकेट देने को तैयार नहीं होते थे। पर खेड़ूत मजदूर चेतना संगठन की ओर से मामला राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और सुप्रीम कोर्ट गया तब सरकार ने इतना करना शुरू किया है। लेकिन यह काम भी काफी जद्दोजहद के बाद हुआ।
पहले न तो जिले के अफ़सर और न ही सरकारी डॉक्टर यह मानने को तैयार थे कि इस तरह की कोई बीमारी होती है और यह बीमारी उन्हें गोधरा से लगी है। वजह साफ है कि गोधरा के फ़ैक्टरी मालिक मज़दूरों को मास्क वगैरह तो देते ही नहीं थे और मस्टर रोल पर न तो नाम चढ़ाते थे और न ही किसी प्रकार का पहचान पत्र देते थे। सरकार के कान पर तब जूं रेगना शुरू हुआ जब मरने वालों का पोस्टमार्टम कराया गया और उनके फेफड़ों से पत्थर में बदल चुके सिलिका के कण निकले।
इस बीच डाक्टर इन मरीजों को टीबी की ही दवा देते हैं। जिससे सिलिकोसिस पर कोई असर नहीं पड़ता महज खाँसते फेफड़ों को थोड़ी राहत मिलती है। सिलिकोसिस वाले प्रमाण पत्रों का एक ही फायदा होता है और वो यह कि उन्हें कभी-कभी पेंशन मिल जाती है और परिवार के सदस्यों को नरेगा में काम मिल जाता है। पर आज कल नरेगा से भी सरकार ने हाथ खींच रखा है।
दिनेश भाई बताते हैं कि यह रोग झाबुआ जिले के मेघनगर के आसपास तकरीबन छह सात गाँवों में लगा है। करीब 2000 की आबादी वाले एक गाँव में इस बीमारी से सात-आठ लोग प्रभावित हैं। इनमें से कुछ मर गए कुछ मौत का इन्तजार कर रहे हैं। वजह साफ है कि उनके पास खाने के लिये पर्याप्त भोजन नहीं है और इस मर्ज की भारत में कोई दवाई भी नहीं है।
सिलिकोसिस पीड़ित संघ के 2012 के 102 गाँवों पर किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 743 परिवार ऐसे थे जिनका कम-से-कम एक सदस्य पलायन करके क्वार्ट्ज या गिट्टी की खदान में काम करने गया था और इसी कारण वह सिलिकोसिस की बीमारी की चपेट में आ गया। जिन परिवारों पर इस बीमारी का असर पड़ा उनमें से 57 प्रतिशत लोगों का कोई सहारा नहीं रह गया था। प्रभावित 511 लोगों में से 74 लोग यानी 14 प्रतिशत लोग अपनी बीमारी पर एक लाख रुपए और 54 प्रतिशत लोग 25,000 रुपए से ज्यादा खर्च कर चुके हैं।
मांडली गाँव की मैता की बेटी खीमा (35) भी सिलिकोसिस से शान्त हो (मर) गई। वह भी गोधरा की फैक्टरी में काम करने गई थी। वह 2014 में चल बसी। उसके पाँच बच्चे हैं। उसे भी कोई मुआवजा नहीं मिला। मैता के साथ ही रहता है खीमा का पति। मैता का पति नहीं है। बेटा और बहू हैं और वे खेती करते हैं। उससे बाद उनके घर से कोई गोधरा जाने को तैयार नहीं है।
इसी तरह शैतान (55) का भाई भी गोधरा से काम करके लौटा तो खत्म हो गया। उसके भाई ने वहाँ आठ महीने काम किया था। शैतान खुद भी इस बीमारी की शिकार है। वह बताता है कि फैक्टरी में मुँह पर बाँधने के लिये कोई किट नहीं दी जाती। न ही वहाँ किसी प्रकार का कोई कार्ड या पहचान पत्र मिलता है। फैक्टरी वाले ज्यादा-से-ज्यादा यही अहसान करते हैं कि बीमार होने पर अपनी गाड़ी से घर तक छुड़वा जाते हैं। पर दवा का कोई खर्च या किसी तरह का मुआवजा वगैरह देने का सवाल ही नहीं है।
बसु (40) वल्द मल्जी भी गोधरा काम करने गए थे। उन्हें दो महीने में ही दिक्कत होने लगी। अब वे दवा खा रहे हैं। राजस्थान के बाँसवाड़ा से उनका इलाज चल रहा है। इलाज भी क्या है, डॉक्टर ने परचे पर टीबी लिख रखा है और पीने के लिये कफ सीरप देते हैं।
इनमें सबसे बुरी दशा शैतान (45) वल्द मंजी की दिखी। वे गोधरा में पाँच-छह महीने काम करने के बाद किसी लायक नहीं बचे। आजकल खाट पर पड़े रहते हैं। खाँसी आती है सांस फूलती है, चलना फिरना बन्द है। उनको राजस्थान के डूंगरपुर में दिखाया था। डॉक्टर ने अपने परचे पर टीबी लिखा है। एक झोला दवाएँ रखे हुए हैं। दिक्कत होने पर उसी में से कुछ खा लेते हैं। लेकिन इस बात को डॉक्टर, मरीज और तीमारदार सब जानते हैं कि इन दवाओं से कुछ होना नहीं है और न ही यह बीमारी ठीक होनी है।
शिल्पी केन्द्र, खेड़ूत मजदूर चेतना संगठन, आदिवासी दलित मोर्चा, सिलिकोसिस पीड़ित संघ और जनस्वास्थ्य अभियान के संयुक्त प्रयास से सिलिकोसिस से होने वाली 238 मौतों में से प्रत्येक को तीन लाख का मुआवजा मिला है। 304 पीड़ितों के पुनर्वास का आदेश भी हुआ है। मध्य प्रदेश के धार, झाबुआ और अलीराजपुर जैसे तीन जिलों के 102 गाँवों के 1701 पीड़ितों जिनमें से 503 मृत हैं, काम मामला सुप्रीम कोर्ट और मानवाधिकार आयोग में दायर है।
इसी प्रयास के कारण मेघनगर के ग्वाली गाँव के रूपला भूरिया की पत्नी हकरी और उसके पति रूपला को सिलिकोसिस का सर्टीफिकेट भी मिला है। उनका जॉब कार्ड भी बन गया है। लेकिन जब मनरेगा में पैसा ही नहीं आ रहा है तो उनके आश्रितों को काम कैसे मिलेगा। इस तरह गुजरात और मध्य प्रदेश के बीच मजदूरी के लिये विस्थापित होने और पलायन करने वाले आदिवासी सिलिकोसिस की चपेट में आकर जान दे रहे हैं वहीं सरकारें और विशेषज्ञ सिलिकोसिस बनाम टीबी की बहस में उलझे हुए हैं।