मेसर्स थ्री स्टार पेपर मिल्स में स्वच्छ उत्पादन

Submitted by admin on Fri, 10/10/2008 - 18:53

..भूमिका
गूदा एवं कागज उद्योग विश्व भर में चक्रण युक्त वस्तुओं से प्रभावित होते हैं। चूंकि मात्रात्मक प्रतिबंध उठा लिए गए हैं इसलिए सस्ते दाम पर बड़ी मात्रा में आयतित गूदा उपलब्ध है। इस उद्योग में मंदी का माहौल है जिससे लाभ पर असर पड़ रहा है।
लघु उद्योगों के लिए स्थिति औऱ भयावह है क्योंकि वे उत्पादन की मात्रा के आधार पर बड़ी कंपनियों से मुकाबला नहीं कर पाते। प्रदूषण पर नियंत्रण के बढ़ते सरकारी दबाव ने इस उद्योग के लिए मुश्किलें और बढ़ा दी हैं।
ऐसी परिस्थितियों में इस इकाई ने राष्ट्रीय स्वच्छ उत्पादन केंद्र (एनसीपीसी) की सहायता से स्वच्छ उत्पादन(सीपी) का तरीका अपनाने का फैसला किया।
स्वच्छ उत्पादन का मतलब ऐसे उत्पादों, और सेवाओं का लगातार इस्तेमाल करना है जिससे इंसानों के लिए खतरे कम करते हुए पर्यावरण के अनुकूल हो।
यह मामला मेसर्स थ्री स्टार पेपर मिल्स लिमिटेड(टीएसपीएम) द्वारा स्व्च्छ उत्पादन की तकनीक के इस्तेमाल के फायदे और बाज़ार में टिके रहने की क्षमता का वर्णन करता है।
उद्योग के बारे में:
मेसर्स थ्री स्टार पेपर मिल्स लिमिटेड(टीएसपीएम) भारत के दादरी में स्थित है। यह कंपनी १२ साल से विभिन्न किस्म के कागज(48-70 जीएसएम के 10-15 टन प्रतिदिन) का उत्पादन कर रही है। यह इकाई कच्चे माल के रूप में मुख्य तौर पर ख़राब हो चुके कागज का इस्तेमाल करती है। यह इकाई थोड़ी बहुत मात्रा में आयतित ख़राब कागज़ का भा इस्तेमाल करती है।
उत्पादन प्रक्रिया:
इस इकाई में अपनाई गई खराब कागज से कागज उत्पादन की प्रक्रिया का संक्षेप में विवरण नीचे दिया गया है। ख़राब कागज से पहले हाथ से प्लास्टिक, मोमी कागज, अलकतरा आदि को अलग किया जाता है । इसके बाद उनकी लुगदी बनाने के लिए बड़े पल्पर में डाला जाता है। खराब कागज से लुगदी बनाने के लिए उसमें पानी भी मिलाया जाता है ताकि वह लिजलिजा हो जाए। इसके बाद पूरे सामान से रेत और मिट्टी निकालने के लिए उसे जाल से गुजारा जाता है। इसके बाद कागज से रंग और स्याही निकालने के लिए लुगदी को पोचर में डाला जाता है। कास्टिंग और क्लोरीन के इस्तेमाल से लुगदी की स्याही निकाली जाती है। स्याही निकाली हुई लुगदी को साफ पानी से धोया जाता है ताकि उसमें से क्लोरीन निकल जाए। इसके बाद लुगदी को सीधा करने के लिए एक बहुस्तरीय डेकर ड्रम में रखा जाता है। इसके बाद उसे संदूक में ऱखा जाता है। एक डिस्क रिफाइनर के माद्यम से संदूक की लुगदी को मशीन में रखा जाता है। अब यह लुगदी तीन स्तरीय सफाई प्रक्रिया से गुजारी जाती है ताकि गांठ और अन्य अशुद्धताएं दूर हो जाएं। इस चरण में फिटकिरी, गंधमाल और अन्य योज्य पदार्थ मिलाए जाते हैं। इसके बाद लुगदी को पेपर मशीन में डाला जाता है।
पेपर मशीन के ३ मुख्य चरण हैं:
i) लुगदी को सूखा करने का चरण – इस चरण से पहले लुगदी का सूखापन करीब 0.7% होता चरण के बाद सूखापन बढ़कर करीब 20% हो जाती है।
ii) यांत्रिक सूखेपन का चरण, इस चरण के पहले लुगदी में 80% गीलापन होता है। इसे प्रेसर रोल से दबाया जाता है जिससे गीलापन घट कर 65% रह जाता है।
iii) थर्मल ड्राइंग चरण (अप्रत्यक्ष भाप ड्रायर) इस चरण में पोप रील पर रोल किए गए कागज का गीलापन घटकर 5-6% तक रह जाता है। पोप-रील से कागज को रिवाइंडर में भेजा जाता है, जहां मनचाहे आकार में काटा जाता है। इसके बाद कागज को बाहर भेजने वाले खंड में भेज दिया जाता है।
सीपी का प्रयोग और मिले नतीजे
1. इस पेपर मिल में एक डी डस्टर नामक मशीन लगाई गई जिससे ख़राब कागज में से सभी अन्ग गंदे पदार्थ मसलन बीड़ी, सिगरेटस प्लास्टिकस पिनस कीचड़, रेत आदि निकल गएष इससे कागज की गुणवत्ता में सुधार होने के साथ ही रासायनिक पदार्थों की खपत में भी कमी आई।
क्विंणन के समय यीस्ट कुछ ऑर्गेनिक अम्ल बनाते हैं। लेकिन उसका गाढ़ापन लैक्टोबैसिलस और अन्य गंदगी करने वाले बैक्टीरिया द्वारा उत्पादित अम्ल के मुकाबले कम होता है। जब लैक्टोबैसिलस तैयार कर लिए जाते हैं तो लैक्टिक एसिड का निर्माण अम्लता को काफी बढ़ा देता है। अम्ल के ये उच्च स्तर अक्सर यीस्ट के क्विंणन को काफी कम या धीमा कर देते हैं। प्लांट के भीतर डी-डस्टर के निर्माण की लागत करीब 10 लाख रुपए आती है। इससे विकल्प का इस्तेमाल करने से करीब 10 लाख रुपये सालाना की बचत भी होती है।
2. हॉट डिस्पेंसर के इस्तेमाल से न केवल कागज की गुणवत्ता में बढ़ौतरी हुई बल्कि स्याही ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल होने वाले रसायनों की खपत में भी कमी आई है। प्लांट के भीतर हॉट डिस्पेंसर के निर्माण की लागत करीब 2 लाख रुपये आती है। इससे विकल्प का इस्तेमाल करने से करीब 10 लाख रुपये सालाना की बचत भी होती है।
3. लुगदी बनाने वाले पल्पर को लंबवत से ज़मीन के समानांतर, ऊंचे नीचे आकार में बदल दिया गया। इस विकल्प के इस्तेमाल से प्लास्टिक कागज के रेशे को बिना छेड़े निकल गए। इस विकल्प के इस्तेमाल से करीब 20 एचपी की बिजली की भी कम खर्च हुई। तीन लाख रुपये के शुरूआती निवेश से इस विकल्प का इस्तेमाल किया गया। इससे सालाना 5 लाख रुपये की बचत हुई।
4. काउच पिट डेकर की जगह हेली स्क्रीन लगाने से बिजली की काफी बचत हुई। इसे लगाने में करीब 30 हज़ार रुपये खर्च हुए और इससे सालाना एक लाख रुपये की बचत हुई।
5. मुख्य हेडर में न्यूमेटिक वॉल्व (3-5 पीएसआईजी पर संचालन) लगाने से मजदूरों की संख्या में कमी के साथ-साथ करीब 20% भाप की बचत होती है। इससे कागज की गुणवत्ता में बढ़ोतरी होती है क्योंकि पेपर मशीन में भाप नियंत्रित और नियमित रूप से मिलती रहती है। 30 हजार रुपये के शुरूआती खर्च से इस विकल्प का निर्माण किया जा सकता है और इससे सालाना 2 लाख रुपये की बचत होती है।
6. प्लांट में एक इकोनोमिसर लगाया गया जिससे बॉयलर में डाले गए पानी का तापमान 350 सेंटीग्रेड से बढ़कर 750 सेंटीग्रेड हो जाता है। इससे भाप तैयार करने में ईंधन की खपत 25% तक कम हो जाती है। इस विकल्प को लगाने में शुरूआती खर्च करीब 2 लाख रुपये आता है और इससे सालाना करीब 10 लाख रुपये की बचत की जा सकती है।
7. पेपर मशीन में लगे प्रेस रोल का व्यास बढ़ा दिया गया जिससे मशीन ने 4% अधिक गीलापन सोखा। इस विकल्प के इस्तेमाल से लुगदी को सुखाने के लिए कम भाप की ज़रूरत पड़ी। इससे बॉयलर के 20% कम ईंधन की ज़रूरत पड़ी।
8. पेपर मशीन में कुछ तकनीकी सुधार करके इसकी रफ्तार को 20% बढ़ा दिया गया। इससे न केवल उत्पादन क्षमता बढ़ी बल्कि संयंत्र का कहीं बेहतर इस्तेमाल हो सका। विकल्प नंबर 7 और 8 को के इस्तेमाल में शुरूआती खर्च करीब 2 लाख रुपये आती है और इससे सालाना करीब 6 लाख रुपये की बचत हुई।
9. प्लांट में लगे गाढ़े पदार्थ का संग्रह करने वाले टैंक में एक चिमनी लगी थी। टैंक में आने वाली भाप का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाता था। इसके भरपूर इस्तेमाल के लिए टैंक को एक और टैंक से जोड़ दिया गया। पुराने टैंक को भाप सेपरेटर के रूप में इस्तेमाल किया गया और उस टैंक में लगी चिमनी को ड्रायर १,२ और ३ से जोड़ दिया गया। इससे चिमनी से निकलने वाली भाप का और बेहतर इस्तेमाल हो सका। दूसरे टैंक में एकत्रित गाढ़े पदार्थ को बॉयलर में भेज दिया गया। इस विकल्प के इस्तेमाल से बायलर के पानी का तापमान 15% तक बढ़। इसके साथ ही चिमनी की भाप के इस्तेमाल से भाप की खपत भी 10-15% कम हो गई। इस विकल्प के इस्तेमाल में शुरूआती खर्च करीब 5 लाख रुपये बैठता है। इससे हर साल 5 लाख रुपये की बचत होती है।
10. वायर पिट हिस्से में एक कम निर्वात बॉक्स लगाने से कागज की नमी 2% कम हो जाती है। इससे कागज को दबाने में लगने वाली ऊर्जा में 1/6 की कमी आती है। इस विकल्प के इस्तेमाल की लागत करीब 50 हजार रुपये है और इससे हर साल करीब २ लाख रुपये की बचत की जा सकती है।
11. पंप ग्लैंड्स की समय-समय पर मरम्मत और ‘सेव ऑल’ लगाने से कागज के रेशे में होने क्षय को कम किया गाया। इसके साथ ही पंप ग्लैंड्स में लीकेज के कारण नष्ट होने वाले रासायनिक पदार्थों की भी बचत की गई। इस विकल्प को अपनाने का शुरुआती खर्चा १० लाख रुपये बैठता है। इससे सालाना 4 लाख रुपये की बचत की जा सकती है।
12. इस इकाई में सबसे प्रमुख बदलाव इस्तेमाल हुए पानी को दोबारा इस्तेमाल करने का विकल्प अपनाना रहा। इससे ताजे जल की खपत 60% तक कम हो गई। इस विकल्प को अपनाने से गंदे पानी (अगर इसे बाहर बहाना है) की सफ़ाई में इस्तेमाल होने वाली बिजली में 60% की कमी आती है। हालांकि गंदे पानी को दोबारा इस्तेमाल होने लायक बनाने में केवल 40% बिजली की खपत होती है।
13. प्लांट में गंदे पानी को दोबारा इस्तेमाल के लिए साफ करते समय निकले ठोस पदार्थ से एक अन्य उत्पाद पेपरबोर्ड के निर्माण का विकल्प अपनाया गया। इस विकल्प से खराब कागज से कागज बनाने की प्रक्रिया में कुछ भी गंदा ठोस पदार्थ नहीं बचता है। इस विकल्प को अपनाने का शुरूआती खर्च करीब २० लाख रुपये बैठता है और इससे सालाना 40 लाख रुपये की बचत होती है।
निष्कर्ष
इकाई ने सीपी विकल्पों को लगाने और इस्तेमाल की काफी कोशिशें की। सीपी का सिद्धांत अपनाने से न केवल कागज की गुणवत्ता बढ़ी बल्कि कुल लागत में भी उल्लेखनीय कमी आई। इन बदलावों से मिले परिणामों को संक्षेप नीचे सारणी में बताया गया है:
परिणामों पर एक नज़र

 

उत्पादन में बढ़ोतरी

20%

पानी की खपत में कमी

60 एम३/टी कागज (60%)

ईंधन की खपत में कमी

17%

बिजली की खपत में कमी

25%