निजी खेत और पड़ती की संरचनाएँ

Submitted by admin on Mon, 02/15/2010 - 12:40
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क्रांति चतुर्वेदी

निजी खेतों में पानी रोकने के लिए कुंडी, कुईंया, डबरी, डबरा, फार्मपोंड, कुंआ और नलकूपों को रिचार्ज तथा पड़ती जमीन पर तालाब या परकोलेशन टैंक बनाये जा सकते हैं।

कुंडी/कुईयां से भूजल रिचार्ज

कुंडी/कुईया :

बरसात के दिनों में खेतों से बेकार बहने वाले पानी को रोकने के लिए हर खेत में कम से कम दो कुंडी या कुईयां बनाई जानी चाहिए। इनका निर्माण उस जगह करना चाहिए जहां से बरसात का पानी खेत में घुसता है। और खेत से बाहर निकलता है। इन संरचनाओं की गहराई तीन से पांच मीटर और गोलाई दो से तीन मीटर रखी जाए। मोटे तौर पर एक संरचना से हर साल लगभग 100 क्यूबिक मीटर पानी जमीन के नीचे प्रवेश कराया जा सकता है। इससे खेतों में नमी के साथ नलकूपों से पानी अधिक दिनों तक लिया जा सकता है। कुंड़ी/कुईंया के निर्माण में उनकी तली में मोटी रेत या बजरी की 0.3 मीटर मोटी परत बिछाई जानी चाहिए। इस संरचना को पक्का बनाने या ईंटों से जुड़ाई करने की आवश्यकता नहीं है, इसे पत्थरों की सहायता से बांधा जा सकता है। बरसात बाद रेत/बजरी को धोकर पुनः तली में बिछाने के उपयोग में लाया जा सकता है। कुण्डी या कुईया की आकृति गोल, चौकोर या अन्य प्रकार की भी रखी जा सकती है।
 

डबरी, डबरा, फार्म पौंड या डग आउट पौंड :

एक ही प्रकार की संरचना के ये अलग-अलग नाम हैं। इन संरचनाओं का आकार फसल की जरुरत को ध्यान में रखकर तय किया जाता है। मौटे तौर पर यह संरचनाएं धान के खेतों में अधिक प्रचलित हैं। इसकी आकृति चौकोर, गोल या अन्य प्रकार की रखी जा सकती है। इसमें इकट्ठे हुए पानी से मछली पालन भी किया जा सकता है। साथ ही भूजल संवर्द्धन भी होता है। यदि एक संरचना बनाने से खेत का पानी उस संरचना में पूरी तरह नहीं समाता तो एक से अधिक संरचना का निर्माण बरसात के बाद मौके की जगह पर किया जा सकता है।
 

कुओं में भूजल रिचार्ज :

नलकूपों की तुलना में कुओं से पानी की कई गुनी अधिक मात्रा जमीन के नीचे रिचार्ज की जा सकती है। इसके लिए अत्यन्त सरल तकनीक उपलब्ध है। जिसमें बरसात के पानी के बहाव को मोड़कर कुएं के पास लाया जाता है। इस पानी में मिट्टी के कण मिले होते हैं जो भूजल रिचार्ज को घटाता है अतः इन कणों को कुएं में जाने से रोकना जरुरी होता है। इसके लिए कुएं से करीब तीन मीटर दूर जमीन में लगभग 3 मीटर गहरा गड्ढा खोदकर उसकी तली में एक मीटर मोटी बोल्डर की परत और उसके ऊपर बजरी और फिर रेत की परतें बिछाई जाती हैं। बरसाती पानी को इस गड्ढे में डाला जाता है। जो विभिन्न परतों से छनकर नीचे बैठ जाता है। घने बरसाती पानी को गड्ढे की तली से एक पाईप की मदद से कुएं के अंदर प्रवेश कराया जाता है। इस तरह बेकार बहने वाला वर्षा का पानी कुओं के माध्यम से जमीन में प्रवेश कर भूजल भण्डार को समृद्ध करता है।

कुओं में भूजल रिचार्जकुओं में भूजल रिचार्ज

नलकूप रिचार्ज :

इस विधि में बरसाती पानी को फिल्टर की मदद से छानकर नलकूप में डाला जाता है। चट्टानी क्षेत्रों की तुलना में रेतीले क्षेत्रों में अधिक रिचार्ज होता है। नलकूप में बरसाती पानी को रिचार्ज करने के लिए नलकूप के आसपास एक या दो मीटर गहरा गड्ढा खोदा जाता है। नलकूप के पाईप में छोटे-छोटे अनेक छेद बनाये जाते हैं और पाईप के चारों और नारियल की रस्सी लपेटकर गड्ढे को बजरी या रेत या छोटी काली गिट्टी से भरा जाता है। इसके बाद वर्षा के पानी को नलकूप की ओर मोड़ा जाता है जो रेत बजरी या काली गिट्टी से छनकर नलकूप में उतर जाता है और भूजल भण्डार को समृद्ध करता है।
 

नाला बंधान :

नाले पर पानी रोकने के लिए मिट्टी के छोटे-छोटे बांध बनाये जा सकते हैं। नाला बंधान एक कच्ची संरचना है। इसे बनाने में सीमेंट के स्थान पर मिट्टी और पत्थर का उपयोग किया जाता है। इस संरचना को इस तरह बनाया जा सकता है। कि बांढ़ का पानी उसके ऊपर से नहीं निकले। बाढ़ के अतिरिक्त पानी को निकास मार्ग से निकाला जाता है। यह संरचना नाले के उस भाग में बनायी जाती है जहां सिंचाई जरूरतों के लायक पानी का बहाव हो। नाला बंधान में नींव देना जरूरी है। इसे बनाने के लिए नाले की तली की मिट्टी को लगभग 6 इंच खोदकर निकाल दिया जाता है। खोदे हुए भाग की तली से बांध को पूरा करने तक एक ही किस्म की मिट्टी काम में लायी जाती है। बांध को बनाने में हर बार मिट्टी की 6 इंच मोटी परत बिछाई जाती है। उपयोग में लाई मिट्टी से घास, पेड़ की जड़ें, पत्थर व कचरे जैसी चीजों को हटा देना चाहिए। मिट्टी की बिछाई हर एक परत पर पानी छिड़क कर ढुरमुस से मिट्टी की कुटाई की जाती है। सामान्यतः इन बांधों में पानी के बहाव की दिशा में ढाल 2:1 एवं बहाव की विपरीत दिशा में ढाल 3:1 रखा जाता है। बहाव की दिशा में बांध की ढालू सतह को मजबूत बनाने के लिए समतल कर उस पर घास लगायी जाती है। पानी के भाप बनकर उड़ने के दुष्परिणामों से बचने के लिए नाला बंधान में पानी की गहराई अधिक और इकट्ठे हुए पानी के क्षेत्र का कम रखने से अधिक समय तक पानी उपलब्ध रहता है।

नाला बंधान बनाने के लिए चुनी जगह पर उपर्युक्त किस्म की मिट्टी एवं परिस्थितियां मिलना जरुरी होता है। जिस जगह पानी भरता है वहां से पानी का कम से कम रिसाव होना जरूरी है। साथ ही दीमक की वामी एवं बोल्डर की परतें नहीं होनी चाहिए। इसके निर्माण में हल्की मिट्टी, भारी मिट्टी जो मौसम के साथ सिकुड़ती या फैलती हो, कार्बनिक पदार्थों युक्त मिट्टी और खारी क्षारयुक्त मिट्टी काम में नहीं लेना चाहिए। पानी रोकने के लिए किसान खाद की बोरियों में मिट्टी भरकर नाले में जमा सकते हैं। इस तरह के बांध में निस्तार और सिंचाई के लिए पानी इकट्ठा किया जा सकता है।
 

पक्के छोटे बांध :


पक्के छोटे बांधों को उथले एवं चौड़े नालों पर निम्नांकित परिस्थितियां मिलने की स्थिति में बनाया जाता है-

• जब नाले में रबी सीजन के अंत तक जल प्रवाह रहता हो।
• नाले के तल में कम गहराई पर नींव के लिए चट्टान या परत उपलब्ध हो।

पक्के छोटे बांध उस गांव में बनाना चाहिए जहां जमीन का ढाल बहुत कम अर्थात 1 से 3 प्रतिशत हो। इस संरचना को बनाने में इंजीनियरिंग सहयोग की जरूरत पड़ती है। इस संरचना में पानी को नाले के तल के ऊपर इकट्ठा किया जाता है। यह संरचना नाले में वहीं बनायी जाती है। जहां सिंचाई या निस्तार आवश्यकता के अनुरूप पानी का बहाव सिंचाई अवधि या रबी सीजन के अंत तक उपलब्ध हो। संरचना के निर्माण की जगह पर यदि मिट्टी/रेत/कच्चा पत्थर पाया जाता है। तो वहां नींव को पक्के पत्थर तक खोदना जरूरी है। जहां तल में पत्थर पाया जाता है, वहां नींव 0.45 मीटर या डेढ़ फीट तक पूरे नाले की चौड़ाई में खोदी जानी चाहिए।

सर्वप्रथम नाले के तल से मिट्टी, रेती, बोल्डर आदि को निकालकर तली को साफ किया जाता है। पक्का पत्थर मिलने पर उसकी सतह की चौड़ी खुदाई की जाना जरूरी होता है। तली के खुरचने के बाद उस कंक्रीट (एक भाग सीमेंट, तीन भाग रेत, छह भाग 40 एम. एम. गिट्टी तथा उपर्युक्त मात्रा में पानी) की सतह बिछायें जिसकी मोटाई सामान्यतः एक से डेढ़ फीट रखी जाती है। अनेक बार नाले के तल में काफी गहराई तक नींव खोदने के बाद भी ठोस चट्टान प्राप्त नहीं होती है, तब वहां 6 इंच मोटी बालू की परत या जीरा गिट्टी बिछाकर उसके ऊपर बोल्डर व मुरम की डेढ़ फीट मोटी परत बिछाकर कुटाई की जाती है। इस दौरान समय-समय पर परत पर पानी छिड़कना चाहिए। फिर ऊपर बताये अनुसार बेस कांक्रिट डाला जाता है।

 

नाला वियर :


यह एक पक्की संरचना है। कम ढाल वाले क्षेत्रों में इस संरचना को बनाने से किसानों को लाभ होता है। ‘वियर’ के ऊपर से पानी लगातार बहता है अतः संरचना के निर्माण में सीमेंट का उपयोग अनिवार्य है। नाला वियर बनाने वाली जगह पर यदि मिट्टी/रेती/कच्चा पत्थर पाया जाता है। तो वहां नींव को पक्के पत्थर तक खोदना जरूरी है। जहां तल में पक्का पत्थर पाया जाता है। वहां गहरी नीव खोदने की जरूरत नहीं है। पक्का पत्थर मिलने पर उसकी सतह की थोड़ी खुदाई की जाना जरूरी है। तली को खोदने के बाद उस पर डेढ़ फीट की परत का कांक्रिट बिछाया जाता है। जिससे चट्टान की दरारे बंद होकर पानी का रिसाव खत्म हो जाता है। कांक्रिट डालने के बाद अगले 21 दिनों तक उसे गीला करके रखना चाहिए जिससे कि कांक्रिट अच्छी तरह पककर मजबूत हो जाता है और नाला वियर तैयार हो जाता है।

 

भूमिगत डाईक :


अनेक बार नदियों में दिसम्बर-जनवरी के आसपास जल प्रवाह बंद हो जाता है, परंतु उनके तल के नीचे पानी बहता रहता है। यह संरचना नदी तल के नीचे से बहकर जाने वाले पानी को रोकने के लिए बनायी जाती है। जहां भूमिगत डाइक या भूमिगत बंधान बनाया जाना है वहां नाले के दोनों किनारों के बीच की दूरी कम से कम होना चाहिए। निर्माण स्थल पर यदि कम गहराई पर ठोस चट्टान मिलती है तो कम खर्च लगता है। इसके निर्माण में भू वैज्ञानिकों एवं तकनीकी जानकारी का सहयोग जरुरी है।

 

कंटूर ट्रेंच :


भूमि पर पानी रोकने के लिए अलग-अलग साईज की कंटूर ट्रेंच बनाये जा सकते हैं. इनकों बनाने से पेड़ पौधों का अच्छा विकास होता है साथ ही बरसात के दिनों में जो पानी ट्रेंच में भर जाता है वह धीरे-धीरे रिसकर जमीन में प्रवेश करता है, जिससे निचले क्षेत्रों के कुओं और नलकूपों की जल क्षमता बढ़ती है। बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए इनके अलावा अनेक सहायक गतिविधियां जैसे गली प्लग एवं घास रोपण भी किया जा सकता है।

कंटूर ट्रेंच एवं सहायक संरचनाओं का निर्माण कम वर्षा वाले क्षेत्रों में करना अधिक लाभदायक है। खोदी गयी मिट्टी ढाल की ओर नीचे की तरफ डाली जाना चाहिए। इस मिट्टी पर घास या फलदार वृक्ष लगाने से मिट्टी को कटाव घटता है। और ट्रेंच में इकट्ठा हुआ पानी अधिक समय तक नमी प्रदान करता है। इस संरचना के निर्माण में वन विभाग द्वारा निर्धारित मानकों को अपनाना चाहिए। यह संरचनाएँ छोटी-छोटी पहाड़ी या पहाड़ों के आसपास बसे गांवों के लिए अत्यन्त लाभदायक है।