यूरोप में 3 लाख 85 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ एक देश है। नाम है नॉर्वे।
एक सौ साल पहले इस देश का भूगोल कुछ अलग था। यहाँ के पेड़-पौधे धीरे-धीरे खत्म हो रहे थे। लोग अपनी जरूरतों मसलन जलावन आदि के लिये वनों की बेतहाशा कटाई कर रहे थे। एक समय तो ऐसा भी आ गया था कि लग रहा था, यहाँ की जमीन पर एक भी पेड़ नहीं बचेगा।
नॉर्वे अपने अस्तित्व बचाने के संकट से जूझने लगा था।
मानव की जिन्दगी के लिये पेड़ कितना जरूरी है, यह हम सब बचपन से पढ़ते आ रहे हैं। ऐसे में यह ख्याल अपने आप में हैरतंगेज है कि किसी देश में पेड़-पौधे गायब हो रहे हों, वहाँ किस तरह लोगों की जिन्दगी कायम रह पाती।
नॉर्वे के लोग भी शायद यही सोच रहे थे और गम्भीरता से सोच रहे थे। ये सब सोचते-विचारते ही कुछ ख्याल उनके जेहन में उभर आया होगा। उन ख्यालों और विचारों को जब जमीन पर उतारना शुरू किया गया, तो धीरे-धीरे परिणाम भी सामने आने लगा और आज नॉर्वे दुनिया के उन गिने-चुने देशों में शामिल है, जहाँ भरपूर जंगल और पेड़-पौधे मौजूद हैं।
आज से चार साल पहले तक नॉर्वे में पेड़ों की संख्या 100 साल पहले की तुलना में तीन गुना बढ़ चुकी थी। पेड़ों की कटाई पर आधारित अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचाए बिना वहाँ पेड़ पौधों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक, नॉर्वे में हर साल जितने पेड़ लगाए जाते हैं, महज उसका आधा ही काटा जाता है। इस तरह दिनोंदिन पेड़ों की संख्या में इजाफा ही हो रहा है। कहा जाता है कि नॉर्वे में जितने कार्बन का उत्सर्जन होता है, उसका 60 प्रतिशत हिस्सा पेड़-पौधे ही सोख लेते हैं।
इससे समझा जा सकता है कि नॉर्वे में प्रदूषण या पर्यावरण को होने वाले सम्भावित नुकसान को कम करने में पेड़ पौधे कितनी अहम भूमिका निभा रहे हैं।
ऊपर के जो भी आँकड़े दिये गए हैं, वे आज से चार साल पुराने हैं। अभी के हालत और भी बदल गए हैं क्योंकि पिछले चार वर्षों में वनों को बचाने के लिये नार्वे की सरकार ने और भी कई अहम और कठोर कदम उठाए हैं।
इन्हीं में एक कदम नॉर्वे सरकार ने यह उठाया कि वहाँ के पेड़ों-जंगलों की कटाई पर पूरी तरह पाबन्दी लगा दी। यही नहीं, नॉर्वे संसद की पर्यावरण व ऊर्जा पर स्थायी समिति ने शपथ के लिये एक अनुशंसा भी पेश की कि जिस भी उत्पाद में पेड़ों को काटकर उसका कोई भी तत्व इस्तेमाल किया जाएगा, उस उत्पाद का इस्तेमाल नॉर्वे में नहीं किया जाएगा।
इस शपथ को लाने में रैनफॉरेस्ट फाउंडेशन नॉर्वे ने अहम भूमिका निभाई और इसके लिये कई वर्षों तक काम किया। इसके अलावा कई वन क्षेत्रों के संरक्षण के लिये लाखों रुपए खर्च करने की मंजूरी दी गई।
यही नहीं, वनों के संरक्षण के लिये नॉर्वे सरकार ने जंगलों की कटाई पर भी पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिया है। नॉर्वे ने ये सब तब किया, जब वहाँ पर्याप्त मात्रा में वन मौजूद थे। दरअसल, नॉर्वे सरकार ने ये समझ लिया था कि पर्याप्त वन होने के चलते अगर लापरवाह हो गए, तो लोग दोबारा वनों की कटाई शुरू कर देंगे जिससे दोबारा मुश्किलें पैदा हो जाएँगी।
अभी नॉर्वे वन संरक्षण को लेकर कई देशों के साथ मिलकर काम कर रहा है। कई देशों को तो नॉर्वे फंड भी कर रहा है।
यही नहीं, नॉर्वे ने इसी साल संयुक्त राष्ट्र व इंटरपोल के साथ मिलकर अवैध रूप से वनों की कटाई पर रोक लगाने का अभियान शुरू किया है।
अभियान के तहत वनों को काटकर तस्करी करने वाले अपराधियों की नकेल कसी जाएगी।
नॉर्वे ने जिस तरह वनों का संरक्षण किया और उनकी संख्या बढ़ाई, पूरी दुनिया और भारत को उससे सबक लेने की जरूरत है।
भारत के सन्दर्भ में हम नीचे बात करेंगे, इससे पहले हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि वैश्विक स्तर पर वनों की क्या हालत है।
एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया की कुल जमीन के महज 30 प्रतिशत हिस्से में ही वन हैं। इनमें से हर साल इंग्लैंड के आकार के वन खत्म हो रहे हैं।
बताया जाता है कि वैश्विक स्तर पर अगर इसी तरह वनों की कटाई जारी रही, तो अगले एक सौ साल में रेन फॉरेस्ट पूरी तरह खत्म हो जाएगा।
नेशनल जियोग्राफिक की एक रिपोर्ट के अनुसार, वनों की कटाई की एक प्रमुख वजह कृषि है। किसान खेती के लिये ज्यादा-से-ज्यादा जमीन चाहते हैं और इसके लिये वनों को काट रहे हैं। इसके अलावा मवेशियों के चारे के लिये भी वनों पर कुल्हाड़ी चलाई जा रही है।
वनों की कटाई की दीगर वजहों में लकड़ी आधारित कारोबार, जंगलों से होकर सड़क मार्ग का निर्माण, बढ़ती आबादी आदि शामिल हैं।
वनों की कटाई का असर पर्यावरण पर तो पड़ता ही है, इससे वन्यजीवों के अस्तित्व पर भी संकट के बादल मँडराने लगते हैं। वन असंख्यक जीव-जन्तुओं का आवास होता है। ऐसे में जब वन कटने लगते हैं, तो इन जन्तुओं का जीवन खतरे में पड़ जाता है।
वर्ष 2016 में वैश्विक स्तर वनों की स्थिति को लेकर यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के अनुसार करीब 73.4 मिलियन एकड़ वन क्षेत्र खत्म हो गया है। सिर्फ 2016 में वन क्षेत्र खत्म होने के आँकड़े लें, तो यह नुकसान 29.7 मिलियन हेक्टेयर आता है। पिछले वर्ष की तुलना में ये नुकसान 51 प्रतिशत अधिक है।
उक्त रिपोर्ट की मानें, तो विगत छह वर्षों की तुलना में वर्ष 2016 में सबसे ज्यादा वनों का नुकसान हुआ।
वनों को लेकर वैश्विक स्थिति के बाद अब आते हैं भारत में। भारत में भी वनों को लेकर स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। हालांकि, पहले की अपेक्षा भारत में वनों का विस्तार हुआ है।
पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट-2013 के अनुसार वर्ष 2011 से 2013 के बीच भारत में वनों के क्षेत्र में 5871 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोत्तरी हुई है। इनमें सबसे ज्यादा इजाफा पश्चिम बंगाल और ओड़िशा में हुआ है। अन्य राज्यों में बिहार, झारखण्ड और तमिलनाडु शामिल हैं। इसके विपरीत आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और कर्नाटक में वनों का क्षेत्रफल घटा है।
रिपोर्ट में एक दिलचस्प बात सामने आई है कि वनों का विस्तार नई जगहों पर हुआ न कि परम्परागत वन क्षेत्र में। रिपोर्ट में बताया गया है कि महज 2 प्रतिशत वनों का विस्तार वन क्षेत्र की चौहद्दी में हुआ है। बाकी विस्तार उन क्षेत्रों में हुआ है, जहाँ वन नहीं थे।
वहीं, हालिया रिपोर्ट बताती है कि भारत में वनों के विस्तार में महज एक प्रतिशत का इजाफा हुआ है। वर्ग किलोमीटर में बात की जाये, तो वर्ष 2015 से वर्ष 2017 के बीच 8021 वर्ग किलोमीटर में वनों का विस्तार हुआ है। हालांकि, पूर्वोत्तर में वन क्षेत्र में गिरावट आई है।
वनों की इस स्थिति के बारे में इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट से पता चला है।
यह रिपोर्ट फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इण्डिया की ओर से सेटेलाइट डेटा के विश्लेषण के बाद तैयार की गई है।
रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल वन क्षेत्र 8,02,088 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है जो भारत के कुल क्षेत्रफल का 24.39 प्रतिशत है।
बताया जाता है कि रिपोर्ट देश भर के 633 जिलों के सर्वेक्षण के आधार पर तैयार की गई है। पूर्व के वर्षों में 589 जिलों को लेकर ही सर्वेक्षण किये जाते थे।
वैश्विक सन्दर्भ में अगर भारत के आँकड़े को देखें, तो यह हमारे लिये राहत भरी बात है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वन क्षेत्र के मामले में भारत विश्व में 10वें स्थान पर है। यानी कि भारत दुनिया के उन 10 देशों में शुमार है, जहाँ ज्यादा वनक्षेत्र हैं।
लेकिन, रिपोर्ट में यह भी रेखांकित किया गया है कि भारत में जिन क्षेत्रों में वनों का विस्तार हुआ है, वे आदिवासी जिले हैं। इसका मतलब है कि शहर व मुफस्सिल क्षेत्रों में वनों का विस्तार नहीं हो रहा है।
उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार ने वनों का विस्तार 33 प्रतिशत क्षेत्रफल में करने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिये जरूरी है कि देश के सभी राज्यों में वनक्षेत्रों का विस्तार 33 प्रतिशत तक हो जाये।
मौजूदा आँकड़ों के मुताबिक देश के महज 15 राज्यों में ही 33 प्रतिशत से ज्यादा वनक्षेत्र हैं। इसके अलावा पूर्वोत्तर के 7 जिलों में वनक्षेत्र 75 प्रतिशत से ज्यादा हैं।
सरकार का कहना है कि वनक्षेत्रों के विस्तार के लिये चलाई गई कई योजनाओं के परिणामस्वरूप ही वनों का क्षेत्रफल बढ़ा है।
अखिल भारतीय स्तर पर वन क्षेत्र में एक प्रतिशत का इजाफा हुआ है, जो अच्छी खबर है, लेकिन कई इलाकों में वनक्षेत्र में कमी चिन्ता की बात है।
बंगलुरु स्थित इण्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के इकोलॉजिकल साइंस सेंटर के टीवी रामचंद्र ने मोगांबे नाम की वेबसाइट के एक लेख में कहा है कि वेस्टर्न घाट के जिलों में उन्होंने जो सर्वेक्षण किया है, उसके मुताबिक इन जिलों में वनक्षेत्र घटा है। इसी तरह उत्तरी-पश्चिमी घाट के वनक्षेत्र में 2 फीसदी की गिरावट आई है। अन्य घाटों में भी वनक्षेत्र में गिरावट दर्ज की गई है।
इन घाट क्षेत्रों में वनक्षेत्र में कमी होने से जलसंकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है क्योंकि वन नहीं होने से बारिश का पानी रुक नहीं पाता है जिससे स्ट्रीम सूखे पड़ जा रहे हैं।
न केवल पर्यावरण बल्कि बारिश पर आश्रित आबादी वाले क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता के लिये वन बेहद जरूरी है। वन न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में बल्कि शहरी क्षेत्रों में भी होना चाहिए ताकि शहरों की आबोहवा दुरुस्त रहे। वन जलवायु परिवर्तन की समस्या से लड़ने में भी मददगार है।
पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को वनक्षेत्र बढ़ाने की योजना को प्राथमिकता की सूची में रखना चाहिए।
इसके लिये सरकार नॉर्वे से काफी कुछ सीख सकती है। हालांकि, देश में बढ़ी आबादी के मद्देनजर लोगों को रहने के लिये ज्यादा जमीन की जरूरत पड़ेगी, इसलिये जहाँ वन नहीं हैं, वहाँ नए सिरे से वनों को आबाद करना मुश्किल है, लेकिन सरकार को यह कोशिश करनी होगी कि जहाँ वन आबाद है, वहाँ आबाद ही रहे।
इसके अलावा शहरी क्षेत्रों में सरकार होम गार्डन की शक्ल में गैर-पारम्परिक वनों का विस्तार कर सकती है। इसके लिये सरकार को चाहिए कि वह लोगों को आकर्षक ऑफर होम गार्डन तैयार करने के लिये प्रेरित करे।
इसके अलावा और भी कई तरीके हैं, जिनके जरिए बिना अतिरिक्त जमीन लिये हरियाली बढ़ाई जा सकती है।
ऐसा ही एक अद्भुत तरीका पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर में रहने वाले एक टैक्सी चालक धनंजय चक्रवर्ती ने अपनी टैक्सी की छत पर लॉन बना रखा है। वहीं टैक्सी के भीतर आधा दर्जन से ज्यादा पौधे हैं।
वे पिछले 5-6 साल से पौधों और दूब से भरी टैक्सी चला रहे हैं। उनका कहना है कि टैक्सी की छत पर दूब लगे होने के कारण भीतर का तापमान बाहर की तुलना में कम रहता है।
पर्यावरणविदों ने धनंजय चक्रवर्ती की इस तरकीब की जमकर तारीफ की और कहा कि ऐसी ही व्यवस्था दूसरी टैक्सियों में भी की जा सकती है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सरकार और आम लोग अगर ईमानदारी से कोशिश करें, तो वक्त रहते हरियाली का क्षेत्रफल बढ़ाकर प्रदूषण जैसे मुद्दों से बेहतर तरीके से निबटा जा सकता है।
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