''अच्छे-अच्छे काम करते जाना,'' राजा ने कूड़न किसान से कहा था। कूड़न, बुढ़ान सरमन और कौंराई थे चार भाई। चारों सुबह जल्दी उठकर अपने खेत पर काम करने जाते। दोपहर को कूड़न की बेटी आती, पोटली में खाना लेकर। एक दिन घर से खेत जाते समय बेटी को एक नुकीले पत्थर से ठोकर लग गई। उसे बहुत गुस्सा आया। उसने अपनी दरांती से उस पत्थर को उखाड़ने की कोशिश की और फिर बदलती जाती है इस लंबे किस्से की घटनाएं बड़ी तेजी से पत्थर उठा कर लड़की भागी-भागी खेत पर आती है। अपने पिता और चाचाओं को सब कुछ एक सांस में बता देती है। चारो भाइयों की सांस भी अटक जाती है। जल्दी-जल्दी सब घर लौटते हैं। उन्हें मालूम पड़ चुका है कि उनके हाथ में कोई साधारण पत्थर नहीं है, पारस है। वे लोहे की जिस चीज़ को छूते हैं, वह सोना बन कर उनकी आंखों में चमक भर देती है।
पर आंखों की यह चमक ज्यादा देर तक नहीं टिक पाती। कूड़न को लगता है कि देर-सबेर राजा तक यह बात पहुंच ही जाएगी और तब पारस छिन जाएगा। तो क्या यह अच्छा नहीं होगा कि वे खुद जाकर राजा को सब कुछ बता दें।
किस्सा आगे बढ़ता है। फिर जो कुछ घटता है, वह लोहे की नहीं बल्कि समाज को पारस से छुआने का किस्सा बन जाता है।
राजा न पारस लेता है, न सोना। सब कुछ कूड़न को वापस देते हुए कहता है : '' जाओ इससे अच्छे-अच्छे काम करते जाना, तालाब बनाते जाना.''
यह कहानी सच्ची है, ऐतिहासिक है- नहीं मालूम। पर देश के मध्य भाग में एक बहुत बड़े हिस्से में यह इतिहास को अंगूठा दिखाती हुई लोगों के मन में रमी हुई है। यहीं के पाटन नामक क्षेत्र में चार बहुत बड़े तालाब आज भी मिलते हैं और इस कहानी को इतिहास की कसौटी पर कसने वालों को लजाते हैं- चारों तालाब इन्हीं चारों भाइयों के नाम पर हैं। बुढ़ागर में बूढ़ा सागर है, मझगवां में सरमन सागर है, कुआंग्राम में कौंराई सागर है तथा कुंडम गांव में कुंडम सागर।
सन् 1907 में गजेटियर के माध्यम से इस देश का 'व्यवस्थित' इतिहास लिखने घूम रहे अंग्रेज ने भी इस इलाके में कई लोगों से यह किस्सा सुना था और फिर देखा- परखा था इन चार बड़े तालाबों को। तब भी सरमन सागर इतना बड़ा था कि उसके किनारे पर तीन बड़े-बड़े गांव बसे थे और तीनों गांव इस तालाब को अपने-अपने नामों से बांट लेते थे। पर वह विशाल ताल तीनों गांवों को जोड़ता था और सरमन सागर की तरह स्मरण किया जाता था। इतिहास ने सरमन, बुढ़ान, कौंराई और कूड़न को याद नहीं रखा लेकिन इन लोगों ने तालाब बनाए और इतिहास को किनारे पर रख दिया था।
देश के मध्य भाग में, ठीक हृदय में धड़कने वाला यह किस्सा उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम- चारों तरफ किसी न किसी रूप में फैला हुआ मिल सकता है और इसी के साथ मिलते हैं सैकड़ों, हजारों तालाब। इनकी कोई ठीक गिनती नहीं है। इन अनगिनत तालाबों को गिनने वाले नहीं, इन्हें तो बनाने वाले लोग आते रहे और तालाब बनते रहे।
किसी तालाब को राजा ने बनाया तो किसी को रानी ने, किसी को किसी साधारण गृहस्थ ने, विधवा ने बनाया तो किसी को किसी आसाधारण साधु-संत ने- जिस किसी ने भी तालाब बनाया, वह महाराज या महात्मा ही कहलाया। एक कृतज्ञ समाज तालाब बनाने वालों को अमर बनाता था और लोग भी तालाब बना कर समाज के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते थे।
समाज और उसके सदस्यों के बीच इस विषय में ठीक तालमेल का दौर कोई छोटा दौर नहीं था। एकदम महाभारत और रामायण काल के तालाबों को अभी छोड़ दें तो भी कहा जा सकता है कि कोई पांचवी सदी से पन्द्रहवीं सदी तक देश के इस कोने से उस कोने तक तालाब बनते ही चले आए थे। कोई एक हज़ार वर्ष तक अबाध गति से चलती रही इस परंपरा में पन्द्रहवीं सदी के बाद कुछ बाधाएं आने लगी थीं, पर उस दौर में भी यह धारा पूरी तरह से रुक नहीं पाई, सूख नहीं पाई। समाज ने जिस काम को इतने लंबे समय तक बहुत व्यवस्थित रूप में किया था, उस काम को उथल-पुथल का वह दौर भी पूरी तरह से मिटा नहीं सका। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के अंत तक भी जगह-जगह पर तालाब बन रहे थे।
लेकिन फिर बनाने वाले लोग धीरे-धीरे कम होते गए। गिनने वाले कुछ जरूर आ गए पर जितना बड़ा काम था, उस हिसाब से गिनने वाले बहुत ही कम थे और कमजोर भी।
इसलिए ठीक गिनती भी कभी हो नहीं पाई। धीरे-धीरे टुकड़ों में तालाब गिने गए, पर सब टुकड़ों का कुल मेल कभी बिठाया नहीं गया। लेकिन इन टुकड़ों की झिलमिलाहट पूरे समग्र चित्र की चमक दिखा सकती है।
लबालब भरे तालाबों को सूखे आंकड़ों में समेटने की कोशिश किस छोर से शुरू करें? फिर से देश के बीच के भाग में वापस लौटें।
आज के रीवा ज़िले का जोड़ौरी गांव है, कोई 2500 की आबादी का, लेकिन इस गांव में 12 तालाब हैं। इसी के आसपास है ताल मुकेदान। आबादी है बस कोई 1500 की पर 10 तालाब हैं गांव में। हर चीज़ का औसत निकालने वालों के लिए यह छोटा-सा गांव आज भी 150 लोगों पर एक अच्छे तालाब की सुविधा जुटा रहा है। जिस दौर में ये तालाब बने थे, उस दौर में आबादी और भी कम थी। यानी तब ज़ोर इस बात पर था कि अपने हिस्से में बरसने वाली हरेक बूंद इकट्ठी कर ली जाए और संकट के समय में आस-पास के क्षेत्रों में भी उसे बांट लिया जाए। वरुण देवता का प्रसाद गांव अपनी अंजुली में भर लेता था।
और जहां प्रसाद कम मिलता है? वहां तो उसका एक कण, एक बूंद भी भला कैसे बगरने दी जा सकती थी। देश में सबसे कम वर्षा के क्षेत्र जैसे राजस्थान और उसमें भी सबसे सूखे माने जाने वाले थार के रेगिस्तान में बसे हजारों गांवों के नाम ही तालाब के आधार पर मिलते हैं। गांवों के नाम के साथ ही जुड़ा है 'सर'. सर यानी तालाब। सर नहीं तो गांव कहां? यहां तो आप तालाब गिनने के बदले गांव ही गिनते जाएं और फिर इस जोड़ में 2 या 3 से गुणा कर दें।
जहां आबादी में गुणा हुआ और शहर बना, वहां भी पानी न तो उधार लिया गया, न आज के शहरों की तरह कहीं और से चुरा कर लाया गया। शहर ने भी गांवों की तरह ही अपना इंतज़ाम खुद किया। अन्य शहरों की बात बाद में, एक समय की दिल्ली में कोई 350 छोटे-बड़े तालाबों का जिक्र मिलता है।
गांव से शहर, शहर से राज्य पर आएं। फिर रीवा रियासत लौटें। आज के मापदंड से यह पिछड़ा हिस्सा कहलाता है। लेकिन पानी के इंतज़ाम के हिसाब से देखें तो पिछली सदी में वहां सब मिलाकर कोई 5000 तालाब थे।
नीचे दक्षिण के राज्यों को देखें तो आज़ादी मिलने से कोई सौ बरस पहले तक मद्रास प्रेसिडेंसी में 53000 तालाब गिने गए थे। वहां सन् 1885 में सिर्फ 14 जिलों में कोई 43000 तालाबों पर काम चल रहा था। इसी तरह मैसूर राज्य में उपेक्षा के ताजे दौर में, सन् 1980 तक में कोई 39000 तालाब किसी न किसी रूप में लोगों की सेवा कर रहे थे।
इधर-उधर बिखरे ये सारे आंकड़े एक जगह रख कर देखें तो कहा जा सकता है कि इस सदी के प्रारंभ में आषाढ़ के पहले दिन से भादों के अंतिम दिन तक कोई 11 से 12 लाख तालाब भर जाते थे- और अगले जेठ तक वरुण देवता का कुछ न कुछ प्रसाद बांटते रहते थे। क्योंकि लोग अच्छे-अच्छे काम करते जाते थे।