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बाल दिवस, 14 नवम्बर 2015 पर विशेष
1. राजाराम मोहन राय आन्दोलन के कारण बाल विवाह पर रोक लगी।
2. इसके बाद बाल दिवस पर देश भर में चिन्ता व्यक्त की जाती रही।
3. मगर बाल मजदूरी, कुपोषण, गन्दे पानी के सेवन से मौत को गले लगाना जैसी समस्या बच्चों के सामने आये दिन मुँहबाये खड़ी ही नजर आती हैं।
4. आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वाधिक बच्चे शौच के बाद शौच पोंछने के लिये पत्थर और पत्ते का ही सहारा लेते हैं।
देशभर में लाखों बच्चे ऐसे हैं जो दो जून की रोटी के लिये मोहताज ही नहीं बल्कि उनके के लिये प्रकृति प्रदत्त ‘पानी’ भी मय्यसर नहीं होता। यह हालात तब जब देश भर में सत्तासीन लोग बार-बार ऐसी दुहाई देने से नहीं थकते कि बच्चों को उचित सुरक्षा, बाल पोषण जैसी सरकार की विशेष योजना ही नहीं अपितु बाल विकास के लिये अलग से मंत्रालय भी है।
हालात इस कदर है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वाधिक बच्चे पानी के अभाव में शौच के बाद शौच पोंछने के लिये पत्थर और पत्ते का सहारा लेते हुए दिखाई देते हैं।
जब ऐसा है तो क्यों अपने देश में सर्वाधिक बच्चे कुपोषित पाये गए। यूनिसेफ की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पानी की कमी के कारण 700 मिलियन लोग स्वच्छता के अभाव में जीने के लिये मजबूर हैं। जिसका सीधा प्रभाव बच्चों के शारीरिक विकास पर पड़ रहा है।
वे कमजोर, बिकार, खून की कमी से त्रस्त हैं ही परन्तु उनका मानसिक विकास भी उम्र की गति के अनुसार नहीं बढ़ पा रहा है। उधर 2.1 प्रतिशत बच्चे गन्दे पानी पीने से जिन्दगी के पाँच बसन्त भी पूरे नहीं कर सकते। 42 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम पाया गया है। इसलिये बच्चों के सम्पूर्ण विकास बावत उनके खान-पान के परवरिश में ग्रामीण क्षेत्रों में 85 और शहरी क्षेत्रों मे 95 प्रतिशत पानी की आवश्यकता होती है।
रिपोर्ट कहती है कि यदि देशभर के प्राथमिक स्कूलों में स्वच्छ शौचालय, व्यवस्थित पेयजल की सुविधा बहाल हो जाये तो 84 प्रतिशत बच्चों को कुपोषण से बचाया जा सकता है। जबकि अमूमन देश भर के प्राथमिक विद्यालयों में शौचालय व पेयजल की सुविधा की जा चुकी है।
इन प्राथमिक विद्यालयों में पहुँचाई गई अधिकांश पाइप लाइनें या तो रख-रखाव के कारण जंग खा रही हैं या इन पाइप लाइनों में पानी ही नहीं आ रहा है। इस तरह 60 फीसदी प्राथमिक विद्यालय ऐसे हैं जो पानी के अभाव में जी रहे हैं जिसका असर वहाँ मौजूद अध्ययनरत बच्चों को उठाना पड़ रहा है।
उल्लेखनीय हो कि शौचालय है मगर पानी नहीं है, पाइपलाइन है फिर भी पानी नहीं है। ये स्थिति उन विद्यालयों की है जहाँ देश के ग्रामीण वर्ग के बच्चे अध्ययन करते हैं। इन्हीं स्कूलों में सरकारी स्तर के अध्ययन और प्रयोग भी होते रहते हैं।
अपने देश में जब बच्चों के लिये कोई नीति, नया स्लेबस, शिक्षण-प्रशिक्षण के तौर-तरीकों में नया प्रयोग आदि को लागू करना हो तो इसके सरकारी प्राइमरी स्कूल सबसे अच्छा प्लेटफार्म माना जाता है। परन्तु जिस तरह इन प्राइमरी स्कूलों को अन्य कार्यों के लिये प्रयोगशाला बना रहे हैं उसी तरह यदि समय रहते इन स्कूलों में पानी व शौचालय की विधिवत व्यवस्था की जाये तो लगभग 84 प्रतिशत से भी अधिक बच्चों के जीवन में एक बड़ा बदलाव स्वास्थ्य को लेकर सामने आता।
तब हम कह सकते हैं कि अपने देश में बच्चे किसी भी कुपोषण के शिकार नहीं हैं। इन खामियों को दूर करने के लिये जितनी जिम्मेदारी अभिभावकों की है उससे अधिक जिम्मेदारी सरकारों की है। क्योंकि बच्चों के विकास के लिये सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार की विकासीय योजनाएँ संचालित हो रही हैं। अर्थात इन सरकारी स्कूलों में पानी व शौचालय का उचित प्रबन्धन नहीं है।
मगर मौजूदा प्रबन्धन रख-रखाव के अभाव में बिखरा पड़ा है, जिसका ख़ामियाज़ा अन्ततोगत्वा बच्चों को ही उठाना पड़ता है। यही वजह हैं कि सरकारी प्राइमरी स्कूलों के बच्चे आगे जाकर शारीरिक, मानसिक समस्याओं से जूझते रहते हैं।
उदाहरणस्वरूप देश की जानी-मानी संस्था राजीव गाँधी फ़ाउंडेशन देश भर के 17 राज्यों में सरकारी प्राइमरी स्कूलों के साथ ‘लर्निंग बाय डूईंग’ नाम से एक प्रक्रिया संचालित कर रही है। जिसमें प्राइमरी स्कूलों के शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जा रहा है कि वे बच्चों की दक्षता के अनुरूप पाठ्यक्रम को पठन-पाठन का हिस्सा बनाएँ।
अलबत्ता मानसिक विकास तभी होगा जब बच्चे को स्कूल में खुला माहौल मिलेगा वगैरह। यानि रटने वाली प्रक्रिया से बच्चे में विकास नहीं हो रहा है। ऐसा राजीव गाँधी फ़ाउंडेशन की प्रक्रिया बताती है। इन्हें कौन समझाये कि बच्चे के मानसिक विकास के लिये सिर्फ-व-सिर्फ शिक्षण-प्रशिक्षण ही कोई विद्या नहीं है अपितु बच्चे के विकास में पानी, स्वच्छता व पर्यावरण की पहली प्राथमिकता है।
उसके बाद उसके मानसिक और शारीरिक विकास के बारे में कहा जा सकता है। राजीव गाँधी फ़ाउंडेशन एक उदाहरण है जबकि सरकारी स्तर पर भी इस तरह के अनेकों प्रयोग इन प्राइमरी स्कूलों में प्रत्येक सत्र में आरम्भ हो जाता है। अच्छा होता कि प्राइमरी स्कूलों में पठन-पाठन के लिये सर्वप्रथम स्वच्छ वातावरण का निर्माण किया जाता।
अगर ऐसा हो जाता तो हम कभी ऐसा भी नहीं कह सकते हैं कि अपने देश में बच्चे कुपोषण के शिकार हैं या पानी के अभाव में बच्चों में बिमारी फैल गई। कुल मिलाकर समय रहते प्राइमरी स्कूलों में विधिवत पेयजल की सुविधा हो जाये तो बच्चों को कुपोषण से बचाया ही जा सकता है साथ ही बच्चों के मानसिक व शारीरिक विकास के लिये किये जा रहे प्रयोग भी सफल नजर आएँगे।