हिमाचल प्रदेश स्थित हमीरपुर और इसके आसपास के जिलों के लोग पानी संकट से निपटने के लिए फिर से पारंपरिक वर्षा जल ढांचों को पुनर्जीवित करने और नए ढांचों के निर्माण में जुट गए हैं। हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों में ऐसे जल संग्रहण ढांचों को खत्री के नाम से पुकारा जाता है।
खत्री वास्तव में हाथ से बनी गुफा होती है, जिसे पहाड़ों की सख्त चट्टान में बनाया जाता है, जिसमें वर्षा जल का संग्रहण होता है। इन खत्रियों से लोगों की पर्याप्त पानी की आपूर्ति होती रहती है। हिमाचल प्रदेश के इस भू-भाग में सदियों से वर्षा जल संग्रहण की इसी तकनीकी का उपयोग किया जाता रहा है।
लेकिन जब लोगों को सरकारी पाइपों से घर तक पानी मिलने लगा तो वे खत्रियों को नजर अंदाज करने लगे। परन्तु अभी हाल के सूखे और पानी संकट की स्थिति को देखते हुए लोग फिर से इन पारंपरिक ढांचों के महत्व का एहसास करने लगे हैं। आज इन्हीं खत्रियों से लोगों को पानी उपलब्ध कराया जा रहा है।
हमीरपुर जिले में आपको हर कहीं खत्रियां देखने को मिल जाएंगी। इन पर समाज के विभिन्न समूहों की या व्यक्तिगत मलकियत है जैसेः व्यक्तिगत खत्री, पंचायत की खत्री, स्कूल की खत्री और मंदिर की खत्री। इन खत्रियों में लोग पूरे साल का पानी वर्षा से एकत्रित कर लेते हैं। हमीरपुर के एक पत्रकार पंकज कुमार कहते हैं कि “गर्मियों में पानी का काफी संकट हो जाता है। अत: हमें नियमित पानी प्राप्त करने के लिए इन खत्रियों को जीवित रखना होगा।“
हमीरपुर से ट्रिब्यून के संवाददाता श्री चन्द्रशेखर शर्मा का कहना है कि “चूँकि यहां पानी का कोई साधन नहीं है, अत: लोग पानी के लिए इन्हीं खत्रियों पर निर्भर रहते हैं। हमीरपुर के अलावा कांगड़ा और मंडी जिलों में भी खत्री का काफी चलन है। हमीरपुर जिले में हर मायने में अच्छा काम-काज चल रहा है, लेकिन पीने के पानी के लिए इन्हें बरसात आने तक इंतजार करना पड़ता है। सिर्फ 3 से 4 प्रतिशत क्षेत्र ही सिंचाई के दायरे में है।“
उनका आगे कहना था कि “हमीरपुर मंडी और कांगड़ा जिलों में दो तरह की खत्रियां पाई जाती हैं। पहले तरह की खत्री में टिन और पाइपों के जरिए पहाड़ों की सतह के पानी को खत्रियों में जमा किया जाता है और इस पानी का उपयोग जानवरों और साफ-सफाई के लिए किया जाता है। दूसरे तरह की खत्रियों में रिसाव के जरिए खादी पर पानी को संग्रहित किया जाता है और इस पानी का पेयजल के रूप में उपयोग होता है। वर्षा ऋतु आने से पहले इन खत्रियों को अच्छी तरह से साफ किया जाता है और इसे क्लोरीनीकृत किया जाता है।“
हमीरपुर प्रखण्ड में कलंजरी देवी गांव के सत्यदेव का कहना है कि “ये ढांचे हमारे पूर्वजों ने बनाए हैं, हमें तो ये सब विरासत में प्राप्त हुई हैं। हम तो वर्षा ऋतु आने से पहले इनकी सफाई करते हैं। हमारी खत्रियां में भी स्वच्छ पानी है, क्योंकि इसमें विभिन्न चट्टानों से पानी रिस-रिसकर फिल्टर होता हुआ पहुंचता है। हमीरपुर के निकट घरने दा गालू गांव के खेल सिंह कहते हैं कि “इसका पानी प्रकृति के जरिए स्वच्छ होकर पहुंचता है, अत: इसकी स्वच्छता का तो कोई सवाल ही नहीं उठता है।“
हमीरपुर स्थित थानी देवी प्रखण्ड में किरियाली गांव के फूल सिंह ने बताया कि “हमारे गाँव में 45 घर हैं लेकिन हमने 70-80 खत्रियां बनाई हुई हैं। हमने अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए एक से ज्यादा खत्रियां बनाई हुई हैं। लोग परिवार का आकार बढ़ने पर एक और नई खत्री बना डालते हैं। हमरीपुर प्रखण्ड के स्थित कालजरी देवी गांव के संतोष कुमार ने बताया कि “ये खत्रियां कठोर पहाड़ी चट्टानों पर बनाई जाती हैं, जिससे पानी का कम रिसाव हो। हमारे पास मानव और जानवरों के लिए अलग-अलग खत्रियां हैं। पेयजल के लिए उपयोग होने वाले खत्रियो को आमतौर पर बंद करके रखा जाता है। ये ढांचे आमतौर बंद करके रखा जाता है। ये ढांचे आमतौर पर 10x12 फीट आकार के कक्ष जैसे होते हैं। इनकी ऊँचाई 5 से 6 फीट की होती हैं ।
हमीरपुर स्थित लोहारी गांव के खय लोहाखारी पंचायत के धरम सिंह ने बताया कि “हमारे पास अपनी खुद की खत्रियों के अलावा सरकारी खत्रियां भी हैं। इसकी मलकियत और रखरखाव पंचायत के हाथ में है। परन्तु इसकी स्थिति ठीक नहीं है। इसमें सुधार किया जा सकता है, लेकिन किसी भी तरफ से इस पर कोई पहल नहीं हो रही है।“ इसी गांव के रघुवीर सिंह ने बताया कि “इन खत्रियों से हमारी पानी की जरूरत पूरी होती हैं और यह हमारे पानी संकट से निपटने के लिए काफी उपयोगी है, परन्तु सामुदायिक पूँजी की सुरक्षा करने के लिए गांव में एकता का अभाव है।“
सुजानपुर प्रखण्ड के जूनियर इंजीनियर आर के राणा का कहना है कि “इन खत्रियों को बनाने के लिए राजमिस्त्रियों की पारंपरिक ज्ञात ही काम आती है। ये सबसे पहले चट्टानों की जांच करते हैं और फिर खत्री बनाने के लिए स्थलों का चुनाव करते हैं। एक खत्री बनाने में 10 से 20 हजार रुपए तक का खर्च आता है। इन खत्रियों को हाथ से बनाया जाता है, जिसमें छोटे-छोटे उपकरणों की मदद ली जाती है जैसे छंनी और हथौड़ा। हमीरपुर स्थित थानी प्रखण्ड में सछूई प्राथमिक स्कूल के हेडमास्टर छत्तर सिंह कहते हैं कि “एक गांव में खत्रियां बनाने वाले एक या दो राजमिस्त्री होते हैं और वे भी अब सिर्फ कुछ ही गांव में हैं। हम उन्हें भोजन व अन्य सुविधाओं के अलावा 200 रुपए प्रतिदिन का भुगतान भी करते हैं।“