पानी

Submitted by Hindi on Wed, 10/08/2014 - 16:34
Source
साक्ष्य मैग्जीन 2002
आदमी तो आदमी
मैं तो पानी के बारे में भी सोचता था
कि पानी को भारत में बसना सिखाऊंगा

सोचता था
पानी होगा आसान
पूरब जैसा
पुआल के टोप जैसा
मोम की रौशनी जैसा

गोधूलि में उस पार तक
मुश्किल से दिखाई देगा
और एक ऐसे देश में भटकाएगा
जिसे अभी नक्शे में आना है

ऊंचाई पर जाकर फूल रही लतर
जैसे उठती रही हवा में नामालूम गुंबद तक
यह मिट्टी के घड़े में भरा रहेगा
जब भी मुझे प्यास लगेगी

शरद में हो जाएगा और भी पतला
साफ और धीमा
किनारे पर उगे पेड़ की छाया में

सोचता था
यह सिर्फ शरीर के ही काम नहीं आएगा
जो रात हमने नाव पर जगकर गुजारी
क्या उस रात पानी
सिर्फ शरीर तक आकर लौटता रहा
क्या-क्या बसाया हमने
जब से लिखना शुरू किया

उजड़ते हुए बार-बार
उजड़ने के बारे में लिखते हुए
पता नहीं वाणी का
कितना नुकसान किया

पानी सिर्फ वही नहीं करता
जैसा उससे करने के लिए कहा जाता है
महज एक पौधे को सींचते हुए पानी
उसकी जरा-सी जमीन के भीतर भी
किस तरह जाता है

क्या स्त्रियों की आवाजों में बच रही हैं
पानी की आवाजें
और दूसरी सब आवाजें कैसी हैं

दुखी और टूटे हुए हृदय में
सिर्फ पानी की रात है
वहीं है आशा और वहीं है
दुनिया में फिर से लौट आने की अकेली राह