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अमर उजाला, देहरादून, 06 जनवरी 2003
नौले के जलस्रोत अत्यंत संवेदनशील होते हैं। इनके ढांचों में छेड़-छाड़ का परिणामस्रोत के सूखने में होता है। अनेक स्थानों में परंपरागत नौलों को बंद कर उन्हें आधुनिक पेयजल ढांचे में परिवर्तित करने की घटनाओं में ऐसे उदाहरण सामने आए हैं। उत्तरांचल में नौले गढ़वाल की बनिस्वत कुमाऊं में अधिक हैं। आमतौर पर ये उन स्थानों में बने हैं जहां पानी की बहुतायत नहीं है। धरती में पीने लायक पानी की मात्रा बहुत सीमित है और यह लगातार घटती जा रही है। इसलिए पानी को इक्कीसवीं सदी का सबसे कीमती संसाधन बताया जा रहा है। विश्व बैंक व बहुराष्ट्रीय कंपनियां पानी के संभावित बाजार पर कब्ज़ा करने के लिए तीसरी दुनिया के देशों पर लगातार दबाव डाल रही हैं। लोक-लुभावन शब्दों में ग्रामीणों को यह बता जा रहा है कि प्रकृति के इस अनमोल उपहार को मुफ्त में लेना अब संभव नहीं, इसलिए आप इसके लिए पैसे देना सीखिए और इसके रखरखाव व मरम्मत का ज़िम्मा भी खुद उठाइए। इस परिदृश्य में हिमालय के कठिन भूगोल में रहने वाले उन निवासियों के बारे में सोचें जो आज से केवल 50 साल पहले तक पानी की ज़रूरतों के लिए किसी सरकारी एजेंसी के मोहताज नहीं थे। सदियों के अनुभव ने उन्हें सिखाया था कि जलस्रोत का, उसके मिज़ाज के अनुरूप, रखरखाव कैसे किया जाता है और इसको सदाबहार रखने के लिए क्या उपाय किये जाने चाहिए।
हिमालयी क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता के स्तर में पर्याप्त विविधता मिलती है। यहां के निवासियों ने उपलब्धता के अनुरूप अपने जल संग्रह ढांचे निर्मित करने का ज्ञान पीढ़ियों की जल-प्रबंध दक्षता के नायाब नमूने हैं। इनमें भी कुमाऊं के नौले अपने स्थापत्य व जल-संरक्षण क्षमता के लिहाज से सर्वोत्कृष्ट कहे जा सकते हैं। सदियों से स्थानीय ग्रामीणों की पेयजल आवश्यकताओं को पूरा कर रहे ये नौले आज भी बूढ़े नहीं हुए हैं। नौले प्रायः ऐसे जलस्रोत पर निर्मित होते है जो निचली घाटियों के समतल ढलानों में स्थित हों और पानी ऊंचाई से न गिरकर ज़मीन के भीतर से रिसकर बाहर आता हो। मूलतः यह बावड़ीनुमा संरचना है जिसे मंदिर की तरह दो या तीन ओर से बंद कर ऊपर छत डाल दी जाती है। नौलों के तल का आकार यज्ञवेदी का ठीक उल्टा होता है। पानी वर्गाकार सीढ़ीनुमा बावड़ी में एकत्रित होता है। इन सीढ़ियों को पत्थरों से जोड़कर इस प्रकार बनाया जाता है कि पत्थरों के बीच की दरारों से रिसकर स्रोत का पानी बावड़ी में इकट्ठा होता रहे। लेकिन कई जलस्रोत नौले से 1 से 5 मीटर की दूरी पर भी पाए गए और पानी नालियों द्वारा नौले की बावड़ी तक पहुंचाया जाता है। सामान्य ग्रामीणों द्वारा बनाए गए नौले बनावट में साधारण और विरूप होते हैं। लेकिन प्राचीन शासकों या ओहदेदारों द्वारा निर्मित नौले अत्यंत नक्काशीदार एवं भव्य है। इन्हें एक, दो या कभी-कभी तीन ओर से खुला रखा गया है। कई नलों में स्नानगृह अथवा बैठने के चबूतरे भी बने हुए हैं। नौलों का स्थापत्य इतिहास में किसी गांव की हैसियत का भी प्रमाण है।
नौलों के निकट वृक्षारोपण भी परंपरागत जल प्रबंधन का हिस्सा है। इन वृक्षों में अधिकांशतः सिलिंग, पीपल, बड़ जैसे छायादार, लंबी उम्र और धार्मिक रूप से पवित्र समझे जाने वाले वृक्षों को लगाया जाता है। नौलों की स्वच्छता बनाए रखने के लिए इन्हें मंदिर के बराबर दर्जा दिया गया है। ग्रामीण जीवन में इनकी महत्ता का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि विवाह के बाद जब नववधू पहली बार अपने ससुराल पहुँचती है तो सबसे पहले उसे नौला-पूजन हेतु ले जाया जाता है। इस अवसर पर स्त्रियां नौले से प्रार्थना करती हैं-
‘स्यौ पूजा माई सीता देही, स्त्री पूजा माई उरमिणी
जलम-जलम ऐवांती सेवा, पिंहला ऐंपण थापि सेवा।’
(हे जल बावड़ी! सीता देही, उर्मिला देही तुम्हारी सेवा-पूजा कर रही है। उनको जन्म-जन्मांतर सौभाग्यवती, पुत्रवती रखना, सब महिलाओं के नामद्ध नई दुल्हन सब तुम्हारी सेवा-पूजा कर रहे हैं)
नौले के जलस्रोत अत्यंत संवेदनशील होते हैं। इनके ढांचों में छेड़-छाड़ का परिणामस्रोत के सूखने में होता है। अनेक स्थानों में परंपरागत नौलों को बंद कर उन्हें आधुनिक पेयजल ढांचे में परिवर्तित करने की घटनाओं में ऐसे उदाहरण सामने आए हैं। उत्तरांचल में नौले गढ़वाल की बनिस्वत कुमाऊं में अधिक हैं। आमतौर पर ये उन स्थानों में बने हैं जहां पानी की बहुतायत नहीं है। उच्च हिमालयी बस्तियों में हिमशिखरों से पर्याप्त मात्रा में पानी बहकर आता है। अतः इन क्षेत्रों में जल-संग्रहण की विकसित परंपराएं नहीं हैं। निचली घाटियों के ग्रामीण पानी की जरुरतें नदियों से पूरी करते हैं अतः मध्यवर्ती पहाड़ियों में जहां पानी की अपेक्षाकृत कमी है, जल संग्रहण की समृद्धि (परंपराएं हैं) यही नौले ज्यादा संख्या में पाए जाते हैं।
कुमाऊं में प्राचीन गढ़ियों/ बसासतों के निकट ऐतिहासिक नौले अधिक संख्या में हैं। कुमाऊं राज्य की पुरानी राजधानी चम्पावत, सोर, सीराकोट, गंगोली, अल्मोड़ा नगर, द्वाराहाट क्षेत्र, कत्यूर घाटी सहित लगभग हर पुरानी बसासतों के निकट अनेक प्राचीन ऐतिहासिक नौले मौजूद हैं। कई प्रमुख नगरों में, जब आधुनिक पेयजल व्यवस्थाएं दम तोड़ देती हैं, पुराने नौले जलापुर्ति के एकमात्र विकल्प साबित होते हैं।
हिमालयी क्षेत्रों में पानी की उपलब्धता के स्तर में पर्याप्त विविधता मिलती है। यहां के निवासियों ने उपलब्धता के अनुरूप अपने जल संग्रह ढांचे निर्मित करने का ज्ञान पीढ़ियों की जल-प्रबंध दक्षता के नायाब नमूने हैं। इनमें भी कुमाऊं के नौले अपने स्थापत्य व जल-संरक्षण क्षमता के लिहाज से सर्वोत्कृष्ट कहे जा सकते हैं। सदियों से स्थानीय ग्रामीणों की पेयजल आवश्यकताओं को पूरा कर रहे ये नौले आज भी बूढ़े नहीं हुए हैं। नौले प्रायः ऐसे जलस्रोत पर निर्मित होते है जो निचली घाटियों के समतल ढलानों में स्थित हों और पानी ऊंचाई से न गिरकर ज़मीन के भीतर से रिसकर बाहर आता हो। मूलतः यह बावड़ीनुमा संरचना है जिसे मंदिर की तरह दो या तीन ओर से बंद कर ऊपर छत डाल दी जाती है। नौलों के तल का आकार यज्ञवेदी का ठीक उल्टा होता है। पानी वर्गाकार सीढ़ीनुमा बावड़ी में एकत्रित होता है। इन सीढ़ियों को पत्थरों से जोड़कर इस प्रकार बनाया जाता है कि पत्थरों के बीच की दरारों से रिसकर स्रोत का पानी बावड़ी में इकट्ठा होता रहे। लेकिन कई जलस्रोत नौले से 1 से 5 मीटर की दूरी पर भी पाए गए और पानी नालियों द्वारा नौले की बावड़ी तक पहुंचाया जाता है। सामान्य ग्रामीणों द्वारा बनाए गए नौले बनावट में साधारण और विरूप होते हैं। लेकिन प्राचीन शासकों या ओहदेदारों द्वारा निर्मित नौले अत्यंत नक्काशीदार एवं भव्य है। इन्हें एक, दो या कभी-कभी तीन ओर से खुला रखा गया है। कई नलों में स्नानगृह अथवा बैठने के चबूतरे भी बने हुए हैं। नौलों का स्थापत्य इतिहास में किसी गांव की हैसियत का भी प्रमाण है।
नौलों के निकट वृक्षारोपण भी परंपरागत जल प्रबंधन का हिस्सा है। इन वृक्षों में अधिकांशतः सिलिंग, पीपल, बड़ जैसे छायादार, लंबी उम्र और धार्मिक रूप से पवित्र समझे जाने वाले वृक्षों को लगाया जाता है। नौलों की स्वच्छता बनाए रखने के लिए इन्हें मंदिर के बराबर दर्जा दिया गया है। ग्रामीण जीवन में इनकी महत्ता का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि विवाह के बाद जब नववधू पहली बार अपने ससुराल पहुँचती है तो सबसे पहले उसे नौला-पूजन हेतु ले जाया जाता है। इस अवसर पर स्त्रियां नौले से प्रार्थना करती हैं-
‘स्यौ पूजा माई सीता देही, स्त्री पूजा माई उरमिणी
जलम-जलम ऐवांती सेवा, पिंहला ऐंपण थापि सेवा।’
(हे जल बावड़ी! सीता देही, उर्मिला देही तुम्हारी सेवा-पूजा कर रही है। उनको जन्म-जन्मांतर सौभाग्यवती, पुत्रवती रखना, सब महिलाओं के नामद्ध नई दुल्हन सब तुम्हारी सेवा-पूजा कर रहे हैं)
नौले के जलस्रोत अत्यंत संवेदनशील होते हैं। इनके ढांचों में छेड़-छाड़ का परिणामस्रोत के सूखने में होता है। अनेक स्थानों में परंपरागत नौलों को बंद कर उन्हें आधुनिक पेयजल ढांचे में परिवर्तित करने की घटनाओं में ऐसे उदाहरण सामने आए हैं। उत्तरांचल में नौले गढ़वाल की बनिस्वत कुमाऊं में अधिक हैं। आमतौर पर ये उन स्थानों में बने हैं जहां पानी की बहुतायत नहीं है। उच्च हिमालयी बस्तियों में हिमशिखरों से पर्याप्त मात्रा में पानी बहकर आता है। अतः इन क्षेत्रों में जल-संग्रहण की विकसित परंपराएं नहीं हैं। निचली घाटियों के ग्रामीण पानी की जरुरतें नदियों से पूरी करते हैं अतः मध्यवर्ती पहाड़ियों में जहां पानी की अपेक्षाकृत कमी है, जल संग्रहण की समृद्धि (परंपराएं हैं) यही नौले ज्यादा संख्या में पाए जाते हैं।
कुमाऊं में प्राचीन गढ़ियों/ बसासतों के निकट ऐतिहासिक नौले अधिक संख्या में हैं। कुमाऊं राज्य की पुरानी राजधानी चम्पावत, सोर, सीराकोट, गंगोली, अल्मोड़ा नगर, द्वाराहाट क्षेत्र, कत्यूर घाटी सहित लगभग हर पुरानी बसासतों के निकट अनेक प्राचीन ऐतिहासिक नौले मौजूद हैं। कई प्रमुख नगरों में, जब आधुनिक पेयजल व्यवस्थाएं दम तोड़ देती हैं, पुराने नौले जलापुर्ति के एकमात्र विकल्प साबित होते हैं।