प्राणियों में दिखाई देने लगा है ग्लोबल वार्मिंग का असर

Submitted by Hindi on Wed, 04/03/2013 - 09:32
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नैनीताल समाचार 15 जनवरी, 2003
ग्रीन हाउस प्रभाव के कारणों व परिणाम पर विवाद के बावजूद वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि तकनीक अनुभव और संसाधनों की भागीदारी के जरिए हमें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण रखना चाहिए। ऊर्जा के प्रदूषण रहित विकल्पों का प्रयोग करना चाहिए तथा अधिक से अधिक सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ग्लोबल वार्मिंग और वातावरणीय परिवर्तन का असर पूरी धरती पर एक जैसा महसूस नहीं होगा। गरीब देशों को इसकी मार अधिक निर्ममता से सहनी पड़ेगी। दुनिया में बढ़ते प्रदूषण और वानस्पतिक आवरण में आई कमी के कारण धरती गर्म हो रही है। यह माना जा रहा है कि उद्योगों से पैदा होने वाले धुएँ खास तौर पर कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, सीएफसी और ओज़ोन आदि गैसों की वायुमंडल में मौजूदगी सूर्य की अतिरिक्त गर्मी को ब्रह्मांड में वापस जाने से रोकती है, जिससे वातावरण का तापमान लगातार बढ़ रहा है। वैज्ञानिक इसे ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ कहते हैं और इससे पैदा होने वाली गर्मी को ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का नाम दिया गया है। अनेक वैज्ञानिकों का मानना है कि वातावरण में आ रहे विनाशकारी बदलाव ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम हैं। 1998 को पिछले हिमयुग के बाद का सबसे गर्म वर्ष माना गया है। अब तक के दस सर्वाधिक गर्म वर्षों में से आठ पिछले दशक में पड़े हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि सन् 2050 तक धरती का तापमान औसतन 2 डिग्री बढ़ जाएगा और सदी के अंत तक यही वृद्धि 3 डिग्री सेंटीग्रेड तक पहुंच जाएगी। ऊपरी तौर पर यह वृद्धि मामूली दिखाई पड़ती है, लेकिन लगभग 20,000 वर्ष पूर्व पिछले हिमयुग का औसत तापमान आज से मात्र 6 से 8 डिग्री सेंटीग्रेड कम था। इस दृष्टि से आगामी तापमान वृद्धि की भयावहता का अंदाज़ लगाया जा सकता है।

मौसम के अनियंत्रित व्यवहार, जैसे सूखा, अतिवृष्टि, चक्रवात और समुद्री हलचलों को वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ते हैं। पिछले कुछ दशकों में ध्रुवों में इकट्ठा बर्फ के पिघलने की रफ्तार में जबर्दस्त तेजी दर्ज की गयी है। अमेरिकी अंतरिक्ष शोध संस्था ‘नासा’ के एक अध्ययन के अनुसार मौजूद सदी के बीतते-बीतते आर्कटिक महासागर में गर्मी के मौसम में मिलने वाली बर्फ गायब हो चुकी होगी। 1978 से 2000 के बीच यहां के 12 लाख वर्ग किमी क्षेत्र से बर्फ पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। नासा के वैज्ञानिक कास्मिसो के अनुसार यदि बर्फ के स्थाई आवरण समाप्त होने पर आर्कटिक महासागर की पारिस्थितिकी में बुनियादी बदलाव आएंगे, जिससे ग्लोबल वार्मिंग को नया आवेग मिलेगा तथा ध्रुवीय भालुओं का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। तापमान वृद्धि का असर अब जीव-जंतुओं और पौधों पर भी दिखाई देने लगा है। विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ के ताज़ा अंक में प्रकाशित एक शोध अध्ययन के अनुसार मेढक से लेकर फूलदार पौधों तक में स्पष्ट दिखाई पड़ने वाले ये बदलाव ग्लोबल वार्मिंग की वैश्विक परिघटना के स्पष्ट संकेत चिन्ह (फ़िंगर प्रिंट्स) हैं।

अमेरिका के दो वैज्ञानिकों कैमिला पार्मेसन तथा गैरी वैस्लीयन ने वातावरण में आए बदलाव का जैविक प्रभाव जानने के लिए पौधों व जंतुओं की 1700 प्रजातियों पर अध्ययन किए। उनके अनुसार ये प्रजातियाँ लगभग 6.1 किमी प्रति दशक की रफ्तार से ध्रुवों की ओर खिसक रही हैं और प्रत्येक दशक के बाद बसंत के मौसम जंतुओं के अंडे देने व प्रवास काल में 2-3 दिन की कमी दर्ज की जा रही है। एक अन्य अमेरिकी वैज्ञानिक टैरी रूट और उनके सहयोगियों ने 1473 प्रजातियों पर किए गए अध्ययनों के हवाले से बताया है कि प्राणियों व पौधों में तापमान परिवर्तन से उत्पन्न प्रभाव ग्लोबल वार्मिंग के असर को प्रमाणित करते हैं। उनके अनुसार अधिक ऊंचाई में रहने वाले प्राणी इन परिवर्तनों से ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं। क्योंकि ये स्थान तापमान-परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।

हिमालय के 2500 किमी. के विस्तार के अध्ययन बताते हैं कि सभी ग्लेशियर तीव्र गति से सिकुड़ रहे हैं और वृक्षरेखा ऊपर की ओर जा रही है। गंगा नदी का मुहाना गोमुख ग्लेशियर पिछली एक सदी में 19 किमी। पीछे खिसका है। अब इसके खिसकने की रफ्तार 98 फीट प्रतिवर्ष पहुंच गयी है। यह रफ्तार बनी रही तो वैज्ञानिकों का आंकलन है कि सन 2035 तक मध्य व पूर्वी हिमालय के सारे ग्लेशियर लुप्त हो जायेंगे। चीन की तिंयेन शान पर्वत श्रृंखला में पिछले 40 वर्षों के दौरान ग्लेशियरों की बर्फ एक चौथाई रह गयी है। हिमालय के अनेक जंतु एवं वानस्पतिक प्रजातियाँ भी पारिस्थिकी में आए परिवर्तनों के कारण विलुप्त हो गये हैं।

रूट कहती हैं कि उक्त परिघटना को भविष्य का संकेत पर समझना चाहिए। क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के ये लक्षण पिछली एक सदी के तापमान में मामूली बढ़ोतरी से पैदा हुए हैं। लेकिन सन् 2100 में विश्व पारिस्थितिकी में आने वाले बदलावों की कल्पना करें, जब तापमान के 3 डिग्री तक बढ़ जाने की उम्मीद की जा रही है। बाढ़ और सुखाड़ की संख्या और तीव्रता दोनों में वृद्धि की आशंका जताई जा रही है। बढ़े हुए तापमान में मलेरिया महामारी का रूप ले सकता है। 1997 में इंडोनेशिया के 6900 फीट ऊँचाई वाले क्षेत्र इरियान जाया में मलेरिया का हमला पहुंच चुका था। ग्रीन हाउस प्रभाव के कारणों व परिणाम पर विवाद के बावजूद वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं कि तकनीक अनुभव और संसाधनों की भागीदारी के जरिए हमें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण रखना चाहिए। ऊर्जा के प्रदूषण रहित विकल्पों का प्रयोग करना चाहिए तथा अधिक से अधिक सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ग्लोबल वार्मिंग और वातावरणीय परिवर्तन का असर पूरी धरती पर एक जैसा महसूस नहीं होगा। गरीब देशों को इसकी मार अधिक निर्ममता से सहनी पड़ेगी।