कुछ विकसित देशों ने विकासशील देशों पर पर्यावरण सम्बन्धी जो शर्तें लगाई हैं उनसे भारत के चमड़े और कपड़े के निर्यात को गम्भीर खतरा उत्पन्न हुआ है। लेखक ने आगाह किया है कि इससे कृषि पदार्थों के निर्यात पर भी असर पड़ सकता है। अपने व्यापारिक साझेदारों की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय उद्योगों को पर्यावरण सम्बन्धी उच्च मानक अपनाने होंगे।
ओजोन को समाप्त करने वाले सामान्य पदार्थों में क्लोरो-फ्लूरोकार्बन प्रमुख हैं जिनका इस्तेमाल रेफ्रीजरेशन उद्योग, एयरोसोल प्रोपेलेन्ट के उत्पादन और सर्फेट ट्रीटमेंट एजेंट्स के रूप में होता है। विकसित देशों में 1996 तक आमतौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले 5 क्लारो-फ्लूरो कार्बन का उपयोग समाप्त किया जाना था। समझौते में 0.3 किलोग्राम से कम वार्षिक खपत वाले विकसित देशों को इन प्रतिबंधित पदार्थों का उपयोग बंद करने के लिए दस साल का समय दिया गया है। आर्थिक विकास के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी उत्पन्न होती है। कई दशकों तक आर्थिक विकास की तेज रफ्तार के बाद अब विश्व समुदाय को यह महसूस होने लगा है कि टिकाऊ या स्थायी विकास कितना जरूरी है। लेकिन टिकाऊ विकास का लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता है जब विश्व के सभी अथवा अधिकतर देश एक-दूसरे से सहयोग करें। इसके अलावा कई ऐसे सम्भावित व्यापारिक अवरोध और विवाद भी हैं जिन्हें सुलझाना बड़ा मुश्किल है।
उदाहरण के लिए वर्षा-वनों का संरक्षण समूची मानव जाति के लिए गम्भीर चिन्ता का विषय है क्योंकि ये वन हमारे पर्यावरण सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण संसाधन हैं। लेकिन मलेशिया जैसे देश के लिए जहाँ संरक्षित वर्षा-वन पाए जाते हैं, ये जंगल महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधन भी हैं जिनका उपयोग देश के आर्थिक विकास के लिए किया जा सकता है।
इसलिए विश्व समुदाय के कल्याण के उद्देश्य से मलेशिया जैसे देशों से अपने आर्थिक हितों की बलि चढ़ाने को कहा जा रहा है। दुनिया को टिकाऊ विकास की दिशा में आगे बढ़ाने में इस तरह के कठिन मुद्दे उभर कर सामने आ रहे हैं।
पर्यावरण के बारे में कई अन्तरराष्ट्रीय समझौते हुए हैं जिनका व्यापार पर काफी असर पड़ा है। इसके अलावा कुछ देश पर्यावरण संरक्षण के मामले में ऐसे एकतरफा कदम भी उठा रहे हैं जिनका उनके साझेदार देशों के व्यापार पर बुरा असर पड़ा है।
अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के बारे में उरुग्वे दौर की वार्ता के बाद विश्व व्यापार संगठन तथा उसके पूर्ववर्ती व्यापार और तटकर सम्बन्धी आय समझौते (गैट) में इस बात का अध्ययन किया गया है कि व्यापार और पर्यावरण जैसे मुद्दों के बीच टकराव कहाँ पैदा होता है। इस आलेख में इन्हीं सब बातों पर विचार किया गया है।
पिछले तीन दशकों में पर्यावरण और जैव-विविधता के संरक्षण के बारे में कई अन्तरराष्ट्रीय समझौते हुए हैं। इनमें से कुछ समझौते जिनमें भारत भी भागीदार है, इस प्रकार हैं:
लुप्तप्राय प्रजातियों के व्यापार सम्बन्धी करार
वन्य जीवों तथा वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अन्तरराष्ट्रीय व्यापार सम्बन्धी करार पर 3 मार्च, 1973 को हस्ताक्षर किए गए और एक जुलाई, 1975 से यह समझौता लागू हुआ। इसके जरिए एक ऐसी विश्वव्यापी प्रणाली कायम हुई है जिससे अस्तित्व समाप्ति के खतरे का सामना कर रहे जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों तथा उनसे प्राप्त पदार्थों का एक देश से दूसरे देश को व्यापार रोका जाता है।
इस संधि के तहत विलुप्त प्राय प्रजातियों के संरक्षण के लिए व्यापारिक उपाय किए गए हैं। इसके अलावा जिन प्रजातियों के लुप्तप्राय हो जाने की आशंका है उनके व्यापार पर भी कठोर पाबंदियाँ लगाई गई हैं।
इन प्रजातियों के व्यापार के लिए हस्ताक्षरकर्ता देशों के अधिकृत अधिकारियों की अनुमति होना आवश्यक है। भारत की आयात-निर्यात नीति में समझौते के परिशिष्ट 1 और 2 में दी गई प्रजातियों के निर्यात पर प्रतिबंध है। इसी प्रकार वन्य जीवों, उनके शरीर के अंगों तथा उनसे बनने वाली वस्तुओं जैसे हाथी दाँत के आयात पर भी भारत में प्रतिबंध है।
लेकिन जंगली जीवों के अवैध शिकार और व्यापार की रोकथाम बड़ी कठिन है क्योंकि इसके लिए देश में उपलब्ध बुनियादी ढाँचा बहुत कमजोर है। फिर भी नियंत्रक एजेंसियों ने लुप्तप्राय जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों के अवैध शिकार तथा व्यापार को कम करने में कुछ सफलता प्राप्त की है।
बेसेल समझौता
खतरनाक अपशिष्ट पदार्थों को एक देश से दूसरे देश ले जाने पर नियन्त्रण और उनके निपटान के लिए 22 मार्च, 1989 को बेसेल समझौता किया गया। यह समझौता 5 मई, 1992 से लागू हुआ। इस समझौते में खतरनाक तथा जहरीले अपशिष्ट पदार्थों के निपटान की गम्भीर समस्या के समाधान का प्रयास किया गया है।
इस तरह के अपशिष्टों को एक देश से दूसरे देश में लाने ले जाने, उन्हें समुद्र में फेंक दिए जाने तथा विकसित देशों से इन्हें विकासशील देशों को भेजे जाने पर नियन्त्रण का भी समझौते में प्रावधान है। बेसेल समझौते के सिलसिले में मार्च, 1994 में आयोजित दूसरी बैठक में फैसला किया गया कि ओ.ई.सी.डी. देशों से गैर-ओ.ई.सी.डी. देशों को भेजे जाने वाले जोखिमयुक्त अपशिष्ट पदार्थों पर तत्काल रोक लगाई जाए।
इसके अलावा बैठक में एक और प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसमें 31 दिसंबर, 1997 तक अपशिष्ट पदार्थों से अन्य पदार्थ बनाने या बचे-खुचे उपयोगी पदार्थ निकालने के लिए इन्हें एक देश से दूसरे देश ले जाने पर भी धीरे-धीरे रोक लगाने का प्रावधान है।
कुछ भारतीय उद्योग अपशिष्ट पदार्थों से दूसरे पदार्थ बनाने या अन्य औद्योगिक उपयोग के लिए काफी समय से इनका आयात कर रहे हैं। अदालत के एक फैसले के तहत अब इस तरह के आयात पर पाबंदी लग गई है।
मान्ट्रियल समझौता
क्लोरो-फ्लूरो कार्बन और हेलोन जैसे ओजोन-नाशक पदार्थों से ओजोन परत पतली पड़ गई है। इससे अल्ट्रावायलेट विकिरण बढ़ गया है जिससे मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँच सकता है। 1985 में वियना कन्वेंशन और 1987 में मान्ट्रियल प्रोटोकाल के जरिए ओजोन परत के संरक्षण के लिए विश्व स्तर पर सहयोग को संस्थागत रूप दिया गया। मान्ट्रियल प्रोटोकाल का उद्देश्य ओजोन का उत्पादन और उपयोग नियंत्रित करना था।
ओजोन को समाप्त करने वाले सामान्य पदार्थों में क्लोरो-फ्लूरोकार्बन प्रमुख हैं जिनका इस्तेमाल रेफ्रीजरेशन उद्योग, एयरोसोल प्रोपेलेन्ट के उत्पादन और सर्फेट ट्रीटमेंट एजेंट्स के रूप में होता है। विकसित देशों में 1996 तक आमतौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले 5 क्लारो-फ्लूरो कार्बन का उपयोग समाप्त किया जाना था। समझौते में 0.3 किलोग्राम से कम वार्षिक खपत वाले विकसित देशों को इन प्रतिबंधित पदार्थों का उपयोग बंद करने के लिए दस साल का समय दिया गया है।
समझौते में इन पदार्थों के विकल्पों तथा टेक्नोलॉजी के विकास के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने की भी व्यवस्था है। भारत भी इस तरह के पदार्थों का कम उपयोग करने वाले देशों की श्रेणी में शामिल है। इस कारण वह इनका उपयोग बंद करने के लिए अधिक समय का हकदार है।
विश्व बैंक ने हाल में भारत में दो महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं को मंजूरी दी है जिनके अंतर्गत ओजोन नाशक पदार्थों के स्थान पर वैकल्पिक पदार्थों का विकास किया जाएगा। लेकिन मान्ट्रियल समझौते में उल्लिखित टेक्नोलाॅजी हस्तांतरण और सहायता जैसे प्रोत्साहनों का कोई खास फायदा भारत को अब तक नहीं मिला है।
विश्व व्यपार संगठन के मुद्दे
अन्तरराष्ट्रीय व्यापार और पर्यावरण के बीच सम्बन्ध के मुद्दे पर उरुग्वे दौर की वार्ता में चर्चा हुई। इस वार्ता से पहले अन्तरराष्ट्रीय समुदाय ने विश्व स्तर पर टिकाऊ विकास की नीतियाँ अपनाने की आवश्यकता पर विचार किया था। पर्यावरण के बारे में रियो घोषणा और एजेण्डा-21 पर्यावरण सम्बन्धी इन्हीं चिन्ताओं को अभिव्यक्त करते हैं।
विश्व व्यापार संगठन की स्थापना सम्बन्धी समझौते की प्रस्तावना में कहा गया है कि ‘व्यापार और आर्थिक गतिविधियों के क्षेत्र में सम्बन्ध इस तरह से विकसित किए जाने चाहिए जिससे जीवन स्तर ऊँचा उठे, पूर्ण रोजगार सुनिश्चित हो, वास्तविक आय तथा प्रभावी मांग में लगातार वृद्धि हो, वस्तुओं और सेवाओं के व्यापार तथा उत्पादन में बढ़ोत्तरी हो, टिकाऊ विकास के लक्ष्य के अनुरूप विश्व के संसाधनों का बेहतरीन उपयोग सुनिश्चित किया जा सके, पर्यावरण की सुरक्षा तथा संरक्षण के प्रयास किए जाए तथा इन प्रयासों को तेज करने के ऐसे उपाय किए जाएँ जो आर्थिक विकास के विभिन्न स्तरों की आवश्यकताओं और समस्याओं के अनुरूप हों।
साथ ही इस बात पर भी जोर दिया गया है कि भेदभाव रहित और समानता पर आधारित बहुपक्षीय व्यापारिक प्रणाली को बनाए रखने के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण एवं टिकाऊ विकास को बढ़ावा दिया जाए और इन नीतियों के बीच कोई विरोधाभास नहीं होना चाहिए।
अप्रैल, 1994 में मारकेश में उरुग्वे दौर की वार्ता के नतीजों का मंजूरी देते समय बैठक में यह भी फैसला किया गया कि विश्व व्यापार संगठन में व्यापार और पर्यावरण के बारे में व्यापक कार्यक्रम शुरू किया जाना चाहिए। यह कार्यक्रम विश्व व्यापार संगठन की व्यापार और पर्यावरण समिति द्वारा संचालित किया जा रहा है।
वस्तुओं, सेवाओं और बौद्धिक सम्पदा सहित बहुपक्षीय व्यापारिक प्रणाली के सभी क्षेत्रों से सम्बन्धित एक व्यापक कार्यक्रम भी तैयार किया गया है। व्यापार और पर्यावरण सम्बन्धी समिति को विश्लेषणात्मक तथा आदेशात्मक, दोनों तरह के अधिकार प्राप्त हैं।
कपास की खेती में बड़े पैमाने पर कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है। कपड़ा मिलों में भी ऐसे अनेक रासायनिक रंगों का इस्तेमाल होता है जिनका पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है। कुछ विकसित देशों द्वारा लागू की गई पर्यावरण सम्बन्धी पाबंदियों से चमड़ा और कपड़ा उद्योग के लिए गम्भीर संकट पैदा हो गया है। कृषि पदार्थों के निर्यात पर भी इसका बुरा असर पड़ सकता है। कुछ विकसित देश जिनमें जर्मनी प्रमुख है, चमड़ा प्रसंस्करण में पी.सी.पी. के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा चुके हैं।इसे टिकाऊ विकास को बढ़ावा देने के लिए व्यापार और पर्यावरण से सम्बन्धित विभिन्न उपायों के बीच सम्बन्धों का अध्ययन करना पड़ता है और अगर विश्व व्यापार संगठन की मौजूदा बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली में किसी संशोधन की आवश्यकता है तो उसकी भी सिफारिश करनी पड़ती है।
दिसंबर, 1996 में सिंगापुर में हुए विश्व व्यापार संगठन के मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में व्यापार और पर्यावरण समिति की रिपोर्ट पेश की गई। रिपोर्ट में यह महसूस किया गया कि गरीबी और पर्यावरण के बिगड़ाव के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध हैं।
यह बात भी स्वीकार की गई है कि भेदभाव रहित और समानता पर आधारित मुक्त व्यापारिक प्रणाली के जरिए व्यापार का दायरा लगातार बढ़ाकर विकासशील देशों को अपने प्राकृतिक संसाधनों के टिकाऊ प्रबंध की नीतियाँ लागू करने के लिए हमें मदद मिल सकती है। यह भी महसूस किया गया कि सिर्फ व्यापारिक उदारीकरण से पर्यावरण के बिगड़ने की समस्या का समाधान नहीं होगा।
दूसरी ओर, व्यापार पर प्रतिबंध लगाने से भी पर्यावरण की समस्या का समाधान नहीं होगा। विकसित देशों में किए गए कुछ अध्ययनों से पता चला है कि कुछ शर्तों के साथ अगर व्यापारिक उदारीकरण को अपनाया जाए तो इससे पर्यावरण सुधार में मदद मिल सकती है।
सैद्धान्तिक रूप से यह माना जाता है कि विकसित देशों में पर्यावरण सम्बन्धी उच्च मानदंड अपनाने से इन देशों के असुरक्षित उद्योग पर्यावरण सम्बन्धी निम्नतर मानदंडों वाले विकासशील देशों में खुलने लगेंगे। लेकिन अधिकतर अध्ययनों से यह बात जाहिर हो गई है कि इस धारणा की पुष्टि के लिए कोई खास प्रमाण नहीं है।
अगर व्यापारिक उदारीकरण से विकासशील देशों में आय के स्तर में वृद्धि होती है तो बाद में इन देशों में भी पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित उत्पादों और प्रणालियों की मांग बढ़ेगी। इसलिए सम्भव है कि व्यापारिक उदारीकरण से लम्बे समय में विश्व में पर्यावरण सम्बन्धी समग्र मानकों के सुधार में मदद मिले।
भारतीय सन्दर्भ
लेकिन यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि हर तरह के औद्योगीकरण के लिए पर्यावरण सम्बन्धी कुछ-न-कुछ कीमत चुकानी ही पड़ती है। उदाहरण के लिए अमेरिका में सिलिकन वैली की जमीन सबसे अधिक प्रदूषित है। कम्प्यूटर के हिस्से-पुर्जों को साफ करने के लिए जो रसायन इस्तेमाल में लाए जाते हैं उनसे पर्यावरण सम्बन्धी यह समस्या उत्पन्न हुई है। औद्योगिक गतिविधियों के लिए तीन तरह से पर्यावरण सम्बन्धी कीमत चुकानी पड़ती है।
पहला, इनसे वनों जैसे प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध इस्तेमाल से उनका इतना अधिक विनाश हो सकता है कि ये फिर से उपयोग में लाने योग्य न रहें; दूसरा चर्मशोधन और रंग-रोगन उत्पादन जैसी उत्पादन प्रक्रियाओं से पर्यावरण प्रदूषण का गम्भीर खतरा पैदा हो सकता है।
तीसरा, महानगरों में वायु प्रदूषण के कारण होने वाली सांस की बीमारियों जैसी समस्याओं के कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी खर्च बढ़ सकता है। भारत के बारे में विश्व बैंक की हाल की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि देश में पर्यावरण को पहुँचे नुकसान की लागत मोटे तौर पर तीन खरब 40 अरब रुपये वार्षिक है। नीचे दी गई सारणी में इस रिपोर्ट से कुछ आँकड़े दिए जा रहे हैं:
पर्यावरण सम्बन्धी लागत के बारे में विश्व बैंक के अनुमान
समस्या |
प्रभाव |
न्यूनतम लागत (डॉलर में) |
अधिकतम लागत (डॉलर में) |
शहरी वायु प्रदूषण |
स्वास्थ्य |
517 |
2102 |
जल प्रदूषण |
स्वास्थ्य (पेचिश की बीमारी) |
3076 |
8344 |
मिट्टी की खराबी |
कृषि उपज में गिरावट |
1516 |
2368 |
चरागाहों की जमीन में खराबी |
जनवरों को पालने की क्षमता में गिरावट |
238 |
417 |
वनों का विनाश |
इमारती लकड़ी की लगातार सप्लाई की कमी |
183 |
244 |
पर्यटन |
पर्यटन राजस्व में गिरावट |
142 |
283 |
स्रोतः विश्व बैंक, 1995 |
हालाँकि सभी उद्योग थोड़ा-बहुत प्रदूषण फैलाते हैं। लेकिन कुछ उद्योग अपेक्षाकृत ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं। निम्नलिखित उद्योगों की पहचान औसत से ज्यादा पर्यावरण प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों के रूप में की गई है:
(क) जस्ता, सीसा, ताम्बा, अल्युमीनियम और इस्पात सहित सभी प्राथमिक धातु उद्योग; (ख) कागज, लुगदी और अखबारी कागज; (ग) कीटनाशक; (घ) तेलशोधक कारखाने; (ङ) उर्वरक (च) पेन्ट (छ) रंग-रोगन; (ज) चर्मशोधशालाएँ; (झ) रेयान; (म) सोडियम/पोटाशियम साइनाइट; (ट) बुनियादी दवाएँ; (ठ) फाउण्ड्री; (ड) स्टोरेज बैटरी; (ढ) अम्ल/क्षार; (ण) प्लास्टर; (त) कृत्रिम रबड़; (थ) सीमेंट; (द) एसबेस्टस; (ध) फर्मेन्टेशन उद्योग; (न) इलेक्ट्रोप्लेटिंग उद्योग।
इनमें से चमड़ा, रंग-रोगन और माध्यमिक रसायनों तथा दवाओं के उत्पादन में काम आने वाले पदार्थों जैसे कुछ उद्योग भारत के निर्यात व्यापार की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। दरअसल सूती कपड़ा उद्योग जिसकी भारत के कुल निर्यात व्यापार में करीब 30 प्रतिशत की हिस्सेदारी है, पर्यावरण सम्बन्धी भारी नुकसान के लिए जिम्मेदार है।
कपास की खेती में बड़े पैमाने पर कीटनाशकों का इस्तेमाल होता है। कपड़ा मिलों में भी ऐसे अनेक रासायनिक रंगों का इस्तेमाल होता है जिनका पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है। कुछ विकसित देशों द्वारा लागू की गई पर्यावरण सम्बन्धी पाबंदियों से चमड़ा और कपड़ा उद्योग के लिए गम्भीर संकट पैदा हो गया है। कृषि पदार्थों के निर्यात पर भी इसका बुरा असर पड़ सकता है।
कुछ विकसित देश जिनमें जर्मनी प्रमुख है, चमड़ा प्रसंस्करण में पी.सी.पी. के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा चुके हैं। हालाँकि पी.सी.पी. के विकल्प उपलब्ध हैं, मगर ये महंगे हैं। पी.सी.पी. विकल्पों के इस्तेमाल से लागत की दृष्टि से प्रतिस्पर्धा क्षमता कम हो जाती है मगर इसका पर्यावरण सम्बन्धी असर काफी अच्छा पड़ता है। विकसित देशों में पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित कपड़े की मांग बढ़ती जा रही है।
पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित कपड़ों के उत्पादन के लिए रसायनों का कम-से-कम इस्तेमाल जरूरी है। सम्बन्धित एजेंसियों द्वारा प्रतिबंधित रसायनों की एक सूची तैयार कर ली गई है। मई, 1997 में जारी एक अधिसूचना में सरकार ने कपड़ा उद्योग में एजो श्रेणी के रंग-रोगनों के उपयोग पर पाबंदी लगा दी है। इन सब उपायों से उसी तरह का असर पड़ा है जैसा चमड़ा उद्योग पर पड़ा है।
विकसित देशों के दबाव की वजह से अपनाए जा रहे उपायों के साथ-साथ अपनी पहल पर भी देश में कुछ कदम उठाए गए हैं। उदाहरण के लिए हाल के वर्षों में मछली पालन तथा अन्य जल जीव-पालन सम्बन्धी उद्योग विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाले महत्त्वपूर्ण उद्योग के रूप में उभरकर सामने आए हैं। लेकिन आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के तटवर्ती इलाकों में, जहाँ यह उद्योग मुख्य रूप से केन्द्रित है, इससे पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँच सकता है।
अदालत के एक फैसले पर इन राज्यों में इस उद्योग के भावी विकास पर रोक लगा दी गई है। तमिलनाडु सरकार ने एक अधिनियम पारित किया है जिसमें यह व्यवस्था की गई है कि मछली पालन सम्बन्धी सभी नई परियोजनाओं के लिए जिला परिषद से अनुमति लेनी होगी।
परिषद में जिला कलेक्टर, प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के प्रतिनिधि और अन्य संबद्ध कर्मचारी शामिल होंगे। इसी तरह पर्यावरण को हो हरे नुकसान को ध्यान में रखते हुए तमिलनाडु में कई चमड़ा-शोधक कारखानों को अदालत के आदेश से बंद कर दिया गया है।
देश के पर्यावरण के संरक्षण के लिए मानदंडों की आवश्यकता और महत्त्वपूर्ण व्यापारिक साझेदारों की जरूरत को ध्यान में रखते हुए इस बात में कोई संदेह नहीं कि भविष्य में भारत को पर्यावरण सम्बन्धी उच्चतर मानक अपनाने होंगे।
(भारतीय विदेश व्यापार संस्थान, नई दिल्ली में संकाय अध्यक्ष; मई 1997 में बैंकाक में आयोजित एस्केप (एशिया और प्रशांत आर्थिक आयोग) के विशेषज्ञ दल की बैठक के अध्यक्ष)