राष्ट्रीय संवेदना का सवाल

Submitted by Hindi on Thu, 03/12/2015 - 12:51
Source
साक्ष्य नदियों की आग, अक्टूबर 2004

बिहार की इस विनाशकारी बाढ़ को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जिस प्रकार की संवेदनहीनता दिख रही है वह अत्यन्त दुखद है। बाढ़ के उतरने के साथ ही महामारी फैलेगी। मलेरिया और कालाजार का प्रकोप व्यापक होगा। पीने के पानी की समस्या तो है ही। कुएँ भर चुके हैं, हैण्डपम्प बेकार हो चुके हैं, घर-बार उजड़ चुके हैं। पुनर्वास का, घर-झोपड़ी बनाने का स्कूलों-अस्पतालों के पुननिर्माण का सारा काम कैसे होगा? गुजरात के भूकम्प या आंध्र प्रदेश के भीषण चक्रवात के समय जो राष्ट्रीय चेतना और संवेदना उभरी थी वैसा बिहार को लेकर क्यों नहीं हो रहा है?

बिहार में गंगा के उत्तर का अधिकांश भाग भीषण बाढ़ का प्रकोप झेल रहा है। नेपाल से बिहार की सीमा लगभग साढ़े सात सौ किलोमीटर की है। इस सीमा से लेकर गंगा तक के लगभग सभी जिलों की अधिकांश भूमि पानी में डूब गई है। सड़कें बह गई हैं। नदियों के तटबन्ध जगह-जगह टूट गये हैं। बड़ी संख्या में लोग पानी में बह गये। हजारों-हजार माल-मवेशी भी जल में विलीन हो चुके हैं। बाढ़ की तेज धारा के कारण कितने लोग और कितने मवेशियों की मौत हुई है, इसकी गिनती तो तभी हो सकेगी जब बाढ़ का पानी उतर जायेगा और लोग फिर से अपने गाँव-ठिकाने पर वापस लौट जायेंगे। अभी तो लोग बांधों पर, कहीं पेड़ों पर या कहीं ऊँची जगहों पर आश्रय लिये हुए हैं। वहीं उनके माल मवेशी भी हैं और सांप-बिच्छू भी। वैसे तो आफत की इस बेला में अमूमन एक ही डाल पर बैठे मनुष्य और सांप एक-दूसरे को नुकसान नहीं पहुँचाते। लेकिन रात के अन्धेरे में दब जाने या छु जाने पर डरकर सांप डस लेते हैं। सांप के दंश से बड़ी संख्या में लोगों की मौत की खबरें बराबर आ रही हैं। स्त्री-पुरुष, बच्चे और वृद्ध सभी खुले आकाश के नीचे बरसात के पानी में भीगते हुए समय काट रहे हैं। काफी लोग भीगकर बीमार हो चुके हैं, जिनका कोई इलाज सम्भव नहीं है।

इलाज की कौन कहे लोग दाने-दाने को मोहताज हो रहे हैं। खगड़िया, सहरसा, अररिया के दूर-दराज के इलाकों में पानी में फँसे लोग भूख के मारे पेड़ों के पत्ते, घास आदि चबाकर जिन्दा रहने की कोशिश कर रहे हैं। हर तरफ भुखमरी का आलम है। जो शहर और कस्बे बाढ़ में नहीं डूबे हैं वहाँ के आम स्त्री-पुरुष, विद्यार्थी, शिक्षक आदि घर-घर से रोटी, चुड़ा आदि इकट्ठा करके राहत पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं। आम नागरिकों और छात्रों का यह कर्तव्य बोध मुसीबत में फंसे बहुतेरे लोगों का संबल बना हुआ है। लेकिन इनकी पहुँच शहर के आस-पास या जहाँ तक सड़क से पहुँचा जा सकता है वहीं तक सीमित है। लोगों ने खुद से नाव किराये पर लेकर अन्दर के इलाकों में सहायता पहुँचाने की कोशिश की है। लेकिन उनकी इस प्रकार की कोशिशों की एक सीमा है। दूर दराज के इलाकों में बड़ी संख्या में लोग बिना किसी सहायता के फंसे हैं।

एक जमाना था जब बिहार में कहा जाता था- बाढ़े जीली, सुखाड़े मरली। इसके साथ ही दरभंगा-मधुबनी के कमला बलान नदी के आस-पास के लोग कहते थे- आएल बलान त बनल दलान, गेल बलान त धंसल दलान। लोग जब ऐसा कहते थे तब लम्बी रेल लाइनों और सड़कों के कारण पानी का प्रवाह अवरुद्ध नहीं होता है। जल निकास के लिए पर्याप्त संख्या में पुल बनाये बिना सड़कें और रेल लाइनें बिछ गईं। तब नदियों के किनारे तटबन्ध नहीं होते थे। बाढ़ का पानी धीरे-धीरे आता था, लोग अपना सामान-मड़ई, झोपड़ी आदि नाव पर लादकर आराम से ऊँची जगह चले जाते थे। तब हर किसान के पास अपनी नाव होती थी। तब बाढ़ एक उत्सव की तरह होता था। बाढ़ के पानी में हिमालय से आयी गाद होती है जो खेतों में जमा हो जाती थी। यह उपजाऊ मिट्टी बिना किसी खाद के फसलों को लहलहा देती है। लोगों को नदियों की धारा बदलने का चक्र मालूम रहता था। उसके अनुसार वे अपने घर-द्वार के स्थान भी बदल लेते थे। जब नदियों के किनारे तटबन्ध बने तो नदियों का तल गाद से भरता गया और तटबन्धों के टूटने का सिलसिला शुरू हुआ। लोगों ने अपनी बस्ती-गाँव बचाने के लिये तटबन्धों को तोड़ना शुरू किया। इस बार भी तटबन्ध तोड़े गये। शहरों को बचाने के लिये नदी की दूसरी ओर के तटबन्धों को बिना किसी पूर्व सूचना के इस बार भी तोड़ा गया। फलत: गाँव के गाँव बह गये। कई जगह नदी के सिर्फ एक तरफ यानी शहर की तरफ तटबन्ध बनाये गये हैं और दूसरे किनारे की बस्तियों को डूबने के लिये छोड़ दिया गया है। कई जगह नदियों में मिट्टी-बालू का तल इतना ऊँचा हो गया है कि तटबन्ध के बाहर वाली जमीन के बराबर या उससे भी काफी ऊँचा हो गया है। इसलिए इन नदियों को अब हाइवे नदी की संज्ञा देना अनुचित नहीं होगा।

1987 की भयानक बाढ़ की तरह इस बार की बाढ़ में भी सड़के बह गई और रेलवे लाइनें उखड़ गईं। बिहार सरकार के एक मन्त्री का कहना है कि टूटी सड़कों-पुलों को बनाने में एक हजार करोड़ रुपये का खर्च आयेगा। सिविल इन्जीनियरिंग का एक सामान्य-सा नियम है कि रेल लाइनों या सड़कों के किनारे जहाँ पानी जमा होता है, या जहाँ बाढ़ में सड़कें/रेल लाइनें बह जाती हैं, वहाँ पानी के निकास के लिए उपयुक्त पुल बना दिए जाएँ। वैसे सामान्य जगहों पर भी हर एक किलोमीटर पर कम से कम पाँच क्यूसेक पानी बहाव की क्षमता वाला पुल होना जरूरी होता है। लेकिन देखा यह जाता है कि रेलवे लाइनों/सड़कों में पर्याप्त पुल या जल निकास का इन्तजाम नहीं है। बाढ़ के कारण जहाँ-जहाँ सड़क टूटती है या रेल लाइन बह जाती है, वहाँ पर्याप्त मिट्टी और बोल्डर भरकर मजबूत कर दिया जाता है। परिणामत : बाद में आयी किसी तीव्र बाढ़ में वहाँ से कुछ किलोमीटर की दूरी पर सड़क/रेल लाइन फिर से बह जाती है। अत: आगे से सड़क/रेल लाइन की मरम्मत या निर्माण के काम में पर्याप्त जल निकास का इन्तजाम करना अनावश्यक होगा। सड़कों के अलावा नहरों के कारण छोटी-मोटी नदियों और जल निकास के नालों में अवरोध हुआ है। उत्तर बिहार में जल निकास के नालों का बड़ा जाल-सा है। उन नालों के किनारे जगह-जगह पोखर और तालाब बने थे। अब इनकी उड़ाही भी कोई नहीं करता, जगह-जगह अवरोध तो बन ही गये हैं।

1975 में पश्चिम बंगाल के फरक्का-मालदह के बीच गंगा पर फरक्का बराज बनाया गया था। इस बराज के बनने के बाद से बाढ़ के गाद युक्त पानी का जमाव बराज के पूर्व होने लगा और स्थिर पानी में गाद तेजी से जमा होने लगी। इसका असर फरक्का-मालदह से भागलपुर तक अत्यधिक हुआ है। वहाँ हर साल तबाही मचती है। लेकिन गाद से गंगा के तल के भरते जाने का प्रभाव वाराणसी तक स्पष्ट दिखता है। फरक्का बराज बनने से पूर्व बाढ़ का पानी बांग्लादेश होकर सीधे समुद्र में चला जाता था। उस स्थिति में बरसात के दौरान गंगा में 150 फीट तक गहरी उड़ाही (डिसिल्टिंग) प्राकृतिक रूप से हो जाया करती थी। परिणामत : गंगा का तल गहरा रहता था और सहायक नदियों में भी प्राकृतिक उड़ाही की प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से चलती रहती थी। अब गंगा में गाद (सिल्ट) भरती जा रही है। बरसात में गंगा का जल स्तर ऊँचा हो जाया करता है और उत्तर बिहार की नदियों की धारा को गंगा का पानी उल्टी दिशा में ठेलता है।

परिणामत: गंगा की सहायक नदियों की प्राकृतिक उड़ाही की प्रक्रिया भी समाप्त हो गई। गनीमत है कि दक्षिण बिहार के पठारी इलाकों और उत्तर प्रदेश में पर्याप्त वर्षा न हो पाने के कारण अभी गंगा उतनी आप्लावित नहीं है अन्यथा कितना बड़ा जल प्रलय मचता यह कहना मुश्किल है। इस प्रकार यह एक चक्रव्यूह बन गया है। जब तक फरक्का बराज का अवरोध समाप्त नहीं होता और गंगा की धारा अविरल नहीं होती तब तक बाढ़ की विध्वंसक क्षमता निरन्तर बढ़ती जायेगी। बिहार की इस विनाशकारी बाढ़ को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जिस प्रकार की संवेदनहीनता दिख रही है वह अत्यन्त दुखद है। बाढ़ के उतरने के साथ ही महामारी फैलेगी। मलेरिया और कालाजार का प्रकोप व्यापक होगा। पीने के पानी की समस्या तो है ही। कुएँ भर चुके हैं, हैण्डपम्प बेकार हो चुके हैं, घर-बार उजड़ चुके हैं। पुनर्वास का, घर-झोपड़ी बनाने का स्कूलों-अस्पतालों के पुननिर्माण का सारा काम कैसे होगा? गुजरात के भूकम्प या आंध्र प्रदेश के भीषण चक्रवात के समय जो राष्ट्रीय चेतना और संवेदना उभरी थी वैसा बिहार को लेकर क्यों नहीं हो रहा है?