सामाजिक पहल से खुला विकास का रास्ता

Submitted by admin on Wed, 06/24/2009 - 14:42
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आमतौर पर बिना बिजली, बिना डीजल ईंजन और पशुधन की ऊर्जा के बगैर खेतों की सिंचाई करना मुश्किल है लेकिन सतपुड़ा अंचल के दो गांव के लोगों ने यह मुश्किल आसान कर दिखाई है। अपनी कड़ी मेहनत, कौशल और सूझबूझ से वे पहाड़-जंगल के नदी-नालों से अपने खेतों तक पानी लाने में कामयाब हुए हैं। जंगल पर आधारित जीवन से खेती की ओर मुडे आदिवासी भरपेट भोजन करने लगे हैं।

होशंगाबाद जिले के पिपरिया विकासखंड में सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच बसे वनग्राम रांईखेड़ा में प्यासे खेतों को पानी पिलाने की पहल करीब 20 वर्ष पहले शुरू हुई। उस समय गांव के 16 लोगों ने गांजाकुंवर नामक नदी से पानी लाने का बीड़ा उठाया। यह काम आसान नहीं था। खेतों से नदी की दूरी लगभग 5 किलोमीटर थी, जिसके बीच में नाली निर्माण का श्रमसाध्य कार्य करना आवश्यक था। लेकिन इन संकल्पवान लोगों की आर्थिक हालत भी अच्छी नहीं थी। वे खुद मजदूरी कर गुजारा करते थे। उनका इस सामुदायिक स्वैच्छिक काम में ज्यादा समय लगने से उनके सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो रहा था क्योंकि इससे उन्हें आर्थिक मदद तो नहीं ही मिलती थी, उल्टे अपने संसाधन इसमें लगाने पड़ते थे। इसके लिए कुछ कर्ज भी लिया गया। शुरूआत में गांव के लोगों ने इस सार्थक पहल का मजाक उड़ाया। कुछ ने कहा कि यह ऊंट के पीछे सीढ़ी लगाने का काम है, जो असंभव है। यानी पहाड़ से खेतों तक पानी लाना टेढ़ी खीर है। फिर भी संकल्पवान लोगों ने हिम्मत नहीं हारी और यह काम जारी रखा।

इस जनोपयोगी पहल से सक्रिय रूप से जुड़े लालजी कहते हैं कि हमने इस काम की प्रेरणा गांव के ही एक बुजुर्ग से ली थी जो एक अन्य कुंभाझिरी नदी से अपने खेत तक पानी लाया था। यह बात करीब 40-45 साल पुरानी है। फिर हम 16 लोगों ने इस काम को करने की ठानी जिसे हमने एक साल में पूरा कर लिया। जिन लोगों को शुरू में हमारी पहल पर विश्वास नहीं हो रहा था, बाद में वे भी हमारे साथ हो गए। जंगल और पहाड़ के बीच स्थित गांजाकुंवर नदी से पानी लाने के लिए खेतों तक नाली बनाने का बड़ा और कठिन काम शुरू किया गया। ऊंची-नीची पथरीली जमीन में नाली का निर्माण होने लगा। कहीं कई फुट गहरी खुदाई की गई तो कहीं बड़ी-बड़ी चट्टानों और पत्थरों को फोड़ा गया। कहीं पर पेड़ों के खोल से छोटा पुल बनाया गया तो कहीं नाली पर भूसे और मिट्टी का लेप चढ़ाया गया। पत्थरों की पिचिंग की गई जिससे पानी का रिसाव न हो और इस प्रकार अंतत: ग्रामवासियों को 5 किलोमीटर दूर से अपने खेतों तक पानी लाने में सफलता मिली। इस काम में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

पहाड़ से उतरे सरपट पानी से सूखे खेत तर हो गए। गेहूं और चने की हरी-भरी फसलें लहलहा उठीं। भुखमरी और कंगाली के दौर से गुजर रहे कोरकू आदिवासियों के भूखे पेट की आग शांत हो गई। लोगों के हाथ में पैसा आ गया। वे धन-धान्य से परिपूर्ण हो गए।यहां सभी ग्रामवासियों को नि:शुल्क पानी उपलब्ध है। पानी के वितरण में प्राय: किसी प्रकार के झगड़े नहीं होते हैं। अगर कोई छोटा-मोटा विवाद होता भी है तो उसे शांतिपूर्ण ढंग से सुलझा लिया जाता है। इस संबंध में लालजी का कहना है कि यहां सबके खेतों को पानी मिलेगा, यह तय है। यह हो सकता है कि किसी को पहले मिले और किसी को बाद में, पर मिलेगा सबको। फिर विवाद बेमतलब है। इसके अलावा, नाली मरम्मत का कार्य भी मिल-जुलकर किया जाता है। आज गांव में दो नालियां गांजाकुंवर नदी से और तीन नालियां कुंभाझिरी नदी से आती हैं। कुल मिलाकर, पूरे गांव के खेतों में सिंचाई की व्यवस्था हो गई है।रांईखेड़ा की तरह वनग्राम आंजनढाना में भी खुद की सिंचाई की व्यवस्था है। बल्कि आंजनढाना में यह व्यवस्था रांईखेड़ा से पहले की है। रांईखेड़ा और आंजनढाना के बीच में भी कुछ मील का फासला है। गांववासियों का कहना है कि यहां के पल्टू दादा ने बहुत समय पहले इसकी शुरूआत की थी। वे ढोर चराने का काम करते थे और जब वे सतधारा नाले में ढ़ोरों को पानी पिलाने जाते थे तब वे वहीं पड़े-पड़े घंटों सोचा करते थे कि काश! मेरे खेत में इस नाले का पानी पहुंच जाता, तो मेरे परिवार के दिन फिर जाते। इसके लिए उन्होंने सतत् प्रयास किए।

शुरूआत में नदी पर दो बांध बांधने की कोशिश की पर कामयाब नहीं हुए। वे अपने काम में जुटे रहे और अंतत: उन्होने अपने बाडे में पानी लाकर ही दम लिया। शुरूआत में उन्होंने सब्जियां लगाईं- प्याज, भट्टा, टमाटर, आलू और मूली वगैरह। फिर गेहूं बोने लगे। पल्टू दादा के बेटे बदन सिंह ने बताया कि आज हम उनकी वजह से भूखे नहीं है। गांव भी समृद्ध है। पहले हम सिर्फ बारिश में कोदो और मक्का बोते थे। अब गेहूं-चना की फसल उगा रहे हैं। गांव के लोगों को भी पानी मिल रहा है।

इस बहुमूल्य व सार्थक पहल में रांईखेड़ा, आंजनढ़ाना के बाद तेंदूखेड़ा, कोसमढ़ोड़ा और नयाखेड़ा जैसे कुछ एक गांव के नाम और जुड़ गए हैं। इस तरह प्यासे खेतों में पानी देकर अन्न उपजाने की यह पहल क्षेत्र में फैलती जा रही है। हालांकि आंजनढ़ाना में पक्की नाली का निर्माण वनविभाग के माध्यम से करवाया गया है लेकिन रांईखेड़ा में यह काम अब तक नहीं हो पाया है। गांववालों का कहना है इसके लिए स्वीकृति मिल चुकी है फिर भी इसे लटकाया जा रहा है।

कुल मिलाकर, इस पूरी पहल से कुछ बातें साफ तौर पर दिखाई देती हैं। एक तो यह पूरा काम प्रकृति और पर्यावरण से सामंजस्य बनाकर किया गया क्योंकि आदिवासियों का प्रकृति से गहरा रिश्ता है। वे जंगल और वन्य जीवों के सबसे करीब रहते आए हैं। उन्हें इसकी जानकारी है और इस पूरे काम में न तो परिवेश को नुकसान पहुंचा, न जंगल को और न ही किसी वन्य जीव को। इसमें सिंचाई के लिए पानी लाने में किसी बिजली की जरूरत भी नहीं पड़ी। लिहाजा बिजली तार भी नहीं खींचे गए और न ही डीजल ईंजन की आवश्यकता पड़ी। कोई ध्वनि प्रदूषण भी नहीं हुआ। इस प्रकार प्रकृति, वन्य जीव और जंगल का संरक्षण करते हुए कृषि के लिए पानी की व्यवस्था करना बहुत ही सार्थक व बहुमूल्य काम है। ऐसे गांवों को विस्थापित करने की बजाए सरकार उनकी मदद वन और वन्य जीवों का संरक्षण करने में ले सकती है। बशर्ते पहले उसे लोगों को अलग तरीके से इसके लिए समझाना पडेग़ा क्योंकि अभी तो वन विभाग इन गांवों के विस्थापन की बात कर रहा है जिससे गांव के लोगों का नजरिया वन विभाग के प्रतिनकारात्मक हो सकता है। लेकिन अगर वह अपना रुख बदलें और गांव के लोगों से जंगल और वन्य जीवों के संरक्षण में मदद मांगे तो वे मददगार हो सकते हैं।

इसके अलावा, इस पूरी पहल की कुछ बातें अहम हैं। एक, अगर मौका मिले तो बिना पढ़े-लिखे लोग भी अपने परंपरागत ज्ञान, अनुभव और लगन से जल प्रबंधन जैसे तकनीकी काम को बेहतर ढंग से कर सकते हैं। यह रांईखेड़ा और आंजनढाना के काम से साबित होता है। कहां से और किस तरह से नाली के द्वारा पहाड़ के टेढ़े-मेढ़े रास्तों से पानी उनके खेतों तक पहुंचेगा, इसका पूरा अनुमान उन्होंने लगाया और इसमें वे कामयाब हुए। न तो उन्होंने इंजीनियर की तरह नाप-जोख की और न ही इस विषय की किसी से तकनीकी जानकारी ली। अपनी अनुभवी निगाहों से ही उन्होंने पूरा अनुमान लगाया, जो सही निकला।

दो, जंगल में भी उन्नति और विकास संभव है जिसे इन दोनों गांवों के लोगों ने अपने परिश्रम से कर दिखाया है। तीसरी सबसे बड़ी बात ग्रामीणों की कभी न हारनेवाली हिम्मत और जिद थी। जिसके कारण आज उनकी और उनके बच्चों की जिंदगी में आमूलचूल बदलाव आ गया। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ऐसे गांवों को विस्थापित करना बिल्कुल भी उचित नहीं है। बल्कि इस तरह के प्रयास और करने की जरूरत है। बहरहाल, यह पहल सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।(चरखा फीचर्स)