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डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 05 अक्टूबर 2014
संयुक्त राष्ट्र संघ में दिए गए एक भाषण के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से एक शख्स ने देश भर में कम्प्यूटर और संचार क्रांति की मुनादी पीटते हुए पीठ थपथपाने के सपनों के बीच यह पूछा कि क्या उन्हें पता है कि उनके देश के ग्रामीण इलाकों के कितने फीसदी घरों में शौचालय है। राजीव गांधी के पास इसका उत्तर नहीं था, पर सवाल पूछने वाले शख्स ने 1981 की जनगणना की रिपोर्ट उनके सामने रखते हुए यह कहकर उनके कम्प्यूटर और संचार क्रांति के सपनों को पलीता लगा दिया कि ग्रामीण भारत के केवल एक फीसदी घरों में शौचालय है। उसी के बाद राजीव गांधी ने साल 1986 में ग्रामीण स्वच्छता अभियान की शुरुआत की।
राजीव गांधी ने जब अपने ग्रामीण स्वच्छता अभियान की शुरुआत की, तब उन्हें इस बात का इल्म नहीं रहा होगा कि इस अभियान में लोगों से जुड़ने और संवाद करने का इतना बड़ा अवसर मौजूद है। तकरीबन 28 साल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब स्वच्छ भारत अभियान को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन पर शुरू किया तो तब शायद कांग्रेसियों को अपनी गलती का एहसास हो रहा है। वे अभियान की सफलता को लेकर ना केवल सवाल खड़े कर रहे हैं, बल्कि शो-मैनशिप की दलील देते हुए इसे खारिज भी कर रहे हैं। पर चतुर सुजान प्रधानमंत्री को इस खंडन-मंडन का एहसास जरूर रहा होगा तभी तो उन्होंने राजपथ पर अपने भाषण में साफ कहा था कि इसे सियासत से जोड़कर ना देखा जाए।
उन्होंने कहा कि मैं यह बात स्वीकार करता हूं कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस इस आंदोलन की सिरमौर रही है। मोदी ने यह भी साफ किया कि वे इस आंदोलन के लिए किसी तरह की आलोचना झेलने के लिए तैयार हैं। हालांकि आलोचना करने वालों का मुंह मोदी ने ये कहकर बड़ी चतुराई से बंद कर दिया कि जब लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था तो किसी ने उनसे पूछा था क्या कि आप कब खेत पर गए। गए या नहीं गए।
साफ है कि मोदी का स्वच्छ भारत अभियान एक लंबी तैयारी और सोच के बाद पेश की गई परिकल्पना है। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह समस्या हर आम और खास लोगों से जुड़ी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस समस्या को लेकर ना केवल फंडिंग जारी है बल्कि अंतरराष्ट्रीय विद्वानों में इस बात को लेकर मंथन भी तेज है कि आखिर संपूर्ण स्वच्छता अभियान को अमली जामा पहनाने के लिए सब्सिडी जरूरी है या लोगों को प्रेरित करना।
सब्सिडी खत्म करने वालों के भी तर्क कमजोर नहीं हैं। उनका कहना है कि इस समय पूरी दुनिया में केवल तीन देशों- भारत, नाइजीरिया और एक छोटे देश बर्कोनीफासो में शौचालय बनाने के लिए सब्सिडी दी जा रही है। पर भारत और नाइजीरिया में सब्सिडी देने के बावजूद खुले में शौच करने वालों की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही, जबकि तमाम ऐसे देश हैं जहां सब्सिडी खत्म होने के बाद खुले में शौच की आदत में बड़ा बदलाव देखा गया। इसकी नजीर नेपाल है, यहां पर सिर्फ एक दशक में 6 फीसदी शौचालय से बढ़कर नेपाल 53 फीसदी शौचालय बनाने में सफल रहा है। यह बाद दीगर है कि नेपाल, पाकिस्तान, नाइजीरिया और कंबोडिया जैसे राष्ट्रों में शौचालय बनाने के लिए मिलने वाली धनराशि में गोलमाल की भी तमाम शिकायतें मिली हैं। अभी इस मसले पर कोई निष्कर्ष निकलता कि नरेंद्र मोदी ने अपने स्वच्छ भारत मिशन के लिए दोनों नाव पर सवारी करना बेहतर समझा। यही वजह है कि उन्होने खुले में शौच की आदत और प्रथा खत्म करने के लिए शौचालय बनवाने की खातिर सब्सिडी की धनराशि बढ़ाकर 12 हजार रुपए कर दी। हालांकि उनके नगर विकास मंत्री नितिन गड़करी इस मद में 15000 रुपए की सब्सिडी का ऐलान कर चुके थे। दूसरी तरफ , मोदी ने इस अभियान की शुरुआत करने के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जयंती का दिन चुना, यह एक ऐसा सधा हुआ दांव है, जो कभी बेकार नहीं जा सकता। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आचार-विचार और सिद्धांतों से किसी भी आदमी के असहमति के कुछ बिंदु हो सकते हैं, पर यह भी कम हैरतअंगेज नहीं है कि असहमति से ज्यादा सहमति के बिंदु हर आदमी के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आचार-विचार और जीवन दर्शन से जुड़े दिखते हैं।
गांधी जयंती पर शुरू हुए इस अभियान के लिए दिल्ली की उस दलित बस्ती को चुना गया, जिसके चारों तरफ राष्ट्रपिता की यादें पसरी हैं। यह बताता है कि मोटीवेशन और प्रेरणा के स्तर पर भी मोदी ना केवल काम करने को तैयार हैं, बल्कि अपने स्वच्छ भारत मिशन को जनभागीदारी के मार्फत अंजाम देने के लिए प्रण से जुटे हैं। इस अभियान को लेकर मोदी की नीति और नीयत भरोसा करने लायक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की माने तो भारत में गंदगी के चलते हर आदमी को तकरीबन हर साल 6500 रुपए का नुकसान होता है। ये धनराशि उसे बीमारी के मद में खर्च करनी पड़ती है या फिर गंदगी से हुए संक्रमण के चलते कई बार कामकाज से विरत रहने से यह नुकसान होता है। यही नहीं विश्वबैंक के आंकड़े तो और आंख खोलने वाले हैं, जिसके मुताबिक भारत को तकरीबन 54 अरब डालर की कीमत गंदगी और इससे होने वाली बीमारियों-दुश्वारियों के चलते चुकानी पड़ती है।
ये धनराशि, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात जैसे राज्यों की कुल सालाना आय से अधिक है। पर आंकड़े इस बात की चुगली करते हैं कि भारत में तकरीबन 20 फीसदी लोग तो ऐसे बसते ही हैं, जिन्होंने अपने आस-पास ऐसी लक्ष्मण रेखा बना रखी है कि जिसकी परिधि में गंदगी और उससे होने वाली परेशानियां आ ही नहीं सकती। भारत साफ-सफाई के सही तरीके अगर अपनाए तो 32.6 अरब डालर की सालाना बचत कर सकता है। प्रति व्यक्ति यह धनराशि 1564 रुपए बैठती है। भारत में हर साल 6808 मिलियन टन कचरा निकलता है।
इसमें हर दिन कोलकाता 12060 टन, मुंबई 11645 टन, दिल्ली 11558, चेन्नई 6404 टन, हैदराबाद 5154 टन, बंगलुरू 3501 टन, अहमदाबाद 2636 टन और कानपुर 1839 टन कूड़े का इजाफा करते हैं। ये वो शहर है जो कूड़ा बढ़ाने में देश में सबसे ऊपर हैं। इतना ही नहीं देश में निकलने वाले 68.8 मिलियन टन कचरे से अगर बिजली बनाई जाए तो देश की सारी बिजली समस्याओं को हल किया जा सकता है। ब्रिटिश पावर प्लांट में 19.4 टन कचरे से एक मेगावाट बिजली पैदा होती है। वहीं फ्रेंच पावर प्लांट में 15 टन कचरे से एक मेगावाट बिजली बन जाती है।
कुछ अध्ययन रिपोर्टें ये भी कहती हैं कि जिन क्षेत्रों में लोग खुले में शौच करते हैं, वहां के लोगों की लंबाई कम होती जाती है। बच्चों का आई क्यू लेवल कम होता है। उनमें व्यवहार परिवर्तन की स्थितियां भी देखी गई हैं। खुले में शौच करने से शरीर के अंदर बैक्टीरिया और कृमि बीमार करते हैं। ये इंटेरोपैथी नाम के एक स्थाई रोग को जन्म देते हैं जो शरीर को कैलोरी और पोषक तत्व नहीं ग्रहण करने देता है।
कचरे कि इस बढ़ती संस्कृति ने 2007-2020 के बीच इससे निपटने के लिए 152 अरब डालर का बाजार तैयार कर दिया। इसमें इंफ्रास्ट्रक्चर पर तकरीबन 67 अरब डालर, रखरखाव और सेवाओं पर 54 अरब डालर की धनराशि व्यय होगी। साफ-सफाई से जुड़े बाजार की बढ़ोत्तरी का आंकड़ा इसी से समझा जा सकता है कि वर्ष 2007 में इस मद में 6.6 अरब डालर खर्च हुए थे। वहीं मोदी के इस अभियान के खात्मे के वर्ष में यह आंकड़ा तकरीबन 15 अरब डालर पहुंचने की आशंका जताई जा रही है। मोदी ने हाल-फिलहाल स्वच्छ भारत मिशन के लिए 62 हजार करोड़ रुपए दिए हैं, लेकिन वर्ष 2019 तक 2 लाख करोड़ रुपए खर्च करने का लक्ष्य रखा गया है।
एक सर्वे के मुताबिक 14 फीसदी ऐसे भी लोग हैं जिनके घरों में टॉयलेट है, फिर भी वो खुले में शौच करना पसंद करते हैं। कारणों में खुली हवा में शौच करने का आनंद से लेकर मार्निंग वॉक और खेतों की देखभाल जैसे अपने तर्क हैं। उन्हें इसका इल्म है, तभी तो उन्होंने अपने इस अभियान को भी लोकसभा चुनाव की तरह ही जनांदोलन बनाया है। लोगों की भागीदारी बढ़ाई है। इसमें 62 हजार करोड़ रुपए शहरों और कस्बों को साफ-सुथरा रखने के लिए और तकरीबन 1.34 लाख करोड़ रुपए पेयजल और अन्य काम के लिए रखे गए हैं। ऐसा नहीं है कि इस मद में पैसे नहीं खर्च हुए। 1986 से मोदी सरकार आने के ठीक पहले तक तकरीबन एक लाख 60 हजार करोड़ रुपए स्वच्छता के नाम पर अलग-अलग अभियानों में खर्च किए गए हैं। उपलब्धियों के पैमाने पर अगर इस धनराशि को परखा जाए तो डरावने आंकड़े हाथ लगते हैं। इस मिशन को अंजाम देने वाले विभाग की माने तो ग्रामीण भारत के 72 फीसदी इलाके इस मिशन में आच्छादित हैं जबकि 2011 की जनगणना इस दावे का मजाक उड़ाते हुए कहती है कि ग्रामीण भारत के सिर्फ 31 फीसदी घरों में शौचालय बन पाया है।
यही नहीं तकरीबन 8 करोड़ शौचालय गायब हो गए हैं, यानी ये शौचालय सिर्फ कागजों पर बने हैं। 1986 में राजीव गांधी ने शौचालय बनाने के लिए गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) रह रहे लोगों को 2250 रुपए और गरीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) लोगों को 1500 रुपए की धनराशि दी थी। हालांकि 1999 में जब इस अभियान का नाम बदलकर संपूर्ण स्वच्छता अभियान (टीएससी) कर दिया गया तो एपीएल को मिलने वाली धनराशि खत्म कर दी गई और बीपीएल को सिर्फ 500 रुपए दिए गए। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे।
उनका मानना था कि सब्सिडी से समुदायों के आचार-व्यवहार में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। स्वच्छता सिर्फ निजी मामला नहीं है। 2006 में यूपीए-1 सरकार ने इस 500 रुपए को बढ़ाकर बीपीएल के लिए 1200 कर दिए, जबकि 2008 में ये धनराशि 3200 रुपए की गई। 2012 में जब मनमोहन सरकार निर्मल भारत अभियान लेकर आई, तब शौचालय बनाने के लिए दी जाने वाली इस सब्सिडी को 10 हजार रुपए कर दिया गया।
1981 में ग्रामीण भारत के महज एक फीसदी इलाके में शौचालय थे। वर्ष 2011 में यह आंकड़ा 31 फीसदी हो गया। 30 सालों में संपूर्ण स्वच्छता मिशन महज 30 फीसदी प्रगति कर पाया। यानी हर साल एक फीसदी ग्रामीण इलाकों में नए शौचालय बन और बढ़ सके। अब जब नरेंद्र मोदी 2019 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर उन्हें स्वच्छ भारत का तोहफा देना चाहते हैं तो यह सवाल उठना लाज़िमी है कि नरेंद्र मोदी की नीति, नीयत, मोटीवेशन और प्रतिबद्धताएं क्या सालाना 14 फीसदी गांवों में इस अभियान को अमली जामा पहनाने में कामयाब हो पाएंगी।
हालांकि इस अभियान को अंजाम देने के लिए नरेंद्र मोदी ने जिस तरह सरकार पर निर्भरता को दरकिनार करते हुए संवाद किया है, इस अभियान को राष्ट्रपिता से जोड़ा है, फिल्मकार कमल हसन, क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर, अदाकारा प्रियंका चोपड़ा, योग गुरू रामदेव, बालीवुड स्टार सलमान खान, कांग्रेसी नेता शशि थरुर, राज्यपाल गोवा मृदुला सिन्हा और छोटे पर्दे के कॉमेडी ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ की पूरी टीम सरीखे नौ रत्न पेश किए हैं और इनसे यह कहा है कि ये भी अपने तरीके के 9-9 रोलमॉडल बनाए।
मोदी ने ना केवल 31 लाख सरकारी कर्मचारियों को जोड़ा है, बल्कि अपने उस अपार जनसमुह को भी रीचार्ज किया है, जिसके बल पर उन्होंने पहली गैरकांग्रेसी पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने का करिश्मा कर दिखाया था। जिस तरह लोगों में इस अभियान को लेकर मोटीवेशन दिख रहा है, उससे साफ है कि मोदी लक्ष्य पाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। लेकिन इस हकीकत से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि इसके लिए लोगों की आदतें भी सुधारनी होंगी।
एक सर्वे के मुताबिक 14 फीसदी ऐसे भी लोग हैं जिनके घरों में टॉयलेट है, फिर भी वो खुले में शौच करना पसंद करते हैं। कारणों में खुली हवा में शौच करने का आनंद से लेकर मार्निंग वॉक और खेतों की देखभाल जैसे अपने तर्क हैं। उन्हें इसका इल्म है, तभी तो उन्होंने अपने इस अभियान को भी लोकसभा चुनाव की तरह ही जनांदोलन बनाया है। लोगों की भागीदारी बढ़ाई है। इस अभियान में नई बात ये है कि मोदी का विपक्ष ही नहीं है, क्योंकि उन्होंने इसे राजनीति से ऊपर उठकर लिया है।
(लेखक न्यूज एक्सप्रेस न्यूज चैनल के उत्तरप्रदेश-उत्तराखंड प्रमुख हैं), ई-मेल-mishrayogesh5@gmail.com
राजीव गांधी ने जब अपने ग्रामीण स्वच्छता अभियान की शुरुआत की, तब उन्हें इस बात का इल्म नहीं रहा होगा कि इस अभियान में लोगों से जुड़ने और संवाद करने का इतना बड़ा अवसर मौजूद है। तकरीबन 28 साल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब स्वच्छ भारत अभियान को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन पर शुरू किया तो तब शायद कांग्रेसियों को अपनी गलती का एहसास हो रहा है। वे अभियान की सफलता को लेकर ना केवल सवाल खड़े कर रहे हैं, बल्कि शो-मैनशिप की दलील देते हुए इसे खारिज भी कर रहे हैं। पर चतुर सुजान प्रधानमंत्री को इस खंडन-मंडन का एहसास जरूर रहा होगा तभी तो उन्होंने राजपथ पर अपने भाषण में साफ कहा था कि इसे सियासत से जोड़कर ना देखा जाए।
उन्होंने कहा कि मैं यह बात स्वीकार करता हूं कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस इस आंदोलन की सिरमौर रही है। मोदी ने यह भी साफ किया कि वे इस आंदोलन के लिए किसी तरह की आलोचना झेलने के लिए तैयार हैं। हालांकि आलोचना करने वालों का मुंह मोदी ने ये कहकर बड़ी चतुराई से बंद कर दिया कि जब लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था तो किसी ने उनसे पूछा था क्या कि आप कब खेत पर गए। गए या नहीं गए।
साफ है कि मोदी का स्वच्छ भारत अभियान एक लंबी तैयारी और सोच के बाद पेश की गई परिकल्पना है। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह समस्या हर आम और खास लोगों से जुड़ी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस समस्या को लेकर ना केवल फंडिंग जारी है बल्कि अंतरराष्ट्रीय विद्वानों में इस बात को लेकर मंथन भी तेज है कि आखिर संपूर्ण स्वच्छता अभियान को अमली जामा पहनाने के लिए सब्सिडी जरूरी है या लोगों को प्रेरित करना।
सब्सिडी खत्म करने वालों के भी तर्क कमजोर नहीं हैं। उनका कहना है कि इस समय पूरी दुनिया में केवल तीन देशों- भारत, नाइजीरिया और एक छोटे देश बर्कोनीफासो में शौचालय बनाने के लिए सब्सिडी दी जा रही है। पर भारत और नाइजीरिया में सब्सिडी देने के बावजूद खुले में शौच करने वालों की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही, जबकि तमाम ऐसे देश हैं जहां सब्सिडी खत्म होने के बाद खुले में शौच की आदत में बड़ा बदलाव देखा गया। इसकी नजीर नेपाल है, यहां पर सिर्फ एक दशक में 6 फीसदी शौचालय से बढ़कर नेपाल 53 फीसदी शौचालय बनाने में सफल रहा है। यह बाद दीगर है कि नेपाल, पाकिस्तान, नाइजीरिया और कंबोडिया जैसे राष्ट्रों में शौचालय बनाने के लिए मिलने वाली धनराशि में गोलमाल की भी तमाम शिकायतें मिली हैं। अभी इस मसले पर कोई निष्कर्ष निकलता कि नरेंद्र मोदी ने अपने स्वच्छ भारत मिशन के लिए दोनों नाव पर सवारी करना बेहतर समझा। यही वजह है कि उन्होने खुले में शौच की आदत और प्रथा खत्म करने के लिए शौचालय बनवाने की खातिर सब्सिडी की धनराशि बढ़ाकर 12 हजार रुपए कर दी। हालांकि उनके नगर विकास मंत्री नितिन गड़करी इस मद में 15000 रुपए की सब्सिडी का ऐलान कर चुके थे। दूसरी तरफ , मोदी ने इस अभियान की शुरुआत करने के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जयंती का दिन चुना, यह एक ऐसा सधा हुआ दांव है, जो कभी बेकार नहीं जा सकता। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आचार-विचार और सिद्धांतों से किसी भी आदमी के असहमति के कुछ बिंदु हो सकते हैं, पर यह भी कम हैरतअंगेज नहीं है कि असहमति से ज्यादा सहमति के बिंदु हर आदमी के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आचार-विचार और जीवन दर्शन से जुड़े दिखते हैं।
गांधी जयंती पर शुरू हुए इस अभियान के लिए दिल्ली की उस दलित बस्ती को चुना गया, जिसके चारों तरफ राष्ट्रपिता की यादें पसरी हैं। यह बताता है कि मोटीवेशन और प्रेरणा के स्तर पर भी मोदी ना केवल काम करने को तैयार हैं, बल्कि अपने स्वच्छ भारत मिशन को जनभागीदारी के मार्फत अंजाम देने के लिए प्रण से जुटे हैं। इस अभियान को लेकर मोदी की नीति और नीयत भरोसा करने लायक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की माने तो भारत में गंदगी के चलते हर आदमी को तकरीबन हर साल 6500 रुपए का नुकसान होता है। ये धनराशि उसे बीमारी के मद में खर्च करनी पड़ती है या फिर गंदगी से हुए संक्रमण के चलते कई बार कामकाज से विरत रहने से यह नुकसान होता है। यही नहीं विश्वबैंक के आंकड़े तो और आंख खोलने वाले हैं, जिसके मुताबिक भारत को तकरीबन 54 अरब डालर की कीमत गंदगी और इससे होने वाली बीमारियों-दुश्वारियों के चलते चुकानी पड़ती है।
ये धनराशि, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात जैसे राज्यों की कुल सालाना आय से अधिक है। पर आंकड़े इस बात की चुगली करते हैं कि भारत में तकरीबन 20 फीसदी लोग तो ऐसे बसते ही हैं, जिन्होंने अपने आस-पास ऐसी लक्ष्मण रेखा बना रखी है कि जिसकी परिधि में गंदगी और उससे होने वाली परेशानियां आ ही नहीं सकती। भारत साफ-सफाई के सही तरीके अगर अपनाए तो 32.6 अरब डालर की सालाना बचत कर सकता है। प्रति व्यक्ति यह धनराशि 1564 रुपए बैठती है। भारत में हर साल 6808 मिलियन टन कचरा निकलता है।
इसमें हर दिन कोलकाता 12060 टन, मुंबई 11645 टन, दिल्ली 11558, चेन्नई 6404 टन, हैदराबाद 5154 टन, बंगलुरू 3501 टन, अहमदाबाद 2636 टन और कानपुर 1839 टन कूड़े का इजाफा करते हैं। ये वो शहर है जो कूड़ा बढ़ाने में देश में सबसे ऊपर हैं। इतना ही नहीं देश में निकलने वाले 68.8 मिलियन टन कचरे से अगर बिजली बनाई जाए तो देश की सारी बिजली समस्याओं को हल किया जा सकता है। ब्रिटिश पावर प्लांट में 19.4 टन कचरे से एक मेगावाट बिजली पैदा होती है। वहीं फ्रेंच पावर प्लांट में 15 टन कचरे से एक मेगावाट बिजली बन जाती है।
कुछ अध्ययन रिपोर्टें ये भी कहती हैं कि जिन क्षेत्रों में लोग खुले में शौच करते हैं, वहां के लोगों की लंबाई कम होती जाती है। बच्चों का आई क्यू लेवल कम होता है। उनमें व्यवहार परिवर्तन की स्थितियां भी देखी गई हैं। खुले में शौच करने से शरीर के अंदर बैक्टीरिया और कृमि बीमार करते हैं। ये इंटेरोपैथी नाम के एक स्थाई रोग को जन्म देते हैं जो शरीर को कैलोरी और पोषक तत्व नहीं ग्रहण करने देता है।
कचरे कि इस बढ़ती संस्कृति ने 2007-2020 के बीच इससे निपटने के लिए 152 अरब डालर का बाजार तैयार कर दिया। इसमें इंफ्रास्ट्रक्चर पर तकरीबन 67 अरब डालर, रखरखाव और सेवाओं पर 54 अरब डालर की धनराशि व्यय होगी। साफ-सफाई से जुड़े बाजार की बढ़ोत्तरी का आंकड़ा इसी से समझा जा सकता है कि वर्ष 2007 में इस मद में 6.6 अरब डालर खर्च हुए थे। वहीं मोदी के इस अभियान के खात्मे के वर्ष में यह आंकड़ा तकरीबन 15 अरब डालर पहुंचने की आशंका जताई जा रही है। मोदी ने हाल-फिलहाल स्वच्छ भारत मिशन के लिए 62 हजार करोड़ रुपए दिए हैं, लेकिन वर्ष 2019 तक 2 लाख करोड़ रुपए खर्च करने का लक्ष्य रखा गया है।
एक सर्वे के मुताबिक 14 फीसदी ऐसे भी लोग हैं जिनके घरों में टॉयलेट है, फिर भी वो खुले में शौच करना पसंद करते हैं। कारणों में खुली हवा में शौच करने का आनंद से लेकर मार्निंग वॉक और खेतों की देखभाल जैसे अपने तर्क हैं। उन्हें इसका इल्म है, तभी तो उन्होंने अपने इस अभियान को भी लोकसभा चुनाव की तरह ही जनांदोलन बनाया है। लोगों की भागीदारी बढ़ाई है। इसमें 62 हजार करोड़ रुपए शहरों और कस्बों को साफ-सुथरा रखने के लिए और तकरीबन 1.34 लाख करोड़ रुपए पेयजल और अन्य काम के लिए रखे गए हैं। ऐसा नहीं है कि इस मद में पैसे नहीं खर्च हुए। 1986 से मोदी सरकार आने के ठीक पहले तक तकरीबन एक लाख 60 हजार करोड़ रुपए स्वच्छता के नाम पर अलग-अलग अभियानों में खर्च किए गए हैं। उपलब्धियों के पैमाने पर अगर इस धनराशि को परखा जाए तो डरावने आंकड़े हाथ लगते हैं। इस मिशन को अंजाम देने वाले विभाग की माने तो ग्रामीण भारत के 72 फीसदी इलाके इस मिशन में आच्छादित हैं जबकि 2011 की जनगणना इस दावे का मजाक उड़ाते हुए कहती है कि ग्रामीण भारत के सिर्फ 31 फीसदी घरों में शौचालय बन पाया है।
यही नहीं तकरीबन 8 करोड़ शौचालय गायब हो गए हैं, यानी ये शौचालय सिर्फ कागजों पर बने हैं। 1986 में राजीव गांधी ने शौचालय बनाने के लिए गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) रह रहे लोगों को 2250 रुपए और गरीबी रेखा से ऊपर (एपीएल) लोगों को 1500 रुपए की धनराशि दी थी। हालांकि 1999 में जब इस अभियान का नाम बदलकर संपूर्ण स्वच्छता अभियान (टीएससी) कर दिया गया तो एपीएल को मिलने वाली धनराशि खत्म कर दी गई और बीपीएल को सिर्फ 500 रुपए दिए गए। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे।
उनका मानना था कि सब्सिडी से समुदायों के आचार-व्यवहार में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। स्वच्छता सिर्फ निजी मामला नहीं है। 2006 में यूपीए-1 सरकार ने इस 500 रुपए को बढ़ाकर बीपीएल के लिए 1200 कर दिए, जबकि 2008 में ये धनराशि 3200 रुपए की गई। 2012 में जब मनमोहन सरकार निर्मल भारत अभियान लेकर आई, तब शौचालय बनाने के लिए दी जाने वाली इस सब्सिडी को 10 हजार रुपए कर दिया गया।
1981 में ग्रामीण भारत के महज एक फीसदी इलाके में शौचालय थे। वर्ष 2011 में यह आंकड़ा 31 फीसदी हो गया। 30 सालों में संपूर्ण स्वच्छता मिशन महज 30 फीसदी प्रगति कर पाया। यानी हर साल एक फीसदी ग्रामीण इलाकों में नए शौचालय बन और बढ़ सके। अब जब नरेंद्र मोदी 2019 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर उन्हें स्वच्छ भारत का तोहफा देना चाहते हैं तो यह सवाल उठना लाज़िमी है कि नरेंद्र मोदी की नीति, नीयत, मोटीवेशन और प्रतिबद्धताएं क्या सालाना 14 फीसदी गांवों में इस अभियान को अमली जामा पहनाने में कामयाब हो पाएंगी।
हालांकि इस अभियान को अंजाम देने के लिए नरेंद्र मोदी ने जिस तरह सरकार पर निर्भरता को दरकिनार करते हुए संवाद किया है, इस अभियान को राष्ट्रपिता से जोड़ा है, फिल्मकार कमल हसन, क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर, अदाकारा प्रियंका चोपड़ा, योग गुरू रामदेव, बालीवुड स्टार सलमान खान, कांग्रेसी नेता शशि थरुर, राज्यपाल गोवा मृदुला सिन्हा और छोटे पर्दे के कॉमेडी ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ की पूरी टीम सरीखे नौ रत्न पेश किए हैं और इनसे यह कहा है कि ये भी अपने तरीके के 9-9 रोलमॉडल बनाए।
मोदी ने ना केवल 31 लाख सरकारी कर्मचारियों को जोड़ा है, बल्कि अपने उस अपार जनसमुह को भी रीचार्ज किया है, जिसके बल पर उन्होंने पहली गैरकांग्रेसी पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने का करिश्मा कर दिखाया था। जिस तरह लोगों में इस अभियान को लेकर मोटीवेशन दिख रहा है, उससे साफ है कि मोदी लक्ष्य पाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। लेकिन इस हकीकत से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि इसके लिए लोगों की आदतें भी सुधारनी होंगी।
एक सर्वे के मुताबिक 14 फीसदी ऐसे भी लोग हैं जिनके घरों में टॉयलेट है, फिर भी वो खुले में शौच करना पसंद करते हैं। कारणों में खुली हवा में शौच करने का आनंद से लेकर मार्निंग वॉक और खेतों की देखभाल जैसे अपने तर्क हैं। उन्हें इसका इल्म है, तभी तो उन्होंने अपने इस अभियान को भी लोकसभा चुनाव की तरह ही जनांदोलन बनाया है। लोगों की भागीदारी बढ़ाई है। इस अभियान में नई बात ये है कि मोदी का विपक्ष ही नहीं है, क्योंकि उन्होंने इसे राजनीति से ऊपर उठकर लिया है।
(लेखक न्यूज एक्सप्रेस न्यूज चैनल के उत्तरप्रदेश-उत्तराखंड प्रमुख हैं), ई-मेल-mishrayogesh5@gmail.com