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डाउन टू अर्थ, जनवरी 2018
लाल सांता की टोपी लगाए बाबू लोग रेस्टोरेंट में खाना खा रहे हैं, मॉल में शापिंग कर रहे हैं। बड़े-बड़े मकानों-रेस्टोरेंटों और मॉल में हग-मूत रहे हैं। उनकी गन्दगी शहर के गन्दे नाले में बह रही है। हम सीवर साफ करने वाले उनका गन्दा साफ करते हैं। गन्दगी में नाक तक डूब जाते हैं। और वे हमें देखकर नाक में रुमाल रखकर परे हट जाते हैं। हमें देखकर किसी बाबू का दिल आज तक पिघला है? शहर की चकाचौंध-विकास और फेस्टीविटी से दूर, वाल्मीकि मोहल्ले में चुराई ईंटों, प्लास्टिक की शीट और टूटे एस्बेस्टर की छत से बने कमरे में दीपक परेशान होकर चहलकदमी कर रहा था। परेशानी की वजह थी बिटिया का एक छोटा सा सवाल- “पापा. एस्किमो लोग शील का शिकार कैसे करते हैं?”
बिटिया को ईडब्ल्यूएस कोटे में इलाके के नामी स्कूल “यादव वर्ल्ड पब्लिक स्कूल” में दाखिला दिलाकर दीपक खुश था कि बेटी इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़कर कुछ बन जाएगी। उसे क्या पता था कि ऐसे सवालों से भी दो चार होना पड़ेगा। पहले उसने सवाल को टालने की कोशिश की कि कल तुम ट्यूशन की टीचर से पूछ लेना। पर पता लगा कि ट्यूशन टीचर ने पहले ही हाथ खड़े कर लिये थे कि, सिलेबस या ज्यादा-से-ज्यादा मुहल्ले से सम्बन्धित सवाल पूछ लो। 250 रुपए ऑल सब्जेक्ट ट्यूशन में अंटार्कटिका जाना नामुमकिन है।
अब दीपक के सामने बेटी को इस सवाल का एकदम ठीक-ठीक जवाब देने के अवाला कोई चारा नहीं था। उसने बेटी को साथ लिया और एक सीवर के पास जाकर खड़ा हो गया। उसने सीवर के ढक्कन को हटाया और बोला “देख बिटिया, अंटार्कटिका में वहाँ के इनुइट लोग इसी तरह जमीन में सुराख बना लेते हैं और फिर इन्तजार करते हैं कि कब कोई सील मछली आए।”
बिटिया ने हैरानी से पूछा, “पापा। क्या अंटार्कटिका में नालियों में सील मछली पाई जाती है?” “अरे दुर-पगली” दीपक ने प्यार को ढिड़काते हुए कहा, “अंटार्कटिका में चारों ओर बर्फ-ही-बर्फ और बर्फ के नीचे पानी का महासमन्दर और उस महासमन्दर में रहती हैं सील मछलियाँ।”
“बर्फ के नीचे समन्दर! भला यह कैसे हो सकता है? बर्फ तो समन्दर में पिघल जाएगी कि नहीं बुद्धू?” बिटिया ने तमककर कहा।
“कुछ नहीं पिघलता बिटिया। यही तो विधाता की सृष्टि है” दीपक ने कहा, “अब देखो जमीन के ऊपर कितनी रौनक, कितनी चहल-पहल है। लाल सांता की टोपी लगाए बाबू लोग रेस्टोरेंट में खाना खा रहे हैं, मॉल में शापिंग कर रहे हैं। बड़े-बड़े मकानों-रेस्टोरेंटों और मॉल में हग-मूत रहे हैं। उनकी गन्दगी शहर के गन्दे नाले में बह रही है। हम सीवर साफ करने वाले उनका गन्दा साफ करते हैं। गन्दगी में नाक तक डूब जाते हैं। और वे हमें देखकर नाक में रुमाल रखकर परे हट जाते हैं। हमें देखकर किसी बाबू का दिल आज तक पिघला है? और जब इंसान का दिल नहीं पिघलता तो बर्फ क्या चीज है बिटिया?”
बाप कहानी को आगे बढ़ाता है, “जैसे मैं इस सीवर के गन्दे पानी में उतरता हूँ, किसी तरह बरफ के नीचे महासमन्दर के पानी में सील रहती है।”
बिटिया पूछती है, “पापा आप सील मछली बन जाते हो?”
बाप हँसकर जवाब देता है, “अरे बिटिया, मैं तो पानी में उतरता हूँ एक चड्डी पहनकर पर सील मछली तो एकदाम नंग-धड़ंग रहती है।”
बेटी पूछती है, “फिर क्या होता है पापा?”
“सील मछली को साँस लेने के लिये हवा में बाहर आना पड़ता है, ठीक वैसे ही जैसे गन्दे पानी में रहते हुए मुझे भी साँस लेने के लिये इस मैनहोल से बाहर निकलना पड़ता है। जैसे सील मछली बर्फ में बने सुराख से साँस लेने के लिये अपनी मुंडी बाहर निकालती है, उसी समय शिकारी बरछा चला देता है। ठीक वैसे ही जैसे हम सीवर साफ करने वाले लोग बाहर साँस लेने के लिये निकलने की कोशिश करते हैं और मैनहॉल की जहरीली हवा की बरछी हमारे फेफड़ों को फाड़ देती है, हमारे दिमाग की नसों को सुन्न कर देती है और हम गन्दगी से बजबजाते पानी में धीरे-धीरे डूबते चले जाते हैं… और सील मछली मर जाती है।”
एक लम्बी चुप्पी के बाद बाप कहता है, सील मछली हमसे ज्यादा खुशकिस्मत है बिटिया। पूछो क्यों? क्योंकि सील मछली शिकार पर अब पाबन्दी लग गई है।
फिर अपने में ही बुदबुदाता हुआ कहता है, जाने कब दूसरे शिकारों पर पाबन्दी लगेगी?