15 वर्ष की उम्र में सिमोन उरांव ने झरिया नाला को बाँधने का साहसिक निर्णय लिया। अपने पिता की प्रेरणा से कुछ ग्रामीणों को लेकर अभियान में जुटा। उसने सबसे पहले तुरिलतोपा नेर पतराटांड़ के निकट झरिया नाला को बाँधने का काम शुरू किया। प्रारम्भ में कंटीली झाड़ियों से आवृत्त भूमि में कुदाल चलाना दुष्कर साबित हुआ। पथरीली भूमि के कारण कुदाल के स्थान पर गइता उपयोग में लाया। कई दिनों के बाद सफलता हाथ लगी। ऊँची बंजर जमीन को काँट-छाँटकर मिट्टी भरी गई और एक छोटा बाँध बनकर तैयार हो गया।
झारखण्ड की राजधानी राँची से 35 किलोमीटर की दूरी पर है बेड़ो प्रखण्ड। यहाँ खस्सी टोली में जामटोली पहाड़ी की तलहटी की नीचले क्षेत्रों में एक शख्स सात दशकों से प्रकृति की प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझता आ रहा है। अपनी अदम्य साहस, दृढ़ संकल्प, जीवन के प्रति असीम आस्था तथा प्रकृति से मिले व्यावहारिक ज्ञान के बल पर बंजर जमीन को खेती के लायक बनाया।अनपढ़ होने के बावजूद अपनी ग्रामीण तकनीक से 'जल प्रबन्धन' और 'वन संरक्षण' को नया आयाम दिया। पर्यावरणविद तथा कृषि वैज्ञानिक जैसी गहरी सोच रखने वाला यह शख्स हर व्यक्ति के लिये प्रेरणा के स्त्रोत बने हुए हैं। वे किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। यह व्यक्ति और कोई नहीं बेड़ो प्रखण्ड के हरिहरपुर जामटोली गाँव के खस्सी टोली के 84 वर्षीय पड़हा राजा सिमोन उरांव हैं। पूरे क्षेत्र में सिमोन बाबा के नाम से विख्यात हैं।
जब देश के एक बड़े भूभाग के साथ पूरा झारखण्ड सूखे की चपेट में था। खेतों में लगे धान के विचड़े भीषण गर्मी से झुलस रहे थे। रोपनी का कार्य अवरुद्ध था, खेतों में हल नहीं चल पाये थे, जून से अगस्त के प्रथम सप्ताह तक वर्षा नहीं हो पाई थी। ऐसी विषम तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद जामटोली पहाड़ी की तलहटी के नीचले क्षेत्रों में कुदाल लेकर सिमोन उरांव झरिया नाले में मिट्टी भरकर खेती के लायक जमीन बनाने में मशगूल थे। आसपास के खेतों में लबालब पानी भरा हुआ था।
कुडुख गीत गाती हुई महिलाएँ धान की रोपनी कर मानों इंद्रदेव को चिढ़ा रही थीं मानों कह रही हों कि देखो तुमने तो पानी नहीं बरसाए, गरीबों पर दया भी नहीं आई, पर आज हमारी मेहनत से हमारे खेतों में पानी भरा है। दूसरों के लिये प्रेरणा स्त्रोत बना यह व्यक्ति पिछले कई वर्षों से खेतों में पानी की कमी को पूरा करने में लगा हुआ है और उसी के मेहनत का नतीजा है कि सूखाड़ के बावजूद गाँव के खेतों में लबालब जल भरे हुए हैं। उनके कार्यों की यह विकास गाथा का एक उदाहरण है। उनके योगदान को लेकर इस साल पद्मश्री सम्मान से नवाजा जाएगा।
15 मई 1932 को खस्सी टोली निवासी पाहन एवं पड़हा राजा बेड़ा उरांव की धर्मपत्नी बन्धनी उरांव की कोख से जन्म लेने वाले सिमोन उरांव होश सम्भालते ही अपने आपको गम्भीर आर्थिक कठिनाइयों से घिरा पाया। सात वर्ष की अवस्था में हरहंजी गाँव के प्राथमिक विद्यालय का मुुँह देखने वाले सिमोन पहली कक्षा में मात्र आठ माह पढ़ाई कर पाये। आर्थिक तंगी के कारण उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ा। पिता के कहने पर सात वर्ष की उम्र में ही खेतों में हल चलाना सीखा।
दस वर्ष की अवस्था में अपनी बंजर जमीन में सबसे पहले सकरकंद की खेती की। धीरे-धीरे उन्होंने टमाटर और बैंगन लगाए। बाजार में अपने द्वारा उत्पादित सकरकंद, बैंगन और टमाटर बेचकर जब उन्हें चन्द पैसे मिले तो उत्साह बढ़ा।
जामटोली पहाड़ी के निकट दूर-दूर तक भूमि पथरीली तथा बंजर थी। ऊँची-नीची तथा असमतल भूमि खेती के लायक नहीं थी। सिमोन के परिवार वालों की कुल 11 एकड़ जमीन थी, पर वह उबड़-खाबड़ नदी नालों एवं कंटीली झाड़ियों से भरी पड़ी थी। जामटोली पहाड़ी उत्तरपूर्व दिशा में एक नाला बहता था। दक्षिण-पश्चिम दिशा में संंकरे तथा गहरे नाले को झरिया नाला कहा जाता है।
15 वर्ष की उम्र में सिमोन उरांव ने झरिया नाला को बाँधने का साहसिक निर्णय लिया। अपने पिता की प्रेरणा से कुछ ग्रामीणों को लेकर अभियान में जुटा। उसने सबसे पहले तुरिलतोपा नेर पतराटांड़ के निकट झरिया नाला को बाँधने का काम शुरू किया। प्रारम्भ में कंटीली झाड़ियों से आवृत्त भूमि में कुदाल चलाना दुष्कर साबित हुआ। पथरीली भूमि के कारण कुदाल के स्थान पर गइता उपयोग में लाया।
कई दिनों के बाद सफलता हाथ लगी। ऊँची बंजर जमीन को काँट-छाँटकर मिट्टी भरी गई और एक छोटा बाँध बनकर तैयार हो गया। लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। लेकिन जैसे ही बरसात आई बाँध टूटकर बह गया। सिमोन ने ग्रामीणों की मदद से पुन: प्रयास किया। इस बार लेटेगुटू के पास झरिया नाले को बाँधा। लेकिन बाँध वर्षा के कारण फिर टूटा। इस बार सिमोन ने फिर हिम्म्त बाँधी।
खड़बागड़ा नाले को ग्रामीणों की मदद से बाँधा गया। जब बाँध बना तो उसमें 21 फीट जल था। आसपास की मिट्टी को काटकर उसमें भरा गया। निरन्तर अथक प्रयास के बाद नेर पतराटांड़, लेटेगुटू टांड़ तथा खड़बागड़ा की ऊपरी बंजर जमीन को काटकर भरने से जमीन खेती के लायक बनती गई। सिमोन ने कुडूर पट्टामार बैल तथा भैंस की मदद से जमीन को समतल बनाया।
बंजर जमीन तथा प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद सिमोन के प्रयास से आसपास लगभग सत्तर एकड़ जमीन खेती के लायक बनी। सिर्फ नेरपतरा के निकट 17 फीट गहरा मिट्टी भरकर दस एकड़ जमीन को खेती के लायक बनाया। डोंकटांड़ नाला तथा अन्तबालू नामक स्थान पर बीस एवं सत्ताइस फीट गहरे नाले एवं गड्ढे नाले को सिमोन ने ऊपरी बंजर भूमि को काटकर अत्यन्त परिश्रम से मिट्टी भरा और लगभग 12 एकड़ जमीन खेती के लायक बनाई।
खड़बागड़ा के निकट गहरे खड्डनुमा जमीन में 23-23 फीट मिट्टी डाला और सात एकड़ भूमि खेती के लायक बना। इस तरह बंजर भूमि को खेती के लायक बनाने का सिलसिला जारी रहा। मिट्टी संरक्षण विभाग ने अलग-अलग किस्तों में 14 हजार एवं 16 हजार रुपए ग्रामीणों को सहायता स्वरूप दिये।
जमीन तो खेती के लायक बनती गई लेकिन हर बरसात में बाँध टूटते गए। उन्होंने ग्रामीणों के मनोबल को बढ़ाने का प्रयास किया और कहा कि हार मानने से काम नहीं होगा। उसकी प्रेरणा और हिम्मत से ग्रामीण प्रभावित थे। बैरटोली, हरिहरपुर, जामटोली, खस्सी टोली के ग्रामीणों के साथ गाँव में बैठक आयोजित की।
ग्रामीणों ने यह विचार किया कि एक व्यक्ति अकेला इतना कुछ कर सकता है तो यदि सभी मिलकर साथ दें तो क्षेत्र में हरित क्रान्ति आ सकती है। ग्रामीणों ने सोचा बरगीचौड़ा भेड़ी कुदर चितो जहाँ प्रात: वर्षा होेती है और दोपहर बाद बिल्कुल सूख जाती है। ऐसे बंजर जमीन में यदि सिंचाई के लिये उचित प्रबन्ध किया जाय तो यहाँ की उपज से सैकड़ों परिवार को दो वक्त खाने को अनाज मिल सकता है।
बैठक में सिमोन उरांव के अलावा बैरटोली के सुका ताना भगत, पोगरो उरांव, तोता उरांव हरिहरपुर जामटोली के चेगे उरांव, बुधवा उरांव सहित दर्जनों लोगों ने बैठक में निर्णय लिया कि आसपास के खेतों को सालों भर पानी चाहिए तो चेकडैम से बड़े बाँध की आवश्यकता होगी।
सिमोन उरांव के व्यक्तिगत प्रयास का फल था कि उससे प्रेरित होकर गाँव वाले एकजुट हुए और 1961 में झरियानाला के गायघाट के पास एक बाँध का निर्माण कार्य शुरू किया। लगभग नौ वर्षो में काफी अथक प्रयास के बाद गायघाट बाँध का निर्माण पूरा हुआ। यह कोई आसान काम नहीं था। तीन गाँव के तीन सौ ग्रामीणों ने इस बाँध के निर्माण के काम में श्रमदान किया।
बाँध के निर्माण के क्रम में वर्ष 1967 में जल के तेज बहाव से बाँध क्षतिग्रस्त हुआ। सिमोन उरांव ने जल के अन्दर रहकर बाँध का मरम्मत किया। लगभग 15 मिनट जल के अन्दर रहने से सिमोन का दम घुटने लगा था। गाँव वाले काफी चिन्तित हो गए थे लेकिन सिमोन की जान बच गई और वे सकुशल बाहर आ गए। लगभग 49 फीट ऊँचा बाँध बनकर तैयार हो गया। इधर बाँध तैयार उधर सिमोन के पिता पड़हा राजा बेड़ा उरांव गम्भीर रूप से बीमार होने के कारण बाँध से होने वाले सिंचाई को देखने के लिये जीवित नहीं रह पाये। 1970 में उनका निधन हो गया।
गायघाट के निर्माण में ग्रामीणों को कैथोलिक बैंक, केनरा बैंक तथा प्रखण्ड मुख्यालय से ऋण भी लेना पड़ा। इसके बाद सिमोन उरांव ने खस्सी टोला के निकट छोटा झरिया नाला में 1975 में दूसरे नए बाँध का निर्माण किया। झरिया नाला बाँध 27 फीट ऊँचा बाँधा गया। सिमोन के प्रयास से ग्रामीणों ने झरिया नाला बाँध में एकजुट होकर श्रमदान किया। सिमोन सरकारी योजनाओं को क्रियान्वित कराने के लिये सदैव तत्पर रहता था। सिमोन सरकार और ग्रामीणों के बीच सेतु का काम करता था।
सिमोन के प्रयास से ही 80 के दशक में हरिहरपुर जामटोली के निकट गायघाट बाँध के ऊपरी इलाके में देशवाली बाँध का निर्माण किया। 4 लाख रुपए की लागत से बना यह बाँध लघु सिंचाई योजना से निर्मित है। यह इस क्षेत्र में सिमोन के प्रयास से बना तीसरा बड़ा बाँध है। बाँधों के निर्माण में लुइसा उरांव, हौवा उरांव, कमली उरांव, जोसेफ मिंज, बुधवा बुन्नु उरांव, किशनु तथा गइंद्रा उरांव की लगभग आठ एकड़ जमीन डूबी। वन विकास समिति के माध्यम से सिमोन उरांव ने ग्रामीणों की डूबी जमीन के एवज में दूसरी जगह जमीन मुहैया करा दी।
गायघाट के ग्रामीणों की मदद से सिमोन ने अपनी सूझ-बूझ के द्वारा साढ़े पाँच हजार फीट लम्बी कच्ची नहर निकाली। सिमोन के प्रयास से ही सिंचाई विभाग द्वारा लगभग 1500 फीट नहर का पक्कीकरण कराया गया। मुड़ा परचा, चितो परचा तथा चुंजकाफाड़ा जंगल के बीच से नहर निकालकर नहर को बोदा एवं भसनंदा गाँव की सीमा तक पहुँचाया। गायघाट से निकाली गई घने जंगल के मध्य पक्की परन्तु छोटी नहरों को देखकर सहसा सिमोन के कार्यों का विश्वास नहीं हो पाता है। लेकिन सिमोन उरांव ने नहरों से न सिर्फ खेतों को सींचा बल्कि 15 एकड़ में लगे सभी जंगलों को भी सिंचने का काम किया।
सिमोन के द्वारा किया गया यह अनूठा प्रयोग है जो झारखण्ड में अन्यत्र देखने को नहीं मिलती है। गायघाट बाँध से सिमोन ने चेगरेचाल नाला, जारा नाला, बरगीचौरा नाला, बरगीटांड नाला, भेड़ी कुदर नाला, हाथी होवर नाला नामक कच्ची नहरों का निर्माण कर हैरान कर देने वाला कार्य किया है। उधर झरिया नाला बाँध से सिमोन ने ग्रामीणों की मदद से आठ हजार फीट कच्ची नहर निकाली है।
यहाँ बाँधधरा नाला, डोकाटांड़ नाला, ढोयाबर नाला हरिणडूबा नाला, मोहराजारा नाला खस्सी चौरा नाला से नहर निकालकर उसे खेतों तक पहुँचाकर आसपास की भूमि की उपयोगियता बढ़ा दी। आरम्भ में तीन बाँधों से 54 एकड़ भूमि सिंचित होता था, जिसमें सिमोन की अपनी चार एकड़ भूमि सिंचित होती थी। प्रकृति से मिले व्यावहारिक ज्ञान तथा अपने तकनीकी ज्ञान से सिमोन ने चुड़का फाड़ा तथा चितो जंगल से होकर लगभग तीन किलोमीटर के क्षेत्र में क्रमश: दक्षिण में हरहंजी, खुरहाटोली, बैरटोली, उत्तर में हरिहरपुर, जामटोली तथा पश्चिम में भसनंदा गाँव की सीमा तक सिंचाई प्रबन्ध कर अपनी जलसंचयन तथा जल प्रबन्धन में विशेषता सिद्ध की है।
वर्ष 1977-78 के भीषण अकाल के कारण ग्रामीणों की हालत आर्थिक रूप से बहुत गम्भीर हो गई थी। ग्रामीणों को मवेशियों के लिये चारा भी नहीं मिल पा रहा था। किसी के खेत में एक मन धान भी नहीं उपज पाया था। ग्रामीण पलायन करने की सोचने लगे थे। सिमोन उरांव ने लोगों को यह कहते सुना कि हम अपने मवेशियों को आपके पास छोड़कर जा रहे हैं, सिमोन ने एक तरकीब निकाली।
उसने कृषि वन विकास समिति के माध्यम से प्रखण्ड कार्यालय से पम्प, खाद, बीज, किर्लोस्कर मशीनें खुरहा टोली के ग्रामीणों को दे दी तथा ग्रामीणों को सामूहिक रूप से गेहूँ की खेती करने का निर्देश दिया। इस वर्ष लगभग 250 एकड़ भूमि में ग्रामीणों ने एकजूट होकर गेहूूँ लगाया। इसका नतीजा साकरात्मक रहा। 150-150 मन गेहूँ का उत्पादन किया गया। आज सिमोन के प्रयास से सात गाँवों की लगभग तीन सौ एकड़ भूमि में सिंचाई हो रही है। उन्होंने लगभग पाँच हजार फीट नहर बनाए।
सिमोन उरांव झारखण्ड के सम्भवत: पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने 'चिपको आन्दोलन' से पहले जंगल बचाओ अभियान चलाया। सिमोन उरांव को हरियाली तथा जंगलों से बहुत गहरा लगाव है। सिमोन ने अपनी कृषि वन विकास समिति तथा ग्रामीणों की मदद से 258 एकड़ जंगल की वैज्ञानिक तरीके से रक्षा की। उन्होंने 1967-68 में रैयती जमीन में खरवागढ़ तथा रूगड़ीटांड में सरई की बीज डालकर जंगल लगाया।
वर्ष 1971 में लकड़ी तस्करों ने बेड़ो बीट के जामटोली, खस्सी टोली, बैरटोली तथा हरहंजी जंगलों में साल के बड़े-बड़े पेड़ों के काट डाला। लगभग 80 ट्रक लकड़ी को काटकर ले जाते देखकर ग्रामीण दहल उठे। इस समय सिमोन 12 पड़हा बेड़ो के राजा थे। तुरन्त ढिंढोरा पिटवाया गया। जामटोली में 12 पड़हा टोली के लोगों ने बैठक की। बैठक में बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया। महतो, पाहन, पुजार तथ कोटवार ने भी बैठक में भाग लिया। यह फैसला लिया कि लकड़ी तस्करों द्वारा काटी गई लकड़ी को ग्रामीणों में बाँट दी जाय।
पड़हा के इस फैसले ग्रामीणों को काफी खुशी हुई। जंगल में काटकर रखी गई लकड़ियों को तीन घंटे के अन्दर बाँट दिया गया। पड़हा की इस कार्रवाई तस्करों में हड़कम्प मच गया। वन विभाग के पदाधिकारियों के द्वारा सिमोन के पहल पर तस्करों के खिलाफ कार्रवाई की गई। बाद में वन विभाग के अधिकारियों की उदासीनता के कारण ग्रामीणों ने स्वयं विचार किया कि यदि जंगलों को ऐसे ही छोड़ दिया जाय तो तस्करों के द्वारा जंगल साफ कर दिये जाएँगे। फिर जलावन तथा अन्य मूलभूत आवश्यकताओं के लिये ग्रामीणों को लकड़ी के छोटे टुकड़े भी नसीब नहीं होंगे।
सिमोन ने ग्रामीणों को अपने सूझ-बूझ का परिचय देते हुए, उपाय सुझाया कि प्रत्येक गाँव वाले अपने जंगलों की रक्षा के लिये समिति बनाकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें तो जंगलों की रक्षा हो सकेगी। ग्रामीणों को अक्षर ज्ञानविहीन सिमोन की बुद्धि भा गई। ग्रामीणों ने उनकी पहल पर 25 सदस्यीय जंगल रक्षा समिति बनाई तथा जंगल की रक्षा का संकल्प लिया। परिणामस्वरूप आज हर जरूरतमन्द ग्रामीणों को लकड़ी शादी विवाह, पर्व-त्योहार, जन्म-मरण सहित अन्य जरूरत खुद उनके प्रयास से पूरी हो रही है।
ग्रामीणों का आज जंगल से बेहद लगाव है। उनके जंगल तथा हरियाली से प्यार का नतीजा है कि अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा खस्सी टोला के जंगल अधिक घने हैं। इतना ही नहीं सिमोन ने अपनी मेहनत से खरबागढ़ा और रूगड़ीटांड़ में लगभग दो सौ एकड़ भूमि में जंगल लगाया। जंगल की रखवाली के लिये प्रत्येक दिन खस्सी टोली, जामटोली और बैरटोली के पाँच-पाँच लोगों को लगाया।
जंगल की रक्षा में लगे लोगों को प्रतिवर्ष अगहन के बाद बीस-बीस किलो धान तथा एक निश्चित मात्रा में जलावन के लिये लकड़ियाँ दी जाती है। वन रक्षा समिति प्रतिवर्ष फरवरी माह में लकड़ी की कटाई करता है, इससे ग्रामीणों की जरूरतें पूरी होती है। यह ध्यान रखा जाता है कि पेड़ों का समूल विनाश न हो।
सिमोन के कदम रुके नहीं, उन्होंने जंगल के बीच बहते हुए नालों से मिट्टी के कटाव को भी रोका। मिट्टी के कटाव से वन का ह्रास हो रहा था। बड़े-बड़े नालों की निरन्तर गहराई बढ़ रही थी। सिमोन ने नाले के मुहाने को बन्द कर दिया, जिससे निपेक्षित मिट्टी नालों में भरती जा रही है। इससे मिट्टी के कटाव के दर में कमी आई है। कई नालों में मिट्टी भरकर वृक्षारोपण किया गया।
सिमोन उरांव के जंगल रक्षा अभियान तथा प्रकृति प्रेम से प्रभावित होकर बारीडीह, बोदा, महरू, भसनंदा, हुटार, हरहंजी, खुरहटोली, बेड़ो सहित कई गाँवों के ग्रामीणों ने जंगल की रक्षा अभियान में खुद को लगाया और जंगल बचाने का प्रयास किया। रबी मौसम में सिंचाई व्यवस्था सुनिश्चित करने वाले सिमोन उरांव अपने व्यावहारिक जल प्रबन्धन की बदौलत सब्जी उत्पादन करने वाले तथा गेहूँ उत्पादन करने वाले अग्रणी व्यक्ति हैं।
सिमोन उरांव वर्तमान समय में सब्जी उत्पादन को लेकर व्यस्त हैं। उन्होंने मधुमक्खी पालन सब्जी उत्पादन के नए तौर-तरीकों के साथ युवाओं के स्वरोजगार के अवसर पैदा किये हैं। पड़हा के माध्यम से सिमोन उरांव ने सिर्फ बेड़ो प्रखण्ड ही नहीं बल्कि कर्रा लापुंग और रातु प्रखण्ड के कई गाँवों में शान्ति बहाल करने, गाँव के झगड़े गाँव में ही पड़हा के माध्यम से सुलझाने तथा दूसरों की सहायता करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। देश-विदेश से अनेक सामाजिक कार्यकर्ता और अनुसन्धानकर्ता, सरकारी पदाधिकारी इनके कामों को देखने आते हैं।
सिमोन उरांव को झारखण्ड में असीम सम्भावना दीखती है। सिमोन उरांव की 84 वर्षीय काया में आज भी युवाओं जैसी फूर्ति है। उन्होंने देशज और व्यवहारिक ज्ञान की बूते एक मिशाल कायम की है।