सिरोंज तालाब-कभी स्टेडियम तो कभी हेलीपैड

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अनसुना मत करो इस कहानी को (परम्परागत जल प्रबन्धन), 1 जुलाई 1997

सिरोंज में जहाँ घर-घर खारे पानी के कुएँ हैं, तालाब किनारे और नदी पेटे के इन अमृत कुंडों ने ही सदियों से इस व्यापारिक शहर को तृप्त रखा है। वे आज भी अपना काम किये जा रहे हैं। नई नल-जल योजना अभी भी पूरे शहर को पानी नहीं पिला पाती और शहर के भीतरी हिस्से को जितना भी पानी मिलता है वह तालाब किनारे के उस पुराने हमाम कुएँ पर लगाए गए पम्प की मदद से ही मिलता है जिसे प्रशासन ने वर्षों से साफ नहीं कराया है।

सिरोंज के दक्षिण की ओर बने इस तालाब के निर्माता का कोई अता-पता नहीं है। 17वीं सदी में सिरोंज आगरा से सूरत बन्दरगाह जाने वाले रास्ते का प्रमुख पड़ाव था। अबुल फजल ने सिरोंज का व्यापारिक शहर के रूप में जिक्र किया है। सिरोंजवासियों के अलावा, शायद गुजरने वाले काफिलों और डेरा डालने वाले बंजारों के टांडों की जरूरत पूरी करने के लिये सैकड़ों साल पहले यह तालाब बनवाया गया था। तालाब का इतिहास बताने वाला तो अब सिरोंज में कोई नहीं है, लेकिन तालाब की जरूरत पर बोलने वाले अनगिनत हैं और हर एक के मन में अफसोस है कि आज तालाब को नाहक ही दो हिस्सों में बाँट दिया गया है।

सन 1992 में ‘सरोवर हमारी धरोहर’ योजना बनाने वालों को अपनी इस पुरानी धरोहर की चिन्ता हुई। अक्ल का ज्यादा इस्तेमाल किये बिना इंजीनियरों ने तालाब के बीच में पाल डालकर इसको दो हिस्सों में बाँट दिया। तालाब के निचले उत्तर-पूर्वी हिस्से में तो पहले से ही पाल थी। दक्षिण में पहाड़ियों से उतरे पानी का जो प्राकृतिक बहाव था, उसके रास्ते में अब पाल डाल दी गई है। तकनीकी कुशलता ऐसी कि पाल के दोनों छोर आज़ाद हैं। अब इस पाल जैसी चीज ने इन पहाड़ियों से बहकर तालाब में आने वाले पानी के रास्ते में रुकावट पैदा कर दी है।

यह पाल पहली ही नजर में हमारी नई सोच का फूहड़ नमूना नजर आता है। सरकार ने पैसा दिया था और खर्च करना था सो तालाब को गहरा करने के बजाय यह पाल बनवाई, एक घाट बनवाया और जो पैसा बचा, उससे वृक्षारोपण करवा दिया। नगरपालिका भी पीछे नहीं रही, अब तो उसने भी तालाब की पुरानी चौड़ी और मजबूत पाल पर नया बस स्टैण्ड बना दिया है। तालाब पर अब हर समय मुसाफिरों की रेलमपेल रहती है और तालाब का घाट मुसाफिरों को सुलभ कॉम्प्लेक्स की कमी महसूस नहीं होने देता। नेता इस तालाब का उपयोग हेलिपैड के रूप में करते हैं और नौजवान स्टेडियम की तरह। अब तो दिन में ही नहीं, रात में भी रोशनी का इन्तजाम करके वहाँ क्रिकेट होता रहता है।

नगरपालिका सिरोंज, भोपाल तालाब की तरह अपने इस तालाब के उत्तरी छोर पर घूरा भी डलवा रही है ताकि धीरे-धीरे तालाब से ज़मीन निकाली जाये और उससे व्यावसायिक लाभ कमाया जाये। और हाँ, तालाब के ऊपर की तरफ जो ‘पाल’ जैसी चीज डाल दी गई है, उसके परली तरफ की ज़मीन पर अब चैन से खेती हो रही है।

सिरोंज के पढ़े-लिखे नए नगर-निर्माताओं को इस तालाब की बस यही उपयोगिता समझ आई है, लेकिन जिन्होंने सैकड़ों साल पहले तालाब बनवाया था, उन्होंने कैथन नदी के पूर्वी किनारे पर बसे सिरोंज को उस नाले से मुक्ति दिलाई थी, जो दक्षिण से बहता हुआ कैथन नदी में मिलता था। आज का सिरोंज का बाजार कभी नाला ही था फिर वहीं क्यों, हादीपुर काहरा बाजार, बड़ा बाजार और तलैया सभी उस पुराने नाले की जगह बसे हैं। तब के नगर निर्माताओं ने यह तालाब बनाकर सिरोंज को सिर्फ उस नाले से ही निजात नहीं दिलाई थी, बल्कि व्यापारिक माल ढोने वाले बैलों, ऊँटों, गधों, खच्चरों और घोड़ों के लिये भी पानी का इन्तजाम कर दिया था। मुसाफिरों के साथ शहर की दक्षिणी आबादी भी नहाने-धोने के लिये इसी तालाब पर निर्भर थी, लेकिन सबसे बड़ा काम उन्होंने मीठे पानी का पुख्ता इन्तजाम करने का किया था, जो उस समय बड़ी कठिन बात थी।

सिरोंज शहर के अन्दर के कुओं का पानी खारा और अनुपयोगी था, इसलिये इस पुरानी समृद्ध व्यापारिक नगरी में पानी का रोना हमेशा बना रहता था। इस समस्या से निपटने के लिये पुराने लोगों ने तालाब के पाल पर या सटकर कुएँ खुदवाये थे। शक्कर कुइया, मंडी का कुआँ, हमाम कुआँ और हिजड़ों का कुआँ, जैसे दर्जन भर कुएँ-कुइयाँ ही वे मीठे पानी के स्रोत थे, जिनसे सिरोंज की दक्षिणी बस्ती को पेयजल मिलता था। तालाब के पाल पर बनी शक्कर कुइयाँ का नाम शक्कर कुइयाँ ही इसलिये पड़ा कि उसका पानी शक्कर की तरह मीठा था। कुइयाँ अब भी है, साफ और स्वच्छ पानी से भरपूर। अब तो उस पर हैण्डपम्प भी लगा दिया गया है।

जब तालाब पूरा भर जाता था, तो मंडी वाले कुएँ का पानी मुंडेर से बस पाँच-सात हाथ नीचे रह जाता था। बाद में, जैसे-जैसे तालाब का पानी कम होता जाता, कुएँ का पानी उतरता जाता। ऐसा ही था, हिजड़ों का कुआँ। उसे हिजड़ों ने बनवाया था, इसलिये उसका नाम हिजड़ों का कुआँ पड़ा या कोई और वजह थी, इस नाम की, कह पाना मुश्किल है। फिर भी, उसके मीठे पानी का इस्तेमाल सभी करते थे।

मुस्लिम शासकों की बस्ती की खास चीज हुआ करती थी- हमाम, वह सिरोंज में भी था। उसके पानी की पूर्ति हमाम के कुएँ के नाम से सिरोंज में आज भी मशहूर कुएँ से होती थी। हमाम तो मिट-मिटा गया, पर तालाब से कुछ ही दूर कुआँ आज भी है, अपने पेट में भरपूर पानी लिये। जब सिरोंज में नल-जल-योजना वालों ने कैथन बाँध से पाइप लाइन बिछा दी, तो शहर के कुछ हिस्सों में पानी कम दबाव से आने की शिकायत मिली। नल-जल योजना वालों को दूर की सूझी और उन्होंने हमाम कुएँ पर मोटर बैठा कर पाइप लाइन जोड़ दी। इस पुराने कुएँ की मदद से सिरोंजवालों को आज भी राहत मिल रही है।

सिरोंज की नदी तल के कुएँ


सिरोंज के नदी तल के कुओं को समझने के लिये सिरोंज के अतीत में झाँकना जरूरी है। शेरशाह सूरी के जमाने से ही प्रशासकीय केन्द्र रहा सिरोंज, उत्तर भारत की मंडियों का माल सूरत बन्दरगाह तक ले जाने वाले मार्ग का प्रमुख पड़ाव था। सिरोंज में कागज निर्माण, कपड़े बुनने और उन पर कलात्मक छपाई का काम बड़े पैमाने पर होता था। विदेशी व्यापारी सिरोंज की महीन मलमल और चटख छींट खरीदने के लिये सिरोंज में स्थायी रूप से डेरा डाले रहते थे। जाहिर है वहाँ मीठे पानी की भारी जरूरत रहती थी और बस्ती के कुओं में सिर्फ खारा पानी ही निकलता था। आज भी सिरोंज पानी के मामले में श्रापग्रस्त माना जाता है।

लेकिन सिरोंजवासी शाप से निराश नहीं हुए थे। उनकी कोशिशें लगातार जारी रहीं। तालाब बनाकर उसके किनारे कुएँ खोदकर मीठे पानी के स्रोत तो बनाए ही गए, बरसाती नदी कैथन के तल में दर्जनों पक्के और खुबसूरत कुएँ-कुइयाँ खोदकर भी पेयजल का पक्का इन्तजाम किया गया। शहर के उत्तर से होकर बहने वाली छोटी सी कैथन नदी सिरोंज से कुछ ही किलोमीटर ऊपर तरवरिया ताल से निकलती है। एक तो हजारों व्यापारिक भारवाहक पशुओं की रेलमपेल, उस पर निर्यात किये जाने वाले कपड़ों की रंगाई और धुलाई। ऐसे में छोटी से बरसाती नदी से बारह महीनों भरपूर साफ और शुद्ध पेयजल प्राप्त करने के लिये सिरोंज के रहवासियों ने अनूठा तरीका ढूँढा। नदी में एक, दो, दस नहीं, दो दर्जन से ज्यादा खूबसूरत और मजबूत कुएँ-कुइयाँ बनाए गए। पेयजल के इन स्रोतों के निर्माण का सिलसिला इस सदी के आरम्भ होने तक लगातार चलता रहा।

बीच नदी में या फिर बिल्कुल किनारे पर बनाए गए इन कुओं में आज भी मीठा पानी लबालब भरा रहता है। बरसात में जब बाढ़ आती है तो ये कुएँ-कुइयाँ नदी में समा जाते हैं और बाद में फिर जैसे-जैसे नदी का पानी कम होता जाता है और जल संकट बढ़ता है तो ये जलस्रोत अपने पेट में अगाध जलराशि लिये एक-एक करके उबरते जाते हैं। इनमें से पानी लेने के लिये सिर्फ चन्द हाथ की रस्सी की ही जरूरत होती है।

जहाँ पाइप लाइन नहीं पहुँची है, नदी पार की ऐसी बस्तियों में अभी इन कुएँ-कुइयों का ही सहारा है। आज भी किनारे की बस्तियों के लोग कैथन नदी की रेत फलाँगते हुए, घुटने-घुटने पानी में चलकर इन जलस्रोतों तक पहुँचते हैं और रीते नहीं लौटते। कुछ बरस पहले जब शहर में पाइप लाइन नहीं बिछी थी और गर्मियों में घोर जल संकट हो जाता था तो नदी के तल में बनी पच-कुइयों पर डीजल पम्प रखकर टैंकरों से शहर में पानी वितरित किया जाता था।

वैसे तो नदी में मीठे पानी के कई जलस्रोत हैं पर एक ही स्थान पर बनी पाँच कुइयों के नाम पर जगह का नाम ही पच-कुइयाँ पड़ गया है। लेकिन ये कुइएँ इसी जगह पाँच से बढ़कर करीब आठ हो गई थीं, सफाई से तराशे गए काले पत्थर और देशी चूने से बेहद खूबसूरत तरीके से बनाई गई इन कुइयों में दो लगभग नष्ट हो गई हैं और दो में मिट्टी भर गई है। बाकी के चार कुएँ-कुइयों की सफाई पर धेला भी खर्च नहीं किया जाता पर वे आज भी सूखे गलों को तर करने का काम कर रही हैं। लेकिन उनके भी बुरे दिन आ गए लगते हैं। जून 96, में शहर में जब उल्टी-दस्त की बीमारी फैली तो प्रशासन ने अपनी कमजोरी छिपाने के लिये पच-कुईयों के पानी को बीमारी का जिम्मेदार ठहरा दिया। प्रशासन अब उन्हें बन्द करने की जुगत में हैं। पच-कुइयाँ यदि बोल पातीं तो जरूर पूछतीं कि बीमारी फैलाने का इल्जाम लगाने वालों ने उनकी सफाई और देख-भाल के लिये आज तक किया क्या है।

सिरोंज में जहाँ घर-घर खारे पानी के कुएँ हैं, तालाब किनारे और नदी पेटे के इन अमृत कुंडों ने ही सदियों से इस व्यापारिक शहर को तृप्त रखा है। वे आज भी अपना काम किये जा रहे हैं। नई नल-जल योजना अभी भी पूरे शहर को पानी नहीं पिला पाती और शहर के भीतरी हिस्से को जितना भी पानी मिलता है वह तालाब किनारे के उस पुराने हमाम कुएँ पर लगाए गए पम्प की मदद से ही मिलता है जिसे प्रशासन ने वर्षों से साफ नहीं कराया है। अब प्रशासन मीठा पानी प्राप्त करने के लिये पुरानी कारीगरी की अद्भुत मिसाल पच-कुइयों को संरक्षण देने की जगह बन्द करने पर उतारू हैं।

चूनगर कहाँ गए?


चूनगरों के बगैर सिरोंज के जल प्रबन्ध की कथा अधूरी है। सिरोंज और आसपास के कुएँ-बावड़ियों इमारतों के लिये चूनगर सिरोंज में ही चूना पकाते थे। चूनगर अपने हुनर के दम पर समाज में प्रतिष्ठित भी थे और खुशहाल भी।

सिरोंज का रानापुर, कभी पूरा चूनगरों का ही मोहल्ला था। चूनगर अलीगंज, करिया, करीमाबाद, कचनारिया और नारायणपुर की खदानों से चूना पत्थर लाते और फिर भट्टे में पहले लकड़ी, फिर चूना-कंकड़, फिर लकड़ी और फिर चूना-कंकड़ की तह पर तह जमाते हुए ऊपर से पीली मिट्टी डाल कर भट्टा सुलगा देते। कुछ ही दिनों में चूना तैयार हो जाता था।

चूने की माँग बहुत थी और चूनगर कम। सो चूने की कमी बनी ही रहती थी। यही वजह थी कि चूनगरों की समाज में खासी पूछ-परख थी। देसी तकनीक से पकाया यह चूना अब चलन में कम ही है। फिर भी अभी पुराने लोगों में सिरोंज के पके चूने की कदर बची हुई है।

सिरोंज में रानापुर मोहल्ला आज भी है। परन्तु वहाँ के चूनगरों का अब पहले जैसा सम्मान नहीं है। अब रानापुर चूनगरों का नहीं हरिजनों का मोहल्ला कहलाता है, जहाँ के मर्द अब सिरोंज में रिक्शे चलाते हैं।