सलिल बिना सागर

Submitted by RuralWater on Sun, 08/30/2015 - 12:49
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शिवमपूर्णा
सावन भादों क्वाँर औ, बीत गया मधुमास।
पनघट बैठी बावरी, रटती रही पियास।।

दीन हीन यजमान सी, नदिया है लाचार।
याचक से तट पर खड़े, हम निर्लज्ज गँवार।।

बगिया में अब शेष है, केवल ऊँची मेड़।
कहाँ गए मनभावने, वे बातूनी पेड़।।

चादर छोटी हो रही, शहर रवा रहे गाँव।
हुए नयी तकनीक के, इतने लंबे पाँव।।

नदियों का संबल दिया, सागर का विश्वास।
फिर भी हम जलहीन क्यों, पूँछ रहा आकाश।।

तपते रेगिस्तान में, उगे मखमली घास।
इतना पानीदार हो, तेरा एक प्रयास।।

नदियों को जलधार दें, धरती को श्रृंगार।
बूँद बूँद गागर भरे, मिलकर मेरे यार।।

पानी की अभ्यर्थना, पानी का संकल्प।
पानी दूषण से बचे, खोजें नए विकल्प।।