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यहां के बाशिंदे हताश हो चुके हैं, कोई भी राजनीतिक दल अब उनकी इस समस्या को समस्या ही नहीं मानता है। इस बात का हल्ला हो चुका है कि सोन नदी अब लाइलाज है। लोग पलायन कर रहे है और कारखानों को खुलकर खेलने की छूट मिल रही है। सवाल अनुत्तरित है कि जब कुछ साल बाद नदी ही नदारत हो जाएगी तब क्या होगा? क्या नाबदान बन चुकी सोन कारखाने वालों के भी काम की रह जाएगी? ओपीएम आज एशिया के सबसे बड़े कागज कारखानों में से एक है, जिसकी क्षमता 500 टन प्रतिदिन तक है। कई आदेशों के बावजूद इससे निकला गंदा पानी सोन नदी में मिलना नहीं रूक पाया है।
शायद कभी इसके पानी से धरती सोना उगलती होगी। लेकिन अब इसका पानी बीमारी, लाचारी और बेगारी उपजा रहा है। सोन नदी के 75 किलोमीटर के दायरे में मौत का सन्नाटा है। सरकार और माज दोनों को मालूम है कि इस आफत को उन्हीं ने बुलाया है। इसके बावजूद अजीब सी चुप्पी है- कोई 157 गांवों के लोग नदी से हताश होकर पलायन करने को मजबूर है।इलाके की एक लाख की आबादी पुश्तों से जीवनयापन के लिए सोन नदी पर निर्भर थी, आजादी के बाद विकास के नाम पर ऐसा दानव खड़ा हुआ कि नदी का पानी जानवरों के पीने लायक भी नहीं रह गया। आदिवासी बाहुल्य शहडोल इलाके की हवा, जमीन और पानी विष हो चुका है। अब भूगर्भ जल पर भी औद्योगिकरण की काली छाया पड़ रही हैं।
सोन नदी पेंड्रा रोड रेलवे स्टेशन (छत्तीसगढ़) से करीबन 19 किलोमीटर दूर स्थित सोन कुंड से निकलती है। कहा जाता है पहले इस नदी में सोने के कण बहते हुए मिलते थे। यह नदी मध्य प्रदेश के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार राज्यों में कोई 780 किलोमीटर का सफर तय करते हुए पटना के पास गंगा में मिलती है।
म.प्र. के शहडोल जिला मुख्यालय से 31 किमी दूर स्थित ओरिएंट पेपर मिल यानी ओपीएम में बरसात के दो-तीन महीनों को छोड़कर पूरे साल पानी को नदी में रोककर कागज बनाया जाता है। इस तरह हर साल कोई 30 लाख गैलन दूषित पानी सीधे नदी में घुल जाता है। इस पानी में एसिड, कई अन्य घातक रसायन, प्रोसेस के बाद बची गंदगी जैसे जहरीले तत्व होते हैं। रही बची कसर ओपीएम की सहयोगी मिल सोडा मिल (हुकुचंद मिल) पूरा कर देती है।
यहां से पारा सरीखा जानलेवा रसायन सीधे सोन में मिलता है और नदी के पानी के जरिए खेती, मछली के बारास्ता इंसानों के शरीर को खोखला बना देता है। इस कारखाने से क्लोरीन का रिसाव तो आम बात हो गई है। सनद रहे कि हवा की 10 लाख मात्रा में क्लोरीन के महज एक हिस्से को ही इंसान सह सकता है। कुछ साल पहले सरकार ने इस सीमा को 12 कर दिया था, लेकिन अमलाई के आसपास तो यह कई सौ गुना अधिक होती है। इसका सीधा असर सोन नदी की पानी की गुणवत्ता पर भी पड़ता है।
सेान नदी के कमांड इलाके में बसे देवरी, खमरोंदा, बकही, जासो, किशनपुरा की पूरी आबादी खून, सांस और चमड़ी के रोगों से ग्रस्त है। जिला मुख्यालय से मात्र 16 किमी दूर स्थित आदिवासी बाहुल्य दीयापीपर गांव के सैंकड़ों मवेशी सोन का जहर पीकर मर चुके हैं।
आदिवासी कभी इस नदी को अपनी संस्कृति की धरोहर मानते थे, आज उनके लिए यह काल है। बच्चे यदि गलती से भी सोन के पानी में नहा लें तो उनकी आंखें लाल हो जाती हैं, शरीर में खुजली हो जाती है। यहां नदी के जल में पीएच कीमत 10.3 आंकी गई है, जबकि यह 6.5 होना चाहिए। ठीक यही हाल नदी किनारे बसे सोनटोला, हर्राटोला, भेंस्वाई, गुडास आदि गांवों की है।
कोई 50 किलोमीटर इलाके के खेतों की उत्पादन क्षमता लगभग पूरी तरह समाप्त हो गई है। इलाके की अधिकांश आबादी चर्मरोग, सांस की बीमारी और पेट के रोगों से बेहाल है। भूजल विभाग का एक सर्वे गवाह है कि नदी के किनारे हैंडपंपों से निकल रहे पानी में क्षारीयता इतनी अधिक है कि यह ना तो इंसान के लायक है, ना ही खेती के। मध्य प्रदेश का पर्यावरण और प्रदूषण विभाग 20 साल पहले ही चेता चुका था कि कारखानों के कारण सोन नदी का पानी बेकार हो चुका है।
विकास और रोजगार के लुभावने सपनों के साथ सन् 1965 में इस आदिवासी इलाके में कागज और कास्टिक का कारखाना शुरू किया गया था। पहले तो कागज के लिए इलाके के घने बांस के जंगल उजाड़ दिए गए- परिणामस्वरूप यहां का पर्यावरण गड़बड़ाने लगा। बांस का सामन बनाकर सदियों से पेट पालने वालों का रोजगार भी जाता रहा। जब तक लोग चेतते, उनकी जीवनरेखा सोन नदी पर भी ग्रहण लग चुका था। आंदोलन हुए।
सन् 1967 में तत्कालीन विधानसभा उपाध्यक्ष रामकिशोर शुक्ल का अगुवाई में पांच लोगों की एक कमेटी बनाई गई। इस कमेटी में 19 फरवरी 1969 को सरकार को रिपोर्ट सौंपी, जिसमें सोन नदी में बढ़ रहे प्रदूषण को रोकने के लिए ओपीएम को पानी साफ करने के उपाय की सलाह दी गई थी। उस समय पर्यावरण की रक्षा की दुहाई देते हुए ओपीएम ने सरकार से 91.83 एकड़ जमीन ले ली।
कारखाना मालिकों ने हरियाली के नाम पर यहां यूकेलिप्टस के पेड़ रोप दिए। हकीकत में तो यह उनके लिए चिकना कागज बनाने का कच्चा माल था, जिसका खामियाजा इलाके के भूजल के स्तर को उठाना पड़ा। वैसे तो कारखाने में जल-शुद्धिकरण का एक प्लांट लगा है, लेकिन इसका सोन नदी में घुल रहे जहर पर कोई असर नहीं पड़ रहा है।
अनूपपुर की एक स्वयंसेवी संस्था ‘विदूशक’ ने कोई दो दशक पहले कारखाने से फैल रहे प्रदूषण पर एक रिपोर्ट बना कर म.प्र. प्रदूषण निवारण मंडल को सौंपी थी। मंडल ने सीजेएम की अदालत में कारखाने के खिलाफ धारा 49,44,46 और 33 क तहत मामला भी दर्ज करवाया था। कुछ दिनों बाद प्रदूषण मंडल ने खुद ही मामले में लीपा-पोती कर दी थी।
सन् 1986 में शहडोल के कलेक्टर ने सोन नदी में कारखाने से निकले कचरे में मिले पारे के कारण मछलियां मरने की बात को संज्ञान में लेते हुए कारखाने पर सीआरपीसी का धारा 133 के तहत मुकदमा दर्ज करवा दिया था। 06 अक्टूबर 1986 को जिले की एक अदालत ने कारखाने को अपराधी करार देते हुए कहा कि सोन नदी के किनारे रहने वालों का नदी के जल पर मानवीय अधिकार है। लेकिन इस फैसले के खिलाफ प्रबंधन हाईकोर्ट चला गया और दलील दी कि वह सन् 1965 से सोन नदी में अपना अपशिष्ट बहा रहा है, जोकि अब उसका अधिकार बन गया है। यदि नदी का पानी जहरीला हो गया है तो लोग उसका इस्तेमाल करना बंद कर दें। मामला अदालती भूलभुलैया में भटकता रहा और जल के लिए नदी के विकल्प कुएं व हैंडपंप भी जहर उगलने लगे।
यहां के बाशिंदे हताश हो चुके हैं, कोई भी राजनीतिक दल अब उनकी इस समस्या को समस्या ही नहीं मानता है। इस बात का हल्ला हो चुका है कि सोन नदी अब लाइलाज है। लोग पलायन कर रहे है और कारखानों को खुलकर खेलने की छूट मिल रही है। सवाल अनुत्तरित है कि जब कुछ साल बाद नदी ही नदारत हो जाएगी तब क्या होगा? क्या नाबदान बन चुकी सोन कारखाने वालों के भी काम की रह जाएगी?
ओपीएम आज एशिया के सबसे बड़े कागज कारखानों में से एक है, जिसकी क्षमता 500 टन प्रतिदिन तक है। कई आदेशों के बावजूद इससे निकला गंदा पानी सोन नदी में मिलना नहीं रूक पाया है। हाल ही में प्रधानमंत्री ने गंगा की शुद्धि के लिए व्यापक परियोजना की घोषणा की थी। जब गंगा की इतनी महत्वपूर्ण सहायक नदी की हालत यह है तो गंगा की सफाई की बात कागजी शेर की दहाड़ से ज्यादा ना होगी।