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नवोदय टाइम्स, 23 दिसम्बर 2015
आज लाखों रुपए पंचायतों व नगरों के चुनाव जीतने-जिताने पर खर्च किए जाते हैं, वोटें लेने के लिये लोगों का जमीर खरीदा जाता है, शराब एवं नशे बाँटे जाते हैं। जीतने के पश्चात इनका काम सर्वप्रथम गाँव-शहरों की साफ-सफाई, तत्पश्चात स्वास्थ्य सुविधाएँ शिक्षा, जन कल्याण एवं अन्य तरक्की वाली कार्य होने चाहिए। परन्तु ये लोग विकास कार्यों में से ठेकेदारों से अपना हिस्सा लेने में ही व्यस्त रहते हैं।
हमारे हिंदुस्तान में स्वच्छता अभियान के नारे के अधीन छोटे-बड़े शहरों, कस्बों में जगह-जगह सफाई सम्बन्धी नारे लिखित फ्लैक्सों के साथ-साथ सरकारी एवं गैर-सरकारी इमारतों की दीवारें एवं चौराहे भरे पड़े हैं। जिनको पढ़कर एक बार तो ऐसा लगता है कि आने वाले समय में भारत भी सिंगापुर जैसा देश बनने जा रहा है परन्तु अतीत की कारगुजारी देखकर तो लगता है कि ऐसा शुभ कार्य करने के लिये सम्बन्धित सरकारी विभागों समेत समस्त देश की जनता भी अभी इसके लिये तैयार नहीं है।प्राथमिक तौर पर अभी तक घरों में भी कूड़ा उठाने के लिये सफाई कर्मचारी एवं ढुलाई के साधनों की बेहद कमी है जोकि कुल जरूरत का एक-चौथाई भी नहीं है। शहरों, नगरों एवं कस्बों में घरेलू कूड़ा-कर्कट, कारखानों के कूड़े का निपटान करने का कोई उचित प्रबंध ही नहीं है।
शहरों में तो खाली जगह पर वर्षों से एक ही स्थान पर इस गंदगी को फेंका जा रहा है। जहाँ से वह ऊँचे-ऊँचे कूड़े के पहाड़ों का रूप ले रहा है। जिस पर कौए व चील मंडराते हैं, कुत्ते एवं सूअर गंदगी फैलाते हैं। किस्मत की मारी हमारी लाचार गौमाताएं पॉलीथीन के गंदे लिफाफे में भूखे पेट को भरने के लिये मुँह मारती नजर आती हैं। कई बार तो ऐसे खूंखार कुत्ते राहगीरों को काट खाते हैं। आस-पास के क्षेत्रों में बदबूदार हवा के कारण लोगों का जीवन नारकीय हो गया है। इनमें से बहुत से लोग कई प्रकार की बीमारियाँ डेंगू, डायरिया, मलेरिया, बुखार, कैंसर एवं टीबी इत्यादि से पीड़ित हैं।
होना तो यह चाहिए था कि जिस प्रकार हमारे प्रधानमन्त्री विदेशों में जाकर वहाँ के अमीर पूँजीपतियों एवं उद्योगपतियों तथा बड़ी कम्पनियों को पूँजी निवेश के लिये राजी करते हैं, उसके साथ ही उन्हें विकसित देशों की सफाई व स्वच्छता की विधि एवं कूड़े को डम्प करने की तकनीक लेकर आने को भी कहें, जिससे हर तरह की गंदगी से कोई ऐसी कम्पोस्ट खाद बन सके एवं गंदे पानी की सफाई करके कृषि कार्यों में प्रयुक्त किया जा सके।
गाँव में भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं क्योंकि मुरब्बेबंदी के समय हर गाँव की जमीन का छिछरा (सफेद कपड़े पर बना नक्शा) तैयार करके इस पर रिहायशी भाग को लाल डोरे में दिखाया गया है तथा घरों के कूड़े-कर्कट एवं गोबर इत्यादि फेंकने के लिये मरला या 2 मरले की जमीन स्वामित्व के हिसाब से खाद, गड्ढे (प्लॉट) इत्यादि के रूप में फिरनी के बाहर छोड़ी गई। जनसंख्या बढ़ने के कारण लोगों ने आज उस पर भी अपने घर बना लिये हैं। गोबर-कूड़ा फेंकने को कोई जगह ही नहीं बची है। जहाँ किसी को जगह मिलती है वहीं गंदगी फेंके जा रहा है। हमारी सोच ही कुछ इस तरह की बन गई है कि शायद कोई अन्य लोग हमारी इन ज़रूरतों के बारे में आकर सोचेंगे।
आज लाखों रुपए पंचायतों व नगरों के चुनाव जीतने-जिताने पर खर्च किए जाते हैं, वोटें लेने के लिये लोगों का जमीर खरीदा जाता है, शराब एवं नशे बाँटे जाते हैं। जीतने के पश्चात इनका काम सर्वप्रथम गाँव-शहरों की साफ-सफाई, तत्पश्चात स्वास्थ्य सुविधाएँ शिक्षा, जन कल्याण एवं अन्य तरक्की वाली कार्य होने चाहिए। परन्तु ये लोग विकास कार्यों में से ठेकेदारों से अपना हिस्सा लेने में ही व्यस्त रहते हैं।
स्वच्छता अभियान जैसे पवित्र मिशन को स्कूलों, कॉलेजों तथा यूनिवर्सिटियों में एक अनिवार्य विषय के तौर पर पढ़ाया जाए। इस देश का विद्यार्थी एमफिल, पीएचडी इत्यादि डाक्टरेट डिग्रियों द्वारा खोज करके देश को कोई नई दिशा दिखाने में समर्थ हो। इस प्रकार के कार्यों की देश को बहुत आवश्यकता है। उपरोक्त विचारों सम्बन्धी सरकारी नारेबाजी से ऊपर उठकर कोई ठोस नीतियों एवं निर्धारित प्रोग्रामों को लेकर जनता के सामने आया जाए ताकि वास्तविक तौर पर स्वच्छता का उचित प्रबंध हो सके जिससे हम स्वच्छ भारत के निवासी होने का गर्व अनुभव कर सकें।