तालाब संस्कृति ने देवास को ‘विदर्भ’ बनने से बचाया

Submitted by Shivendra on Wed, 10/08/2014 - 11:35
.मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के देवास को कभी ‘डार्क जोन (जहां भूजल खत्म हो चुका हो)’ घोषित कर दिया गया था और आलम यह था कि वहां पीने का पानी रेलगाड़ियों से लाया जाने लगा था। यह सिलसिला लगभग डेढ़ दशक तक चला लेकिन 2005 के बाद से यहां तालाब की परंपरा को जिंदा करने का अभियान शुरू किया गया।

2005 में यहां आयुक्त के तौर पर उमाकांत उमराव की तैनाती हुई और उन्होंने देखा कि देवास शहर के लोगों की प्यास बुझाने के लिए रेलगाड़ियों से पानी के टैंकर लाए जा रहे हैं। गांवों में भी ट्यूबवेल के जरिए खेतों को सींचने के लिए 350-400 फीट खुदाई की जा रही है और तब भी पर्याप्त पानी नहीं मिल रहा है।

इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि के उमराव ने इसे चुनौती के तौर पर लिया और एक साल और पांच महीने की तैनाती के दौरान ही उन्होंने सैकड़ों तालाब किसानों के साथ मिलकर रच डाले। नतीजा यह हुआ कि यहां के कुल 1,067 गांवों में से आधे से भी कम गांवों में आज 10 हजार से ज्यादा तालाब बनाए जा चुके हैं। अकेले टोंक कलां में ही छोटे-बड़े 125 तालाबों का निर्माण हुआ है।

धतूरिया पंचायत के 100 किसानों ने 110 तालाब बनाए हैं। निपानिया, कमलावती, कलमा, सोनकच्छ, धतूरिया सहित यहां सैकड़ों गांव हैं जहां तालाब बड़ी संख्या में बनाए गए हैं और अब यहां के किसानों को अपना खेत सींचने के लिए मानसून की बाट नहीं जोहनी पड़ती है। टोंककलां गांव के 76 वर्ष के किसान प्रेम सिंह खिंची कहते हैं, ‘यहां पानी के संकट की वजह से पशु-पक्षी नादारद हो गए थे लेकिन अब तालाब बनाए जाने की वजह से पक्षियों की दर्जनों प्रजातियां बड़ी संख्या में दीखने लगी हैं। अक्सर हिरण, जंगली सूअर, लकड़बघ्घा, सांप आदि दीख जाते हैं।’

गांवों में आर्थिक समृद्धि आई


2006 से पहले यहां की सिर्फ 30 फीसदी खेती सिंचिंत थी लेकिन अब 100 फीसदी खेत सिंचिंत है। यही वजह है कि एक फसल की बजाए यहां के किसानों ने तीन-चार फसलें उगानी शुरू कर दी है। खेती से जुड़े दूसरे पेशों में मसलन वेयरहाउस (अनाज गोदाम) और बीज बेचने जैसे धंधों में किसानों ने अपने हाथ अजमाने शुरू किए और अब आलम यह है कि कुछ बड़े किसानों का टर्न ओवर 18-20 करोड़ रुपए सालाना तक पहुंच चुका है जबकि छोटी जोत के किसान भी कुछ लाख रुपए तो साल के बचा ही लेते हैं।

महज सात-आठ साल में किसानों ने 134 बड़े और मंझोले आकार के वेयरहाउस (अनाज गोदाम) का निर्माण कर लिया है। उमांकात उमराव फिलहाल आदिवासी विकास के आयुक्त हैं और वे बताते हैं, ‘मैंने पाया कि यहां 100 बिगहा रकबा वाले किसान कर्ज में डूब चुके हैं और यह देश का दूसरा विदर्भ बनने जा रहा है। मैंने किसानों को सरकारी नारों ‘जल बचाओ, जीवन बचाओ’ से मुक्त करके उन्हें ‘जल बचाओ, लाभ कमाओ’ के सपने दिखाए। ‘खेत का पानी खेत में, खेत की मिट्टी खेत में’ जैसे नारे गढ़े गए। उन्हें यह बात समझ में आई कि कुल रकबे के 10 फीसदी में तालाब बनाया जाए तो खेती से आर्थिक लाभ कम-से-कम पांच गुणा बढ़ जाएगी। आज मैं उनके बीच नहीं हूं लेकिन वे फिर भी तालाब बना रहे हैं। हर साल वहां अलग-अलग गांवों से सैकड़ों तालाब बनने की खबर देवास के किसान मुझे दे जाते हैं।’

देवास के कुल 1,067 गांवों में से आधे से भी कम गांवों में आज 10 हजार से ज्यादा तालाब बनाए जा चुके हैं। अकेले टोंक कलां में ही छोटे-बड़े 125 तालाबों का निर्माण हुआ है। धतूरिया पंचायत के 100 किसानों ने 110 तालाब बनाए हैं।

पानी जा पहुंचा था पाताल


मालवा में तालाब, गढ़री और कुएं की संस्कृति बहुत पुराने समय से रही है लेकिन पिछले 3-4 दशकों में तालाबों में मिट्टी डालकर इन्हें बेचने का और इस पर मकान और कारखाने खड़ा करने का रिवाज चल पड़ा था। नतीजा यह हुआ कि देवास शहर और इस जिले के गांवों के पेट में पानी ही नहीं बचा। 1960-70 के दशक में पश्चिम से उधार ली गई ट्यूबवेल की तकनीक का पूरे देश में जोरदार तरीके से प्रचार-प्रसार हुआ और तीन-चार दशकों में देश के अन्य इलाकों की तरह यहां का भूजल स्तर पाताल पहुंच गया था।

ट्यूबवेल और नलकूप खोदने के लिए सरकार ने बड़े पैमाने पर कर्ज और सुविधाएं उपलब्ध कराई। देवास भी इससे अछूता नहीं रहा है और मालवा की प्राचीन तालाब संस्कृति को छोड़ सभी ट्यूबवेल से खेतों को सींचने लगे और यहां कुछ गांवों में तो 500-1000 नलकूप खोद दिए हैं। इंडिया वाटर पोर्टल (हिंदी) के संयोजक सिराज केसर बताते हैं, ‘देवास जिले के इस्माइल खेड़ी गांव में नलकूपों की संख्या लगभग 1000 के करीब है। 60-70 फुट पर मिलने वाला पानी 300-400 फुट के करीब पहुंच गया। पानी के लिए बहुत गहरे तक उतरने के बाद पानी में भारी तत्व बाहर आने लगा जिसके चलते खेतों की मिट्टी अनुपयोगी साबित होने लगी थी।’


Rewa Sagar by Waterkeeper IndiaRewa Sagar by Waterkeeper India2000 तक आते-आते गहरे-से-गहरे खोदने की मजबूरी ने नलकूप खुदाई को और मंहगा कर दिया। किसान कर्जे के दलदल में फंसते चले गए। कभी चड़स और रहट से सिंचाई करने वाला देवास का किसान नलकूपों के बोझ से लदता गया। यहां से पलायन भी होने लगा था लेकिन तालाब संस्कृति के जिंदा होने के बाद अब यहां के लड़के इंदौर और उज्जैन से एमबीए, इंजीनियरिंग और फार्मा की डिग्री लेकर खेतों की ओर लौट रहे हैं और खेती उनके लिए फायदे का सौदा साबित हो रही है।

तालाब संस्कृति के जिंदा होने से अब यहां के किसान गेहूं और सोयाबीन दो प्रमुख फसलों के अलावा गन्ना, प्याज, टमाटर, मिर्च, आंवला, भिंडी, चीकू आदि भरपूर मात्रा में उपजाने लगे हैं और किसी भी किसान से उनकी समृद्धि का राज जानने की कोशिश कीजिए तो वे अपने खेतों के बीच में बने तालाब की ओर इशारा करते हैं और साथ ही बहुत श्रद्धा के साथ उमाकांत उमराव का नाम जरूर लेते हैं।