आज पृथ्वी गरम हो रही है। यह एक दो दिन नहीं, वर्षों से अति भौतिकता की ओर आंख बंद कर भागने का नतीजा है कि हम एक असहनीय गर्म प्रदेश के वासी होते जा रहे हैं। प्रकृति के चक्र में भारी परिवर्तन देखने का मिल रहा है। अचानक भारी बारिश होना, आंधी-तूफान सब मिलकर जीवन स्थितियों को मुश्किल में डाल रहे हैं। मौसम में यह भारी बदलाव अचानक नहीं हो रहा है। इसके पीछे का सच यही है कि हम सब प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। जब तक प्रकृति के पास सहज होकर समर्पण नहीं हो जाएंगे, तब तक इस प्रक्रिया में किसी भी तरह का बदलाव होना संभव नहीं दिखता।
कोई भी मौसम क्यों न हो, आज वह अपना रौद्र रूप में ही दिख रहा है। इसका कारण हाल के वर्षों में जीवन शैली में आया बदलाव है। अभी गर्मी का मौसम है, स्वाभाविक है गर्मी पड़नी चाहिए। पर जब यह गर्मी असहनीय हो जाती है, तब सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि आखिर तवे की तरह जलती पृथ्वी का कारण क्या है? दो कदम चलते ही शरीर का सारा पानी निकल जाता है। चारो तरफ हाय! गर्मी करते लोग मिल जाएंगे। पंखे-कूलर में बैठे हैं, फिर भी चैन नहीं है। हो क्या गया है वातावरण को? कोई ग्लोबल वार्मिं का नाम ले रहा है, तो कोई कुछ और। दसअसल हमने प्रकृति के साथ जीना छोड़ दिया है। यह सब इसी का परिणाम है। इस गर्मी को बढ़ाने में कोई और नहीं, हम सबकी जीवन शैली और अति सुविधाजीवी होने की बात छिपी है। चारों तरफ बस कंकरीट का जंगल उगा रहे हैं। यांत्रिक होती सभ्यता और अबााध सुख भोग लेने की इच्छा ही पृथ्वी को गर्म कर रही है, सब बस भाग रहे हैं।
इस समय हर कोई आते-जाते सबसे पहले अपने साथ पानी ही लेकर चलता है। यह इस बात का एहसास दिलाने के लिए काफी है कि हमारे चारों ओर जल की कमी होती जा रही है। जल का धीरे-धीरे उड़ जाना और छाया की कमी गर्मी के एहसास को बहुत ज्यादा बढ़ा देती है। कितना सुंदर होता है, जब हम किसी किनारे से अपार जलराशि को देखते हैं। हससे न केवल आंखों को सुकून मिलता है, बल्कि ठंडक और राहत भी मिलती है।
गाड़ियों का रेला लगा हुआ है, सड़क पर दौड़ती गाड़ियों हमारे परिवेश को गर्म करने में मददगार है। इसी तरह घर में ऐसी ही एक व्यवस्था से एक सीमित क्षेत्र तो ठंडा हो जाएगा, पर हमारा पूरा परिवेश तो गर्म ही होता जा रहा है। अति भौतिकता और अति यांत्रिकता को छोड़कर हमें प्रकृति की ओर जाना ही होगा। तभी जीवन की ओर भी चलना संभव होगा। अन्यथा तो यह धरती धू-धू कर तप रही है। इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए हमें निजी तौर पर अपने आसपास एक हरियाली का परिसर बनाना ही होगा। जब तक हरा-भरा संसार नहीं होगा, तब तक सुकून नहीं होगा। हमारे पूर्वजों ने पेड़ लगाए, बाग-बगीचे लगाए, तालाब, कुएं, बावड़ी बनवाए और हम बहुमंजिली इमारतें बनवाने में व्यस्त हैं। पगडंडियों को छोड़कर फोर-लेनध्सिक्स-लेन पर भाग रहे हैं। यह सब सुकून भरा तभी होगा, जब सड़क पर छायादार पेड़ हों, कुछ दूरी पर जल संचय के तालाब हों। आदमी तो फिर भी अपने लिए छाया और राहत की जगह बना लेता है, सुविधाओं के संसार में चला जाता है। मगर पशु-पक्षी एक अदद छाया और पानी की आस में भटकते रहते हैं। भले हैं वे लोग, जो सार्वजनिक स्थानों पर पीने के पानी की व्यवस्था कर देते हैं। हर आते-जाते आदमी को कम से कम इन गर्म हवाओं के बीच राहत का पानी मिल जाता है।
इस समय हर कोई आते-जाते सबसे पहले अपने साथ पानी ही लेकर चलता है। यह इस बात का एहसास दिलाने के लिए काफी है कि हमारे चारों ओर जल की कमी होती जा रही है। जल का धीरे-धीरे उड़ जाना और छाया की कमी गर्मी के एहसास को बहुत ज्यादा बढ़ा देती है। कितना सुंदर होता है, जब हम किसी किनारे से अपार जलराशि को देखते हैं। हससे न केवल आंखों को सुकून मिलता है, बल्कि ठंडक और राहत भी मिलती है। पेड़ की सघन छाया में गर्मी का एहसास नहीं होता, वहीं जलराशि की ओर से उठती हवाएं तरावट लेकर आती हैं।
इसी जलराशि, बाग-बगीचे के बीच आम लोगों से लेकर जीव-जंतु सभी का दिन निकल जाता है। कोई भी हैरान-परेशान नहीं दिखता, पर आज इस तरह के दृश्य कम होते जा रहे हैं। इसलिए घर से कदम निकालते ही गर्मी का एहसास ही चिंता में डाल देता है। लगातार ये खबरें आ रही हैं कि सारे बांध-तालाब के पानी उड़ते जा रहे हैं, कम होते जा रहे हैं। छोटे तालाब-पोखर तो कब के सूख गए, कुएं तालाब सब तो सूख रहे हैं। लगातार धरती का पानी कम होता जा रहा है। आंखों को सुकून देने वाली विशाल जलराशि न जाने कहां खो गई है। इस तरह सघन जंगल की छाया भी दूर की बात हो गई।
दिन-प्रतिदिन पुराने पेड़ गिरते जा रहे हैं और नए उनकी जगह नहीं ले पा रहे हैं। जंगल, बाग-बगीचे, पेड़ और हरियाली धीरे-धीरे कम होती जा रही है। जो बची हुई भूमि है वह खाली है, कोई छाया नहीं। यह तो बस तप रही है, आज स्थिति यह हो गई है कि सुबह से ही तेज चमकता सूर्य और ही तेज होता जा रहा है। सूर्य की गर्मी सबके सिर चढ़कर बोल रही है। आज पृथ्वी के गर्म होने का हाल यह है कि नंगे पांव पौधों को पानी पिलाने चला गया। फर्श पर तलवे इस तरह जल गए जैसे भट्ठी भर लाल गर्म लोहा रखा हो और गलती से पांव पड़ गया हो। घंटों तक पांव से जलन दूर नहीं हुई। आज यह सोचने की जरूरत है कि आखिर इस तपती धरती पर प्राणी कैसे रहेंगे? कैसे जीवन चलेगा। अब वह समय आ गया है कि सारे लोग मिलकर पेड़-पौधे लगाने के साथ जीवन जल की रक्षा में आगे आएं। मनुष्यता इसी दिशा में एक लोक अभियान के रूप में कदम बढ़ाएगी, इतना तो विश्वास किया जाना चाहिए। जीवन की खुशहाली और सबके लिए राहत तो तभी संभव है, जब इस तपती भूमि पर बारिश हो। तब तक हम सिर्फ बारिश होने तक इंतजार ही कर सकते हैं।