तुरत-फुरत के नहीं, दीर्घकालिक नजरिए से हों प्रयास

Submitted by RuralWater on Sat, 01/23/2016 - 13:24
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राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 23 जनवरी 2016

ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज (जीबीडी) ने वायु प्रदूषण को विश्व में दस सबसे बड़े प्राणघाती कारकों में शुमार किया है। एशिया की बात करें तो यह इस महाद्वीप में छठवाँ सबसे बड़ा प्राणघातक कारक है। भारत में वायु प्रदूषण मृत्यु का पाँचवाँ प्रमुख कारण है, जो लाखों लोगों को श्वास और हृदय सम्बन्धी बीमारियों की गिरफ़्त में लेकर मार डालता है। बीते तीन दशकों (1980-2010) के दौरान गेहूँ और चावल की उपज पर भी अल्पजीवी वायु प्रदूषकों जैसे कि ट्रोपोस्फेरिक ओजोन तथा कार्बन ब्लैक ने कहर ढाया है।वायु प्रदूषण नियंत्रण खतरे के रूप में उभर आया है। बिगड़ते पर्यावरण से सार्वजनिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचने के साथ ही खाद्य सुरक्षा से लेकर जैविक-सुरक्षा तक खतरे की घंटी बजने लगी है। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज (जीबीडी) ने वायु प्रदूषण को विश्व में दस सबसे बड़े प्राणघाती कारकों में शुमार किया है।

एशिया की बात करें तो यह इस महाद्वीप में छठवाँ सबसे बड़ा प्राणघातक कारक है। भारत में वायु प्रदूषण मृत्यु का पाँचवाँ प्रमुख कारण है, जो लाखों लोगों को श्वास और हृदय सम्बन्धी बीमारियों की गिरफ्त में लेकर मार डालता है।

बीते तीन दशकों (1980-2010) के दौरान गेहूँ-चावल की उपज पर भी अल्पजीवी वायु प्रदूषकों जैसे कि ट्रोपोस्फेरिक ओजोन तथा कार्बन ब्लैक ने कहर ढाया है।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली को ‘गैस चेम्बर’ घोषित किया है क्योंकि दिल्ली में वायु प्रदूषण सुरक्षित साँस लेने की नियत सीमा को पार कर गया है।

आज दिल्ली के हर रहवासी को औसतन 153 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर तक खतरनाक पार्टिकुलेट मैटर झेलना पड़ता है, जो स्वस्थ श्वसन के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय सीमा से 15 गुना ज्यादा है। पर्यावरणीय कारणों से मृत्यु दर और रुग्णता के साथ ही फेफड़ों सम्बन्धी रोगों के कारण लोगों में रोग-प्रतिरोधी क्षमता का क्षरण हो रहा है।

गुर्दे सम्बन्धी विकार उभर रहे हैं। मस्तिष्क सम्बन्धी शिकायतों के कारण तमाम जटिलताएँ देखने को मिल रही हैं। अति-सक्रियता की शिकायतें भी मिल रही हैं।

इन तमाम बातों के चलते दिल्ली सरकार पर तुरन्त कारगर उपाय करने का दबाव बढ़ गया है। न्यायिक दबाव के चलते दिल्ली सरकार को कार्ययोजना के बजाय प्रतिक्रियात्मक उपाय करने को विवश होना पड़ा।

सरकार ने वाहनों से होने वाले प्रदूषण के मद्देनज़र वाहनों के परिचालन में प्रायोगिक तौर पर कटौती करने का फैसला किया। वाहनों की पंजीकरण संख्या के आधार पर उन्हें सम-विषम-दो हिस्सों में बाँटकर उनके परिचालन को बारी-बारी प्रतिबन्धित करने की आज़माइश लागू की।

पेरिस, मैक्सिको सिटी, बोगोटा, बीजिंग वगैरह में इसी प्रकार की पहल की जा चुकी हैं। वहाँ हुए प्रयोगों के कोई निश्चित प्रमाण या नतीजे नहीं हैं, जिनके आधार पर कहा जा सके कि वायु प्रदूषण के स्तर में कोई उल्लेखनीय गिरावट आई हो।

सम-विषम फार्मूला नहीं कारगर


आँकड़ों को देखें तो सम-विषम फार्मूला हो सकता है कि लक्षित उद्देश्यों की पूर्ति न करे क्योंकि समूचा ध्यान ईंधन जलने से होने वाले उत्सर्जन पर है, गैर-ईंधन उत्सर्जन पर इसमें कोई तवज्जो नहीं है। दिल्ली में हालिया योजना के तहत मात्र 20 फीसद वाहनों को ही इसकी जद में लाया जा सका।

विशेष श्रेणी के वाहनों तथा दोपहिया वाहनों को इससे छूट दी गई। इस कारण से योजना के फलित होने की सम्भावना खासी क्षीण हो गई। इसके अलावा, भारी प्रदूषण का कारण बनने वाले ट्रकों (भले ही शहर में वे केवल रात्रि में ही चलाए जा सकते हों), मोटरबाइक, सड़क की धूल, अपशिष्ट पदार्थों को जलाने, कंक्रीट से निर्माण कार्य और औद्योगिक स्रोतों पर कोई रोक नहीं होने के कारण उद्देश्य की पूर्ति होने को लेकर अन्देशा रहेगा ही।

इसके अलावा, ग्रामीण वाहन भी बड़ी संख्या में शहर के सड़कों पर उतरते हैं। नॉन-सीएनजी तिपहिया भी सड़कों पर रहते हैं, जिन्हें जब-तब केरोसिन से भी परिचालित कर लिया जाता है। इन तमाम कारणों से वायु की गुणवत्ता बेहद प्रभावित हो रही है।

चूँकि सम-विषम फार्मूला पूरी तरह से सामान्य सोच और राजनीतिक लाभ-हानि पर आधारित था, इसलिये इसका कोई रणनीतिक और वैज्ञानिक आधार नहीं था।

दिल्ली सरकार को इस प्रयोग को आरम्भ करने से पूर्व आईआईटी, कानपुर द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट पर विचार कर लेना चाहिए था, जिसमें धीरे-धीरे स्वच्छ इलेक्ट्रिक और हाइब्रिड तकनीक से बने वाहनों का उपयोग बढ़ाने के बाबत अध्ययन किया गया है।

रिपोर्ट के मुताबिक, शहर में फौरी तौर पर कम-से-कम 2 फीसद दोपहिया, 10 फीसद तिपहिया और 2 फीसद चार पहिया वाहन होने ही चाहिए।

समझा जाना महत्त्वपूर्ण है कि शहर में वायु प्रदूषण का कारण बनने वाले अन्य स्रोतों के साथ वाहनों से होने वाले प्रदूषण की समस्या पर गौर किया जाये तो हमें समाधान निकालने में काफी हद तक मदद मिल सकती है।

यह रणनीति सर्वाधिक प्रभावी और दीर्घकालिक तौर पर सम्भाव्यता से लबरेज कही जा सकती है। शुक्र है कि उत्सर्जन की समस्या से वाहनों के इंजनों में तकनीकी सुधार करके सुलटा जा सकता है।

ऐसे वाहन विकसित किये जा सकते हैं, जो स्वच्छ ईंधन से चलायमान हों। इसके साथ ही चुस्त और दक्ष परिवहन प्रणाली भी विकसित की जा सकती है।

इसके लिये सरकार के लिये आवश्यक है कि वाहनों के लिये यूरो छह स्तर के उत्सर्जन मानकों को लागू कराए। उत्सर्जन कम करने में सक्षम तकनीक के सुधार में वाहन निर्माताओं को दरपेश बाधाओं को दूर किया जाये।

लेखक, स्कूल ऑफ बायोटेक्नोलॉजी, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली में शोधारत हैं।,

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