उत्तर प्रदेश में जलाक्रांति एवं ऊसर

Submitted by Hindi on Sat, 01/07/2012 - 10:39
राष्ट्र एवं राज्य की बढ़ती आबादी के लिये खाद्यान्न पूर्ति हेतु कृषि विकास एक अपरिहार्य एवं चुनौती पूर्ण कार्य में सिंचाई की भूमिका सर्वाधिक है। ऐसा अनुभव किया जा रहा है कि सिंचाई जल का संतुलित एवं समन्वित उपयोग न होने पर कुछ क्षेत्रों में जलाक्रांति एवं ऊसर की समस्या उत्पन्न हो जाती है। परिणामतः पर्यावरण संतुलन बिगड़ता है। उपजाऊ कृषि भूमि अनुपयोगी होती जा रही है। ऊसर/परती भूमि की बढ़ोत्तरी के साथ-साथ भूजल प्रदूषण बढ़ रहा है तथा खाद्यान्न उत्पादन एवं उत्पादकता गंभीर रुप से प्रभावित है। प्रदेश में जलाक्रांति समस्या का विस्तृत एवं वास्तविक आंकलन अभी तक नहीं किया गया है। भूगर्भ जल विभाग, उ.प्र. द्वारा मई 1992 में लगभग 33 लाख हेक्टेयर भोगौलिक क्षेत्र क्रांतिक तथा 66 लाख हेक्टेयर अर्ध क्रांतिक उथले भूजल स्तर की श्रेणी में है। सांख्यिकीय पुस्तिका उ.प्र. के अनुसार ऊसर, अकृष्य भूमि, कृष्य बेकार भूमि वर्तमान परती एवं अन्य परती भूमि वर्ष 1978-79 में 40.32 लाख हेक्टेयर थी जो बढ़कर वर्ष 1992-93 में 40.37 लाख हेक्टेयर हो गई है। जबकि इसी अवधि में लगभग 4.55 लाख हेक्टेयर भूमि का सुधार किया जा चुका है। इसके विपरीत शुद्ध बोया गया क्षेत्र 174.82 लाख हेक्टेयर से घटकर 172.59 लाख हेक्टेयर हो गया है। जलाक्रांति एवं ऊसर क्षेत्रों में कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता में गिरावट के साथ-साथ कंकड़ बनने एवं भूजल प्रदूषण बढ़ने की समस्याएं भी बढ़ रही है। जलाक्रांति एवं ऊसर की स्थाई सुधार के साथ-साथ रोकथाम के लिये भूमि सुधार एवं सिंचाई की विधियों में नीतिगत बदलाव आवश्यक एवं अपरिहार्य है।

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