आने वाले तीस वर्षों में दुर्लभ हो जाएगा जल

Submitted by editorial on Sun, 07/29/2018 - 18:13

सुख-सुविधा की चाह में लोग विस्थापित हो रहे हैं या विकास का नया मॉडल उन्हें विस्थापन के लिये मजबूर कर रहा है। विकास के इस मॉडल का केन्द्रबिन्दु जल है। जल भण्डार पर इसकी टेढ़ी नजर है। बता दें कि मैदानों में तालाब और पहाड़ के जंगलों के बीच में चाल-खाल समाप्त हो गए हैं। कुछ और भी कारण हो सकते हैं मगर पहाड़ हो या मैदान पानी की तलाश में लोगों ने जगह बदला है। भविष्य में भी बदलेंगे तो यह कोई नई बात नहीं होगी।

उत्तराखण्ड में कई जगह ऐसी हैं जहाँ आज भी खंडहरों में सदियों पूर्व के कृषि कार्यों के अवशेष दिखाई देते हैं। लोक मान्यताओं के अनुसार पहाड़ पर लोग पानी की सुविधा के अनुकूल विस्थापित होकर बसते थे। इस स्वविस्थापन का विवरण यहाँ प्रचलित कई लोक गीतों और कथाओं में भी विद्यमान है। इससे मालूम पड़ता है कि पहाड़ों में पानी की समस्या काफी पुरानी है। उन दिनों विस्थापन के तरीके अलग थे अब का विस्थापन बहुत ही अलग है।

वर्तमान में सुख-सुविधा की चाह में लोग विस्थापित हो रहे हैं या विकास का नया मॉडल उन्हें विस्थापन के लिये मजबूर कर रहा है। विकास के इस मॉडल का केन्द्रबिन्दु जल है। जल भण्डार पर इसकी टेढ़ी नजर है। बता दें कि मैदानों में तालाब और पहाड़ के जंगलों के बीच में चाल-खाल समाप्त हो गए हैं। कुछ और भी कारण हो सकते हैं मगर पहाड़ हो या मैदान पानी की तलाश में लोगों ने जगह बदला है। भविष्य में भी बदलेंगे तो यह कोई नई बात नहीं होगी। नया यही होगा कि साल 2050 तक पानी का घोर संकट लोगों के सामने खड़ा होगा।

क्या कहती हैं कहानियाँ, दस्तावेज और इतिहास?

वरिष्ठ लेखक सह गाँधी विचारक अनुपम मिश्र की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में प्रसंग है कि देश के मध्य भाग में स्थित चार बड़े-बड़े तालाब हैं जो क्रमशः बूढ़ा सागर, सरमन सागर, कौंराई सागर व कुंडम सागर के नाम से जाने जाते हैं। इन्हीं के नामों से इनके किनारे पर गाँव भी बसे हैं। इनके निर्माण पर कोई सरकारी धन नहीं खर्च हुआ साधारण हैसियत वाले चार भाईयों ने इन तालाबों का निर्माण करवाया है।

इस कहानी को पढ़ने से पता चलता है कि इन सागरनुमा तालाबों के पास आज बड़ी-बड़ी बसाहटें बस चुकी हैं। इन तालाबों के नजदीक विकसित इन बड़ी बसाहटों की वजह यहाँ मिलने वाला पानी है। वे आगे उदाहरण देकर लिखते हैं कि ‘‘भोपा’’ होते तो वे जरूर बताते कि तालाबों के लिये बुरा समय आ गया है। जो सरस परम्पराएँ, मान्यताएँ तालाब बनाते हैं वहीं सूखने लग गई हैं। उनकी किताब में वर्णन है कि तब के गुणी समाज के हाथ से पानी का अधिकार किस-किस तरह छीना गया, इसकी एक झलक तब के मैसूर राज में देखने को मिलती है।

सन 1800 में मैसूर राज्य में 39,000 तालाब थे। इसके बाद जैसे अंग्रेज आये तो उन्होंने सन 1863 के दौरान इन तालाबों को क्रमशः पीडब्ल्यूडी, सिंचाई विभाग के हवाले कर दिया। सन 1900 आते-आते लोगों के पास इन परिस्थितियों पर लोक गीतों के अलावा कुछ बचा ही नहीं था। वहाँ की महिलाएँ किसी भी समारोह में गाती थीं कि ‘फिरंगी नल मत लगवाय दियौ’ आदि। कुलमिलाकर ये स्थितियाँ बता रही हैं कि जब-जब समाज और लोक व्यवस्थाओं से स्वार्थ को जोड़ा गया तब-तब वे व्यवस्थाएँ समाप्त हुई हैं और समाज ऐसे घोर संकट के मुहाने पर आ खड़ा हुआ है। यही हालात पानी को लेकर मौजूदा समय में देश भर में बनती जा रही है।

अस्सी के दशक में राजधानी देहरादून से महज 25 किमी के फासले पर बसा गाँव छरबा पानी के संकट से अलग-थलग हो गया था। गाँव में रह रहे कुछेक लोगों को सुझा कि वे क्यों नही जल संरक्षण के लिये कार्य करें। लगातार ग्रामीणों ने 10 वर्षों तक गाँव की खाली पड़ी और नदी तटों की जमीन पर सघन वृक्षारोपण किया और साल 2010 तक आते-आते गाँव छोड़ चुके लोग लगभग वापस आ गए। वर्तमान में इस गाँव की जनसंख्या बहुतायत में है।

गाँव में संचालित 17 आँगनवाड़ी केन्द्र इस बात के गवाह हैं कि गाँव आबाद है। पूर्व प्रधान और गाँव के सामाजिक कार्यकर्ता रोमीराम जायसवाल बताते है कि ग्रामीणों ने गाँव सिर्फ पानी की किल्लत की वजह से छोड़ा था। गढ़वाल के पंवार वंश के काल में रानीहाट इंडियागढ़ से जो लोग विस्थापित हुए वे अब के कफनौल गाँव में बस गए हैं।

इतिहासविदों के अनुसार इंडियागढ़ बावन गढ़ों में से एक था। उन दिनों रानियों के लिये वहाँ मासिक बाजार लगता था इसीलिये यह एक प्रसिद्ध जगह थी। पर प्राकृतिक उथल-पुथल की वजह से रानीहाट में पानी का घोर संकट हो गया इसीलिये लोग वहाँ से कफनौल नामक स्थान पर बस गए। मौजूदा समय में कफनौल गाँव की जनसंख्या लगभग 3000 के पास पहुँच गई है।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उत्तरकाशी मुख्यालय तक कई जगहों पर नई सड़कों का विकास हुआ। इन्हीं दिनों मसूरी से चम्बा तक चूरेड़धार होते हुए उत्तरकाशी के लिये सड़क का निर्माण हुआ। लोग पास के अपने पैतृक गाँव से सड़क व पानी की सुविधा के लिये चूरेड़धार नामक स्थान पर बस गए। जो बाद में चूरेड़धार गाँव बन गया। पर कुदरत का क्या कहना। यहाँ लोग कुनबों में आकर तो बस गए, पर उनके ऊपर पानी का बड़ा संकट गहराने लगा कि वे पेयजल के लिये सरकार और प्रकृति से ताउम्र गुहार ही लगाते रहे।

अधिकांश परिवार घर छोड़कर कहीं और बसेरा करने लगे। वे तो मौजूदा समय में हिमोत्थान सोसायटी का शुक्र मानते हैं कि उनके द्वारा गाँव में सोलर एनर्जी के इस्तेमाल से गाँव में पानी पहुँचाया गया। अब स्थिति ऐसी बन आई है कि चूरेड़धार में लोग होम स्टे जैसी पर्यटन की महत्त्वपूर्ण योजना आरम्भ कर चुके हैं। इसी तरह चम्बा के पास के चोपड़ियाली गाँव के हालात भी रहे है। उत्तरकाशी के संगोली गाँव के लोग 70 के दशक में कलोगी नामक स्थान पर जाकर इसलिये बस गए कि संगोली गाँव में पानी के स्रोत सूख गए थे।

सुरक्षित कदम की ओर

सदानीरा नदियों को बाँध दो, नदियों को जोड़ दो, जंगल में बने तालाब और बनने वाले तालाबों के लिये सम्बन्धित विभाग से इजाजत लो, जंगल काट दो, सिर्फ वृक्षारोपण करो, सुरक्षा रहने दो, वनाग्नी पर कोई नियंत्रण न हो, वगैरह-वगैरह। यह सब आज के विकास के आयाम हैं। सुरक्षा और संरक्षण की कवायद इतनी धीमी है जो सत्ताधीशों व मठाधीशों के सामने लड़खड़ा ही जाती हैं।

अब क्या करें साहब पानी का संकट और बदलते मौसम के मिजाज को कैसे सन्तुलित किया जाये। बताया जाता है कि इसके सुधार के लिये विभिन्न वैज्ञानिक संस्थाओं के पास योजना है जिसे सत्तासीन और मठासीन क्रियान्वित नहीं करना चाहते है। वे तो इन शोध दस्तावेजों को सिर्फ सेमिनारों में आधा-सुधा सुनना ही पसन्द करते हैं। वाडिया भूविज्ञान संस्थान, गोविन्दबल्लभ पन्त हिमालय पर्यावरण संस्थान और देश के कई विश्वविद्यालयों, वैज्ञानिक संस्थानों के पास ऐसा शोध प्रबन्धन है जो पानी के संकट से निजात दिला सकता है।

जनसंख्या वृद्धि व प्रकृति का क्षरण

विशेषज्ञों का मानना है कि वर्ष 2025 तक देश में पानी की आवश्यकता लगभग 1.093 घन किलोलीटर हो जाएगी और वर्ष 2050 आते-आते 1.447 घन किलोलीटर तक बढ़ जाएगी। इसका बड़ा कारण बढ़ती जनसंख्या के साथ औद्योगिक विकास के लिये पानी की आवश्यकता है। अर्थात, कह सकते हैं कि 2050 से पहले ही देश में जल संकट विकराल रूप ले सकता है। उस समय उपलब्धता के मुकाबले पानी की माँग बहुत ज्यादा हो जाएगी और माँग व आपूर्ति के इस भीषण अन्तर को पाटना आसान नहीं होगा। चुनौती सिर्फ पानी की उपलब्धता की ही नहीं है।

आज देश के आवासीय, औद्योगिक और कृषि क्षेत्र में भूजल के बढ़ते दोहन से पानी का संकट और गहरा गया है। फलस्वरूप इसके अधिकांश क्षेत्रों में पानी की गुणवत्ता और उत्पादन में भी कमी आ रही है। साफ पानी में रहने वाले जीवों की प्रजातियों की विविधता और पारिस्थितिकी को तेजी से नुकसान पहुँच रहा है। देश के अधिकांश हिस्सों में पानी में फ्लोराइड, आर्सेनिक, आयरन व अन्य भारी धातुओं के मिलने के कारण पानी पीने योग्य नहीं रह गया है। कई राज्यों में पानी के खारेपन की समस्या बढ़ती ही जा रही है।

सरकारी आँकड़ों पर गौर करें तो देश के दो तिहाई भूजल भण्डार खाली हो चुके हैं और जो बचे हैं, वे प्रदूषित होते जा रहे हैं। नदी जल भी पीने लायक नहीं बचा है। ऐसे में बढ़ते जल संकट से निपटने के लिये बेहतर सामुदायिक जल प्रबन्धन व्यवस्था अपनाने, जल के निजीकरण की जगह सामुदायीकरण करने और अतिक्रमण से बचाने की जरूरत है।

साथ ही जल कानून, जल संरक्षण, पानी के कुशल उपयोग, पानी की रिसाईकिलिंग और संसाधनों पर विशेष ध्यान दिये जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। वैसे सरकार ने पिछले साल को जल संरक्षण वर्ष घोषित किया था और देश में जागरुकता के जरिए बूँद-बूँद पानी बचाने और उसका सदुपयोग किये जाने का अभियान चलाने का निर्णय भी लिया था। लेकिन साल खत्म हो चुका है दूसरे साल की आधी किस्त भी समाप्ति की ओर है फिर भी यह अभियान कागजों पर सिमटा हुआ नजर आ रहा है। ताज्जुब यह है कि जल संसाधन मंत्रालय व उसकी एजेंसियों ने पिछले साल की शुरूआत में एक दर्जन से ज्यादा जो कार्यक्रम तैयार किये थे उनमें आधे से ज्यादा शुरू भी नहीं हो सके हैं।

यहाँ तक कि अभियान का लोगो, डाक टिकट, टीवी चैनलों, रेडियो व अखबारों के जरिए प्रचार-प्रसार, पूरे देश में जागरुकता अभियान के लिये ट्रेन चलाने जैसे कई कार्यक्रमों पर चर्चा तो हुई, लेकिन हुआ कुछ नहीं। यह अभियान मात्र कुछ सेमिनारों, एक आध पदयात्रा, वाद-विवाद प्रतियोगिता, निबंध लेखन और नाटक व प्रदर्शनी तक ही सीमित होकर रह गया। मगर अभियान जमीनी रूप नहीं ले पाया। दरअसल, हम लोगों को खुद ही अपने पारम्परिक जलस्रोतों को बचाने के लिये आगे आना होगा, क्योंकि अब हमारे सामने ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं।


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population growth, industrial growth, absence of effective water management, excessive use of groundwater.