यमुना घाटी : जल संरक्षण की संस्कृति का पैमाना

Submitted by RuralWater on Mon, 07/27/2015 - 16:39

. उत्तराखण्ड! हिमालय में जल की परम्परा अपने आप में अनूठी है। आप जहाँ कहीं भी जल संस्कृति के प्रति लोगों का जुड़ाव देखेंगे, वहाँ पानी को सिर्फ देवतुल्य ही मानते हैं। अर्थात पानी को सहेजने व संचयन तथा दोहन के लिये यहाँ आध्यात्म को एक मूल आधार माना गया है। उत्तराखण्ड की जल संस्कृति को लोग वेद पुराणों में लिखित कथा के अनुरूप मानते हैं। यह सच है कि अधिकांश स्थानों के नाम इन पुराणों में मिलते भी हैं।

यमुना घाटी में जल संस्कृति धारों व कुण्ड के नाम से जानते हैं। हालांकि यह अब अवशेष भर रह गए हैं तथा अधिकतर स्थानों पर लोगों ने सीमेंट पोतकर सौन्दर्यीकरण के नाम से इन्हें नए तरह से बनाने की कोशिश की है। जहाँ-जहाँ लोगों ने सीमेंट पोत दिया वहाँ पर पानी की मात्रा कम हुई है जहाँ दो धारे थे वहाँ का एक धारा सूख ही गया है।

सीमेंट पोतने के पश्चात इन धारों तथा कुण्डों की आध्यात्म से जुड़ी परम्परा भी समाप्त हुई है। यदि कुण्ड के बाहर सीमेंट लगा दिया तो लोग सीमेंट तक जूतों सहित चले जाते हैं। यही नहीं पानी के पास बनी पत्थर की आकृतियाँ भी मटियामेट की गई हैं, जिससे आध्यात्म की भावना लोगों के दिलों में बनी रहती थी। अब यह आकृतियाँ दिखाई नहीं देती और लोग जल संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। यहाँ तक कि कुण्ड के अन्दर भी पत्थरों पर सीमेंट लगा दिया गया और कुण्ड में एकत्रित पानी तो सूख ही गया है।सम्पूर्ण यमुना घाटी में मात्र एक स्थान पर केदार कुण्ड है। यमुना घाटी में केदार कुण्ड का होना बहुत आश्चर्य भी है परन्तु इससे जुड़ी कहानी दिल को सन्तुष्ट कर देती है। यमुना घाटी में जहाँ भी छोटी-छोटी नदियों का संगम बना है वहाँ लोग चुटकी में कह देते हैं कि यह त्रेवेणी है। भले यह इलाहाबाद वाला संगम न हो परन्तु तीन धाराओं का संगम तो है ही। यमुना घाटी में गंगा से जुड़ी कई कहानियाँ है यदि दो धाराएँ गंगा यमुना से प्रचलित हैं तो तीसरी बहने वाली धारा को लोग सरस्वती कह देते हैं। गंगनाणी कुण्ड से निकलने वाली धारा यमुना से संगम बनाती है तथा तीसरी धारा भी यही पर संगम बनाती है जिसे लोग सरस्वती कहते हैं। यद्यपि यह धारा सरताल से निकलकर बढियार गाँव होते हुए गंगनाणी के पास यमुना में संगम बनाती है। देहरादून से लगभग 100 किमी0 की दूरी पर स्थिति गंगनाणी धारा यह कहानी बयाँ करती है कि यह पानी गंगा का है लोग इस पानी को गंगा जल के रूप में प्रयोग करते हैं।

यहाँ पर भी लोगों ने बताया कि सन् 1992 में उत्तरकाशी में महाशिव पुराण का आयोजन हुआ। तत्काल उत्तरकाशी में हुए हवन की सामग्री गंगा में विसर्जित हुई। यह सामग्री यमुना घाटी में गंगनाणी धारा नामक स्थान पर उक्त पानी के साथ बहकर आई। जिसे लोग देखकर आश्चर्य में पड़ गए परन्तु लोगों को मालूम था कि यह हवन में लाई जाने वाली सामग्री है और उतरकाशी में महाशिव पुराण चल रहा है। यह धारा यहाँ कैसे निकली। स्थानीय लोगों में कहानी प्रचलित है पाण्डव जब लाखामण्डल में अज्ञातवास में थे तो उस दौरान उन्हें गंगाजल की आवश्यकता दुर्गा पूजा के लिये पड़ी वे यमुना घाटी से गंगा घाटी की तरफ नहीं जा सकते थे अलबत्ता अर्जुन ने अपने धनुष से पहाड़ पर तीर मारा जहाँ से जल धारा फूट पड़ी और यह गंगा धारा हो गई। उक्त स्थान पर यमुना नदी में बड़े-बड़े पत्थर पड़े हैं। उन पत्थरों को लोग कहते हैं कि यह पत्थर अर्जुन के तीर द्वारा पहाड़ से टूटकर टुकड़े-टुकड़े हुए हैं। जो अवशेष आज भी हैं। महाभारत काल के शिलालेख भी यमुना घाटी में बताए जाते हैं। गंगनाणी धारा से 6 किमी0 दूर लाखामण्डल में बने म्यूजिम में एक शिलालेख है जिसकी भाषा आज तक किसी के समझ नहीं आई। इसको भी पाण्डव काल का लेख बताते हैं।

लाखामण्डल के सामने कुआँ नामक स्थान हैं। कुआँ का तत्पर्य हम लोग पानी के कुण्ड से समझते हैं हालांकि उक्त स्थान पर कोई विशाल कुआँ नहीं है उस जगह पर लाखी-पाखी का जंगल कहते हैं। लोग कहते हैं कि यहाँ पर जो पानी का कुण्ड व धारा है वह भाग्यशाली लोगों को मिलता है।

बताया गया कि कुआँ गाँव का एक व्यक्ति पशुओं का चारा लाने के लिये उक्त जंगल में पहुँचा। जब उसने पेड़ पर चढ़कर नीचे देखा तो पेड़ की जड़ पर उसे एक सुन्दर कुण्ड दिखाई दिया वह डर गया और उसकी हाथ की दरान्ती कुण्ड में गिर गई वह डरा-सहमा जब नीचे उतरा तो कोई कुण्ड नहीं था परन्तु उसे उक्त स्थान पर अपनी दरान्ती सोने जैसे चमकती हुई दिखाई दी। दरअसल वह दरान्ती लोहे से सोने में बदल गई। इस कहानी से उस अदृश्य कुण्ड की जानकारी प्राप्त होती है। बताया जाता है कि यह कुण्ड जिन लोगों ने देखा उनके भाग्य बदल गए। आज भी लाखी-पाखी के जंगल में जाने के लिये प्रतिबन्ध है, जो जाएगा वह स्वच्छ एवं नंगे पाँव जाएगा।

.इस घाटी में गाँव व स्थानों के नाम पानी से सम्बन्धित हैं जैसे कफनौल, रूपनौल, सरगांव, कुड़, कुण्ड, बडियाड़ आदि अर्थात कफनौल- नौले से तात्पर्य, कुड़ एवं कुण्ड का तात्पर्य कुआँ अथवा कुण्ड से, बडियाड़ का तात्पर्य बावड़ी से सर का तात्पर्य पानी से, ऐसे कई नाम इस घाटी में प्रचलित है। जल संस्कृति में एक खास बात इस क्षेत्र में भी है कि नई बहू का एवं गाँव में आए मेहमान का पहला परिचय पानी के इन धाराओं से कराते हैं। जल से जुड़ी कहानियाँ कई और भी हैं परन्तु यहाँ प्रस्तुत है कुछ खास कहानियाँ जो जल संस्कृति को पुष्ट करती हैं।

गंगनाणी कुण्ड


इस कुण्ड का महत्त्व बड़ा पवित्र माना जाता है। स्थानीय लोग प्रत्येक संक्रान्ती में यहाँ नहाने आते है। कुण्ड के पानी आचमन से ही लोग अपने को पुण्य मानते हैं। कुण्ड का सम्बन्ध गंगाजल से है। बताया जाता है कि प्राचीन समय में परशुराम के पिता ने जमदग्नि ऋषी इस स्थान पर घोर तपस्या की थी। वे गंगाजल लेने उतरकाशी जाते थे, अपितु शिव उनकी तपस्या से अभिभूत हुए और सपने में आकर कहा कि गंगा की एक धारा तपस्या स्थल पर आएगी परन्तु जमदग्नि ऋषी ने जब कमण्डल गंगा की ओर डुबोया तो आकाशवाणी हुई और कहा कि तुम तुरन्त वापस जाओ। ऋषी महाराज वापस आकर अपने तपस्थली पर बैठ गए। प्रातः काल भयंकर गर्जना हुई आसमान पर कोहरा छाने लगा कुछ क्षणों में जमदग्नि ऋषी की तपस्थली पर एक जल धारा फूट पड़ी इस धारा के आगे एक गोलनुमा पत्थर बहते हुए आया जो आज भी गंगनाणी नामक स्थान पर विद्यमान है तत्काल यहाँ पर एक कुण्ड की स्थापना हुई। यह कुण्ड पत्थरों पर नक्कासी करके बनवाया गया जिसका पुरातात्त्विक महत्त्व है। वर्तमान में इस कुण्ड के बाहर स्थानीय विकासीय योजनाओं के मार्फत सीमेंट लगा दिया गया है। परन्तु कुण्ड केे भीतर की आकृति व बनावट पुरातात्त्विक है। यहाँ पर जमदग्नि ऋषी का भी मन्दिर है। लोग उक्त स्थान पर मन्नत पुरी करने आते हैं और यह स्थान एक तीर्थ के रूप में माना जाता है।

गंगनाणी में जमदग्नि ऋषी के मन्दिर में एक साध्वी के रूप में रह रही जो अपना नाम त्रिवेणी पुरी बताती है। वह कहती है कि गंगनाणी का महत्त्व यह भी है कि यहाँ पर तीन धाराएँ संगम बनाती हैं। कहती है कि इलाहाबाद में तो दो ही जिन्दा नदियाँ संगम बनाती हैं तीसरी नदी मृत अथवा अदृश्य है यद्यपि गंगनाणी में एक धारा जो जमदग्नि ऋषि की तपस्या से गंगा के रूप में प्रकट हुई। सामने वाली धारा को सरगाड अथवा सरस्वती कहती है तथा बगल में यमुना बहती है। इन तीनों का संगम गंगनाणी में होता है। वे बड़े विश्वास के साथ कहती है कि यही है असली त्रिवेणी। ज्ञात हो कि गंगनाणी कुण्ड के बारे में ‘केदारखण्ड’ में लिखित वर्णन है। उक्त स्थान में वसन्त के आगमन पर एक भव्य मेले का आयोजन होता है। लोग उक्त दिन भी कुण्ड के पानी को बर्तन में भरकर घरों को ले जाते हैं। यह पानी वर्ष भर पूजा के काम आता है। बताया जाता है कि इस दिन ही गंगा यहाँ प्रकट हुई थी।

 

 

कमलेश्वर महादेव


कमलेश्वर का इस क्षेत्र में बड़ा महत्त्व है लोग शिवरात्री के दिन उक्त स्थान पर व्रत पूजने पहुँचते हैं श्रद्धालुओं का इतना अटूट विश्वास होता है कि यहाँ नंगे पाँव पहुँचते हैं जबकि इस स्थान पर जाने के लिये तीन किमी पैदल मार्ग है। यहाँ पानी के दो धारे (नौले) है तथा एक कुण्ड भी है जो नक्कासीदार पत्थरों से बना है। यहाँ कमलेश्वर महादेव मन्दिर है। यहाँ इतना पानी निकलता है कि जो आगे चलकर कमल नदी के रूप में प्रचलित है। इस पानी से हजारों एकड़ भूमी सिंचित होती है यही वजह है कि इस क्षेत्र में धान की फसल भारी मात्रा में होती है। जन श्रुति है कि जब पाण्डव कैलाश को जा रहे थे तो उन्होंने कुछ समय कमलेश्वर में बिताया था।

 

 

 

 

सहस्त्रबाहु कुण्ड


यह कुण्ड उतरकाशी जनपद के बड़कोट नगर पंचायत बाजार में है। यह पहले जमींदोज हो रखा था। सन् 1997 में स्थानीय बौखनाग देवता ने इस स्थान को खुदवाया और यह कुण्ड प्राप्त हुआ। किन्तु पुरातत्व विभाग ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। कहा जाता है कि इस कुण्ड को सहस्त्रबाहु ने बनवाया था। इस स्थल की सुन्दरता अद्भुत है। पुराणों में बड़कोट ही सहस्त्रबाहु का गढ़ बताया जाता है। जिसका ऐतिहासिक महत्त्व भी है। स्थानीय लोगों ने बताया कि जब यह कुण्ड प्राप्त हुआ और इसकी सफाई हुई तो यह पानी से भर गया था। परन्तु बाद में इस कुण्ड का सौन्दर्यीकरण हुआ बाहर सीमेंट भी लगवाया और कुण्ड का पानी धीरे-धीरे सूखने लगा। वर्तमान में यह बिना पानी का कुण्ड है।

उत्तराखण्ड के नौले

 

 

कफनौल गाँव में रिंगदू पाणी


कफनौल कहने से लगता है कि यहाँ काफी नौले होंगे और इस गाँव में निश्चित तौर पर बहुत सारे जल स्रोत हैं जो कुण्ड नुमा तथा ‘नौले’ के आकार के थे। पिछले दस वर्षों के अन्तराल में इस गाँव में सम्पूर्ण जलस्रोत सूख गए। अब मात्र एक ही कुण्ड शेष है जिसे देवता का पानी कहते हैं। लोग इस पानी की पूजा प्रत्येक माह की संक्रान्ती में करते हैं तथा यह पानी गाँव की पेयजल आपूर्ति भी करता है। पहले इस कुण्ड के बाहर एक लकड़ी का मन्दिर बना था अब पत्थर व सीमेंट से मन्दिर बनाया गया है। इस मन्दिर में अनु. जाती के लोग तथा महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। यह कुण्ड भी नकासीदार पत्थरों से बनाया गया है। बताया जाता है कि गाँव के सामने बौखटिब्बा पर्वत से एक गाय रोज आकर उक्त स्थान पर एक बेकल नामक प्रजाति के झाड़ीनुमा पेड़ पर दूध छोड़ कर जाती थी। गाँव के पास एक बाडिया नामक राजा रहता था। उसने अपने कर्मचारियों को गाय को जिन्दा अथवा मुर्दा पकड़ने के आदेश दिये।

राजा के कर्मचारियों ने उक्त गाय को मार कर राजा के सुपूर्द किया। तब गाय ने राजा को श्राप दिया था कि तेरा अन्त हो जाएगा। निश्चित रूप से राजा के कुल का सम्पूर्ण नाश हो गया। आज भी जहाँ राजा रहता था वहाँ का नाम बाड़क नामक तोक से जाना जाता है। परन्तु गाय जिस जगह पर दूध छोड़ती थी वहाँ बेकल नामक झाड़ी प्रजाति ने एक पेड़ का रूप ले लिया और लोगों ने उसी प्रजाति की लकड़ी से वहाँ मन्दिर बनवा डाला। मन्दिर बनाते समय उक्त स्थान पर एक कुण्ड भी प्रकट हुआ तथा दो मूर्तियाँ भी प्राप्त हुईं यह मूर्तियाँ आज भी बौख नाग देवता के रूप में गाँव-गाँव में पूजी जाती है। आज यह स्थान देव तुल्य माना जाता है।

 

 

खडक्या सेम


खडक्या का अर्थ हम अचरज कह सकते है और सेम का पानी भण्डारण। अर्थात अचरज पानी का भण्डार। खडक्या सेम में जो पानी का धारा (नौला) है वह काली नाग देवता का है लोग उक्त धारे के पास नंगे पाँव जाते हैं तथा इस धारे में अनु. जाति के लोगों के लिये प्रवेश वर्जित है लोग कहते हैं कि जब इस धारे में गन्दगी बढ़ जाती है तो यह सूख जाता है यहाँ साँप निकलते हैं लोग इसकी सफाई व पूजा करके दोहन व संरक्षण करते हैं।

इस धारे की खास बात है कि इसका पानी गर्मियों में ठंडा व सर्दियों में गरम रहता है। पूछा गया कि यहाँ सीमेंट क्यों लगाया तो उनका कहना था कि पहले ऐसे शिल्पकार लोग थे जो पत्थरों पर सुन्दर आकृतियाँ बनाते थे अब वे नहीं रहे। सो अब सीमेंट के बजाय कुछ चारा नहीं है। उनका जबाब था कि धारे बनाने का कार्य तो मिस्त्रियों का था परन्तु धारे की पूजा के पश्चात वे वहाँ नहीं जा सकते थे, यह एक परम्परा है।

 

 

 

 

तटेश्वर महादेव का पन्यारा


तटेश्वर महादेव का पन्यारा डख्याट गाँव में है। तटेश्वर इसलिये कि यह यमुना नदी के तट पर बसा गाँव है। हालांकि वर्तमान में यमुना नदी से इस गाँव की दूरी सात किमी बढ़ गई है। जनश्रुति है कि गाँव में पहले पानी की समस्या बनी रहती थी। एक बार एक साधु इस गाँव में आया और पानी पीने की इच्छा जाहिर की गाँव की एक महिला ने उन्हें आसन दिया और कहा कि यमुना नदी से पानी भरकर ले आती हूँ। वह यमुना नदी की ओर चल दी। जब तक वह वापस आई तो पहाड़ पर साधु ने अपना चीमटा गाड़ रखा था। साधु ने महिला का यमुना से लाया हुआ पानी ग्रहण किया और कहा कि आज के बाद यमुना नदी में पानी के लिये नहीं जाना पड़ेगा। साधू ने अपना चीमटा वापस निकाला तो पहाड़ से दो धाराएँ फूट पड़ी और साधू विलुप्त हो गया इसलिये लोग उस साधु को शिव का रूप मानते हैं और इस धारे का नाम उन्होंने तटेश्वर महादेव का पन्यारा रख दिया। वर्तमान में इस धारे के बाहर भी सीमेंट से सौन्दर्यीकरण किया गया। अब एक धारा सूख गया। एक में अविरल पानी आ रहा है। इस पानी को लोग बड़ा पवित्र मानते हैं इस गाँव के लोग प्रत्येक वर्ष यहाँ पूजा अर्चना करते हैं।

.

 

 

कोटी गाँव में बस्टाड़ी पन्यारा


कोटी गांव में बस्टाड़ी नामे तोक में पानी के धारे को नक्कासीदार पत्थरों से बनाया गया है। अब इसका भी सौन्दर्यीकरण किया गया, किन्तु मुखनाम धारा (नौला) बचा हुआ है।

जनश्रुती है कि इस धारे के पास वनदेवियाँ आती थीं जो नृत्य व स्नान करती थीं। इसी गाँव में एक रावत बिरादरी का व्यक्ति था, जो बड़ा बलशाली एवं सुन्दर था, उस व्यक्ति ने इस धारे को जन साधारण के लिये खोल दिया। परन्तु वन देवियों ने भी इस रावत नाम के व्यक्ति को हर लिया अर्थात मृत्युदण्ड प्राप्त हुआ। वर्तमान में उक्त रावत व्यक्ति का पाँच मंजिला भवन अवस्थित है।

आज भी इस क्षेत्र में जब वनदेवियों की पूजा होती है तो पहले रावत देवता की पूजा होती है तत्पश्चात अन्य पूजा यहाँ पूजा पाठ प्रत्येक वर्ष वसन्तऋतु में बस्टाड़ी पन्यारा के पास होती है।

 

 

दुन्दकाणी पाणी बिगराड़ी


दुन्दका अर्थात टीला यानि ऊँचा पहाड़ जहाँ आछरियाँ (वनदेवियाँ) वास करती हैं, वहाँ से निकलने वाली जल धारा को स्थानीय भाषा में ‘‘दुन्दकाणी पाणी’’ कहते हैं। यह जल स्रोत बिगराड़ी गाँव में है। इस कुण्ड की आकृति पुरातात्त्विक है। कुण्ड का जल लोग प्रत्येक संक्रान्ति में अपने कुल देवताओं पर चढ़ाते है। जब नवरात्रों में देवता झूलते हैं तो वे नाहने के लिये भी इस कुण्ड में आते हैं।प्राचीन मतानुसार यह शिव का स्थान है क्योंकि कुण्ड के बगल में एक शिवलिंग है जिसके बाहर पत्थर से बना हुआ मन्दिर है। इस मन्दिर की गुम्बद भी पत्थर से बनी है। शहचेरी चरण दास निर्मोही जो 20 वर्षों से इस मन्दिर में शिव भक्ति में लीन है। वह कहते हैं कि दुन्दकेश्वर महादेव की ऐसी अद्भुत माया है कि यह पानी न तो कभी सूखता है और न ही कभी कम-ज्यादा होता है उक्त स्थान पर तीन धाराएँ संगम बनाती हैं। स्थानीय लोग इसे त्रिवेणी के रूप में मानते हैं।

 

कुड़ गाँव में भूतराजा का नौला


कुड़ का सीधा अर्थ कुण्ड है यह गाँव कुण्ड जैसे आकार स्थान पर बसा है। भूतराजा के धारे से निकलने वाली जल धारा सैकड़ों नाली कृषि भूमि को सिंचित करती है तथा इन खेतों में उपज की मात्रा भी अधिक है यह एक स्वादिष्ट धाना की प्रजाति है। यह गाँव अनु. जाति के लोगों का है। बड़ा आश्चर्य है कि अन्य जलस्रोतों का नाम देवताओं से जोड़ा गया अपितु यह जलस्रोत भूत के नाम से प्रचारित किया गया।

लोक मतानुसार इस स्थान में भूतों का वास था यहाँ जब बसासत हुई तो यह जल धारा पहले ही विद्यमान थी। इस स्रोत के पास एक पत्थर की आकृति है। एक हाथ में डमरू, एक में त्रिशूल, व एक में चक्र है तथा एक में शंख है। भले यह मूर्ति छोटी है इसकी बनावट अति आकर्षक है इस धारे का भी सौन्दर्यीकरण हो चुका है।

 

केदार कुण्ड ढकाड़ा


यमुना घाटी में केदार कुण्ड का होना आश्चर्यजनक है क्योंकि केदारनाथ और यमुना घाटी में कोसों का अन्तर है। ढकाड़ा गाँव के लोग टौंस घाटी, जिसे बावर क्षेत्र कहते हैं के वास्तिल गाँव से आए हैं। एक जनश्रुति है कि ढकाड़ा गाँव का एक व्यक्ति जिन्हें वर्तमान में सयाणा परिवार कहते हैं ने केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री की पद यात्रा की थी उन्हें केदारनाथ की सिद्धी प्राप्त हुई।

उन्हें स्नान के लिये जब गंगाजल की आवश्यकता पड़ती थी तो बड़ा संकट झेलना पड़ता था किन्तु उन्होंने केदारनाथ की स्तुति की और भगवान केदारनाथ ने ढकाड़ा गाँव में एक कुण्ड की उत्पति कर डाली। रात्री खुलने पर यहाँ कुण्ड दिखाई दिया तो उक्त व्यक्ति ने ग्रमीणों को एकत्रित किया और वहाँ पूजा अर्चना करके प्रतिस्थापित कर दिया इस कुण्ड का पानी हल्का सा हरा एवं साफ है इसमें मछलियाँ भी है इसका जलाभिषेक करने से लोग अपने को भाग्यशाली मानते हैं स्थानीय लोगों का इस पानी पर आध्यात्मिक रूप से लगाव है।

उत्तराखण्ड के नौलेकुण्ड की उत्पत्ति के पश्चात वह व्यक्ति स्नान इस कुण्ड के पानी से ही करता था। आज भी उनकी पीढ़ी इस प्रथा को बचाए हुए है। इनके मकान के पास एक दूसरा कुण्ड भी है जो मिट्टी से दब गया है। ग्रामीणों का कहना है कि यदि इस गाँव में खुदाई होगी तो पता नहीं क्या-क्या निकलेगा यही वजह है कि वे दूसरे कुण्ड की जानकारी किसी को भी नहीं देते।यह कुण्ड 1803 और 1991 के विनाशकारी भूकम्प से भी प्रभावित नहीं हुआ और इसका पानी न तो घटता है और न बढ़ता है जिसे लोग देवशक्ति मानते है।

 

मण्डकेश्वर नौला


मण्डकेश्वर को स्थानीय भाषा में मड़ैक कहते हैं। यह स्थान गौल गाँव से एक किमी ऊँची पहाड़ी व घनघोर देवदार के जंगल में है। यहाँ अद्भुत दृश्य है। बताया जाता है कि इस मन्दिर में अन्दर प्रवेश करते सात दरवाजेे हैं तत्पश्चात अन्दर एक पत्थरों द्वारा निर्मित विशाल पानी का कुण्ड है परन्तु स्थानीय लोगों ने इसे कभी नहीं देखा, इस मन्दिर की पूजा करने वाला पुजारी शिव प्रसाद गौड़ वर्ष में एक बार मंगसीर माह में इसकी पूजा करता है वे ही अन्दर जाता है। किन्तु वह भी अन्दर की बात को प्रचारित करने में डरा हुआ रहता है।

इस मन्दिर का परिसर लगभग 15 नाली के आस-पास है और इसकी पूरी चकबन्दी कर रखी है इस चकबन्दी के भीतर घास, झाड़ी कण्डाली का वृहद जंगल बना है। लोग बताते हैं कि जो भी इस परिसर में प्रवेश करना चाहेगा वह वापस नहीं आ पाएगा सिर्फ पुजारी के। किन्तु मन्दिर के 200 मी. नीचे से एक जल धारा निकली है जो बाद में बिखर जाती है।

इसके अलावा मन्दिर से लगभग 800 मी. दूर निचले स्थान अर्थात गौल गाँव के समीप दो धाराएँ निकलती हैं जो नक्कासीदार पत्थरों के मुखनुमा आकृति से बाहर निकलती है। जानने पर लोगों ने कहा यह नौला भी मड़ैक देवता की देन है यह भी अनादिकाल से है लोग इस स्थान को पूजनीय मानते हैं चकबन्दी की बाहरी दिवाल से लोग देवता के दर्शन करने जाते हैं यहाँ से सिर्फ मन्दिर की छत ही दिखाई देती है।

मन्दिर दर्शन के पश्चात लोग गौल गाँव के समीप निकालने वाले धारे से पानी आचमन करते हैं। स्थानीय परम्परानुसार शुभ कार्य के शुभारम्भ में मड़ैक पन्यारा से पानी को ले आते हैं। जिसे लोग पवित्र जल के रूप में ग्रहण करते हैं।

उत्तराखण्ड के नौले

उत्तराखण्ड के नौले

उत्तराखण्ड के नौले