चन्द्रापुरी मन्दाकिनी घाटी का सबसे सुन्दर और लहलहाते खेतों के बीच बसा एक ऐसा पहाड़ी गाँव था जहाँ मन्दाकिनी का पुल पार करते ही गाँव की देहरी पर ग्रामीण परिवेश की सौंधी यूँ ही लोगों कोे अपनी ओर आकर्षित करती थी। मगर 2013 साल के मध्यस्थ में प्रकृति ने इस गाँव की रौनक मातम में बदल डाली।
वैसे आँकड़ों की बाजीगरी देखें तो रुद्रप्रयाग जनपद में 833 परिवार आपदा प्रभावित हैं। जिन्हें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में सरकारी एवं गैरसरकारी राहत जरूर मिली होगी या मिल रही होगी। इसका आँकड़ा सरकारी फाइलों में मिल ही जाएगा। परन्तु यहाँ राहत और आपदा से किस तरह लोग सामना कर रहे हैं उसके लिये चन्द्रापुरी गाँव के 69 परिवारों की कहानी ही काफी है।
गौरतलब हो कि गाँव के 69 परिवारों में से 47 परिवार जो कि अनु. जाति के हैं जिनमें से सात परिवार आज भी आपदा राहत के लिये मोहताज हैं। वे सर्दी भरी रातों को कैसे गुजार रहे होंगे यह तो उनसे कोई पूछे अतएव वे टेन्टों और तम्बुओं के सहारे जो रात-दिन गुजार रहे हैं वह राज्य की आपदा राहत की पोल खोलने के लिये काफी है। यह तो सभी को मालूम है कि चन्द्रापुरी गाँव का मन्दाकिनी नदी ने 16, 17 जून 2013 को नामो निशान ही मिटा दिया।
यहाँ अनु. जाति के 47 परिवार सिर्फ व सिर्फ बदन पर पहने कपड़ों के अलावा कुछ नहीं बचा पाये। 22 परिवार जो कि कागज़ों में पिछड़ी जाति के लोग है उनकी आवासीय भवनों को कुदरत ने बचा तो दिया परन्तु ये लोग अपनी कृषि भूमि से हाथ धो बैठे हैं। बताया गया कि यहाँ लोगों ने स्वयं सेवियों की मदद भी डर-डर की ली है ताकि उन्हें मिलने वाली सरकारी मदद प्रभावित ना हों। हालांकि आवास गवाँ चुके ग्रामीणों के लिये केयर इण्डिया नाम की संस्था टेम्परेरी भवन बनवा दिये।
सरकार द्वारा दी जाने वाली आवास हेतु सात लाख की मदद अब तक लोगों के पास नहीं पहुँची है। ग्रामीण दिनेश जोशी ने कहा कि आवास के पूर्णक्षति का मुआवजा उन्हें ही नसीब हुआ जिन्होंने पटवारी को रु. 10 हजार की घूस पहुँचाई है। वे आगे बताते हैं कि खुले आसमान के नीचे आ चुके ग्रामीण सर छुपाने के लिये कुछ भी करने के लिये मजबूर हो रहे हैं। पटवारी सुन्दरलाल ने दिनेश जोशी से कई बार रु. 10 हजार की माँग की है कि वह उन्हें दो लाख रु. दिलवा देगा। ऐसा नहीं हो पाया तो पटवारी की गुस्ताखी से दिनेश जोषी आज सरकारी राहत से वंचित हो गया है।
इस तरह चन्द्रापुरी गाँव के कुत्ता लाल, हर्षलाल, मंगलदेव, निलम देवी, कबूतरा देवी, अशाड़ी देवी, अमरलाल आदि आपदा राहत की राह तो ताक रहे हैं मगर उन्हें बरसात के मौसम में पुनः बाढ़ का खतरा सता रहा है। क्योंकि आज भी आपदा प्रभावित ये परिवार सुरक्षित जगह पर शरण नहीं ले पाये हैं। चन्द्रापुरी गाँव की अनुसूचित जाति की 75 वर्षीय मंगसीरी देवी राहत के लिये दर-दर भटक रही है। क्योंकि पटवारी को घूस देने के लिये उसके पास 10 हजार रु. नहीं हो पा रहे हैं।
ग्रामीणों ने सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापक प्रेम सिंह के हवाले से कहा कि प्रभावितों की सर्वेक्षण रिपोर्ट स्थानीय पटवारी ने ग्रामीणों और तत्काल ग्राम प्रधान के बिना ही तैयार की है। राहत की बानगी देखिए कि पहले आपदा प्रभावितों को 5500 रु. और बाद में 2700 रु. दिये गए। इसके बाद रु. दो लाख की धनराशी भवन बनाने हेतु पटवारी की रिपोर्ट के अनुसार कुछ लोगों को उपलब्ध हो पाई।
चन्द्रापुरी गाँव के दलित परिवारों की परिस्थितियाँ दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। हालात इस कदर है कि एक तरफ वे लोग अपने आशियाने गवाँ चुके हैं तो दूसरी तरफ उनकी जो काश्त के लिये दो-चार नाली जमीन थी वह भी आपदा की भेंट चढ़ी हैं। अब वे लोग एकदम भूमिहीन ही हो चुके हैं। इनके सामने समस्याओं का पहाड़ बढ़ता ही जा रहा है। गौरतलब हो कि जहाँ ये परिवार किराए के भवन में रहते थे वहाँ उन्हें भवन स्वामी आग नहीं जलाने देता था। इस कारण उन्हें वापस चन्द्रापुरी में ही तम्बुओं में आना पड़ा।
गाँव के कुन्दनलाल, नन्दलाल, सोहनलाल ने कहा कि आवासीय भवन के साथ-साथ उनके पशु और पशुशाला सहित भी मन्दाकिनी की बाढ़ लील गई। इन पशुशालाओं में कम-से-कम 20 गाये, बछड़े, भैंसे व बैल बँधे थे। इसी तरह उनकी जो काश्त की भूमि थी वह भी समाप्त हो गई। इसका उन्हें कोई मुआवजा और ना ही राहत मिल पाई। उनके पास ना तो पशु हैं और ना ही भूमि है।
उनका जीवन-बसर कैसे चलेगा इसकी उन्हें बार-बार चिन्ता सता रही है। चन्द्रापुरी गाँव की कु. सुनिता, कु. सीमा ने डर-डर के बताया कि उनके गाँव में दलितों के नुकसान के बराबर ही सामान्य जाति के लोगों का भी नुकसान हुआ है। मगर दलितों को जरूरी मुआवजा से वंचित रखा गया तो सामान्य लोगों को सभी प्रकार का मुआवजा स्थानीय पटवारी ने उपलब्ध करवाया।
घराट से चलती थी आजीविका
कुन्दनलाल अपनी एक पनचक्की (घराट) से रोजाना 5-8 किलो आटा पीसाई के बदले कमाता था। यानि उसके पास माह में 30-35 किलो आटा हो जाता था। ये पनचक्की कुन्दनलाल के रोज़गार का एक नियमित जरिया था। मन्दाकिनी की बाढ़ से कुन्दनलाल का रोजगार समाप्त हो गया है। सरकार की नजर में ऐसे अतिसूक्ष्म उद्योग मुआवजा की श्रेणी में नहीं आये।
कुन्दनलाल बेरोजगार हो चुका है। आम आदमी जो इस पनचक्की में गेहूँ पीसाता था और पीसाई के बदले रुपए नहीं आटा ही देता था वह परस्परता की संस्कृति भी बाढ़ की भेंट चढ़ी है। प्रहसन यह है कि क्या इस तरह के अतिसूक्ष्म उद्योग मुआवजा की श्रेणी में नहीं आते? जबकि दुकानों, होटलों के लिये सरकार का मुआवजा देने की घोषणा है।
कैसे जलेगा चूल्हा
यहाँ लोगों ने बताया कि फेब्रिकेटेड भवन रहने लायक नहीं है क्योंकि इन मकानों में आग नहीं जला सकते। सुरक्षित जगह न मिलने के कारण वे अपनी पुश्तैनी भूमि पर लौट आये हैं। हालांकि वहाँ उनके पुश्तैनी आवास तो नही हैं मगर दफन हो चुके आवासों की यादें उन्हें बार-बार झकझोर रही हैं।
डम्पिंगयार्ड ने मचायी तबाही
आपदा का क्या कारण था? इसके जवाब में लोगों ने बताया कि इस क्षेत्र में निर्माणाधीन सिंगोली-भटवाड़ी परियोजना के कुण्ड, सितापुर, फाटा, डमारगढ़, बड़ासू आदि जगह पर मलबा के डम्पिंगयार्ड है। ये सभी यार्ड बह गए। इन्होंने ने भी बहुत अधिक तबाही मचाई है।
जिन्हें मिली आपदा राहत
चन्द्रापुरी में 22 परिवार पीछड़ी जाति के हैं इनमें से दो परिवारों को भी मुआवजा नहीं मिल पाया है। सत्यप्रसाद दो लाख, नारायणदत्त दो लाख, नरेन्द्र दो लाख, जमुनादेवी एक लाख, दिनेश दो लाख, दयाराम दो लाख। 17 परिवार आज भी आवासीय भवनों के लिये मोहताज हैं।
सोनिया से छीना स्वरोजगार का जरिया
कुमारी सोनिया जो बचपन से ही अपने पुश्तैनी गाँव पिथौरागढ़ के ऐंचोली से यहां चन्द्रापुरी गाँव आकर अपने नाना-नानी के साथ रह रही है। सोनिया के मामा का देहावसान होने की वजह से नाना-नानी की देख-रेख व अन्य जिम्मेदारियों का बोझ भी सोनिया के ऊपर आ गया। सोनिया की मामी दूर देहरादून में सरकारी नौकरी करती है। सो सानिया अब नाना-नानी की देख-भाल करने लग गई।
रोजगार के लिये सोनिया ने सिलाई, कड़ाई, बुनाई आदि का स्वरोजगार जोड़ रखा था। इसके लिये उसके पास हथकरघा से लेकर सिलाई मशीन और बुनाई मशीनें थीं। इस आपदा ने सोनिया के नाना-नानी के आवासीय भवन के साथ सोनिया के स्वरोजगार कमाने के साधन भी तबाह कर दिये। वर्तमान में सोनिया बेरोजगार हो चुकी है। बुजुर्ग नाना-नानी व अपनी आजीविका को वह कैसे चलाएगी इसकी उसे रोज चिन्ता सता रही है। वह कहती है कि अब तक तो संस्थाओं के द्वारा उन्हें खाद्य सामग्री मिल भी गई। परन्तु भविष्य में उनकी आजीविका कैसे चलेगी।
इस पर कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। कहती है कि सरकार के लोग जो गाँव-गाँव मुआवजा का सर्वेक्षण कर रहे थे उन्हें भी उनका यह कारोबार नजर नहीं आया। जबकि वे लोग आपदा से पूर्व भी उनके काम को जानते थे। वह सिर्फ इतना ही बता पाती है कि एक तो वह पिथौरागढ़ की है, दूसरा वह दलित होने का दंश झेल रही है। बताती है कि उसका यह संसाधन लगभग 80 हजार रुपए की लागत का होगा जिसे अब वह दुबारा नहीं जोड़ पाएगी।