कृषि की उत्पादकता पूरी तरह से मौसम,जलवायु और पानी की उपलब्धता पर निर्भर होती है; इनमें से किसी भी कारक के बदलने अथवा स्वरूप में परिवर्तन से कृषि उत्पादन प्रभावित होता है। कृषि का प्रकृति से सीधा संबंध है, जल-जंगल-जमीन ही प्रकृति का आधार हैं और यही कृषि का भी। आपदाओं से कृषि पहले भी खतरे में पड़ती रही है। बाढ़-सूखा-भूस्खलन जैसी घटनाओं ने कई बार किसानों को भुखमरी के कगार पर खड़ा किया है, लेकिन ये आपदाएं अनेक वर्षों में एक बार आती थीं इसलिए किसान संभल जाता था। आज ऐसी आपदाएं प्रतिवर्ष आ रही हैं और अपने भीषण स्वरूप में आ रही हैं। ऐसे में इनसे निपटने के उपाय ढूंढ़ना जरूरी होता जा रहा है।
आज पूरी दुनिया पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पड़ रहे हैं। जलवायु में होने वाले यह परिवर्तन ग्लेशियर व आर्कटिक क्षेत्रों से लेकर उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों तक को प्रभावित कर रहे हैं। यह प्रभाव अलग-अलग रूप में कहीं ज्यादा तो कहीं कम महसूस किए जा रहे हैं। हमारे देश का संपूर्ण क्षेत्रफल करीब 32.44 करोड़ हेक्टेयर है। इसमें से 14.26 करोड़ हेक्टेयर में खेती की जाती है। अर्थात देश के संपूर्ण क्षेत्र के 47 प्रतिशत हिस्से में खेती होती है।1991 की जनगणना के अनुसार 65 प्रतिशत लोग रोजगार के लिए खेती पर निर्भर हैं। ऐसी स्थिति में कृषि एक महत्वपूर्ण घटक है, जिसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन या गिरावट देश की 80 प्रतिशत जनसंख्या को प्रभावित कर सकता है। जलवायु परिवर्तन एक ऐसा ही कारक है जिससे प्रभावित होकर कृषि अपना स्वरूप बदल सकती है तथा इस पर निर्भर लोगों की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है।
जलवायु परिवर्तन व बाढ़
भारत में मौसम बदलाव के एक प्रमुख प्रभाव के रूप में बाढ़ को देखा जा सकता है। देश का बहुत बड़ा क्षेत्र बाढ़ की विभीषिका को झेलता आ रहा है। परन्तु विगत दो दशकों से बाढ़ के स्वरूप, प्रवृत्ति व आवृत्ति में व्यापक परिवर्तन देखा जा रहा है।
ऐसे बदलाव के चलते कृषि, स्वास्थ्य जीवनयापन आदि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है और जान-माल,उत्पादकता आदि की क्षति का क्रम बढ़ा है। ऐसा नहीं है कि देश के लिए बाढ़ कोई नई बात है परन्तु मौसम में हो रहे बदलाव ने इस प्राकृतिक प्रक्रिया की तीव्रता व स्वरूप को बदल दिया है और बाढ़ की भयावहता आपदा के रूप में दिखाई दे रही है। इसमें विशेषकर तेज व त्वरित बाढ़ का आना, पानी का अधिक दिनों तक रुके रहना तथा लंबे समय तक जल-जमाव की समस्या सामने आ रही है। प्रमुख परिवर्तन इस प्रकार रहे-
1. वर्षा के क्रम में परिवर्तन आए हैं। वर्षा के समय, कुल वर्षा, वर्षा की क्रमबद्धता में बदलाव स्पष्ट दिखता है।
2. बाढ़ त्वरित रूप में तेज गति से आने लगी है। बांधों के टूटने व अन्य कारणों से आकस्मिक बाढ़ भी आती रहती है।
3. छोटी नदियां भी बाढ़ को विकराल करने में सहयोगी बन रही हैं।
4. बड़ी झील, ताल, पोखरे आदि की निरंतर कम होती संख्या की वजह से पानी को ठहरने की जगह नहीं मिलती।
5. जलजमाव अधिक व लम्बे समय तक रह रहा है।
ऐसे परिवर्तनों का कृषि, स्वास्थ्य व जीवनयापन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। जलवायु परिवर्तन ने बाढ़ को आपदा का रूप दे दिया है। कुछ क्षेत्रों में बाढ़ प्रत्येक वर्ष ही आती है परन्तु सामान्यतः 3-4 सालों में बाढ़ की आवृत्ति में तेजी आ गई जिससे जान-माल का बहुत नुकसान होने लगा है।
जलवायु परिवर्तन व सूखा
मौसम बदलाव का दूसरा प्रमुख प्रभाव सूखा के रूप में देखा जा सकता है। तापमान वृद्धि एवं वाष्पीकरण की दर तीव्र होने के परिणामस्वरूप सूखाग्रस्त क्षेत्र बढ़ता जा रहा है। मौसम बदलाव के चलते वर्षा समयानुसार नहीं हो रही है और उसकी मात्रा में भी कमी आई है।
मिट्टी की जलग्रहण क्षमता का कम होना भी सूखा का एक प्रमुख कारण है। बहुत से क्षेत्र जो पहले उपजाऊ थे आज बंजर हो चले हैं वहां की उत्पादकता समाप्त हो गई है। भारत के संदर्भ में ग्रीनपीस इण्डिया की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि भारत में सर्वाधिक आमदनी वाले वर्ग के एक फीसदी लोग सबसे कम आमदनी वाले 38 फीसदी लोगों के मुकाबले कार्बन डाइऑक्साइड का साढ़े चार गुना ज्यादा उत्सर्जन करते हैं।
गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप के अध्यक्ष डॉ. शिराज वजीह का कहना है कि लगातार बढ़ता शहरीकरण जलवायु परिवर्तन को और बढ़ावा देगा और बढ़ती शहरी जनसंख्या के कारण तमाम शहर गंभीर रूप से प्रभावित होंगे। शहरी क्षेत्रों के विस्तार के कारण उपजाऊ भूमि इमारतों के निर्माण हेतु उपयोग हो रही है तथा पेड़-पौधों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है।
भारत में ही 1955 से 2000 के बीच करीब 2-3 लाख हेक्टेयर खेती तथा वन भूमि आवासीय उपयोग में आ चुकी है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के अनुसार मात्र एक डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में वृद्धि से भारत में 40 से 50 लाख टन गेहूं की कम उपज का अनुमान है। इससे प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता कम होगी और खाद्य असुरक्षा तथा कुपोषण बढ़ेगा। यदि जलवायु परिवर्तनों को समय रहते कम करने तथा खाद्यान्न उपलब्धता बढ़ाने हेतु प्रभावी कदम नही उठाए गए तो शहरी गरीबों पर इसका गंभीर असर पड़ेगा और कुपोषित बच्चों की संख्या और भी अधिक बढ़ जाएगी।
जलवायु परिवर्तन का फसलों पर प्रभाव
कृषि क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के जो संभावित प्रभाव दिखने वाले हैं वह मुख्य रूप से दो प्रकार के दिखाई दे सकते हैं। एक तो क्षेत्र आधारित, दूसरे फसल आधारित अर्थात विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न फसलों पर अथवा एक ही क्षेत्र की प्रत्येक फसल पर अलग-अलग प्रभाव पड़ सकता है।
वर्ष | मौसम | तापमान वृद्धि (सें.ग्रे. | वर्षा में परिवर्तन (प्रतिशत | ||
न्यूनतम | अधिकतम | न्यूनतम | अधिकतम | ||
2020 | रबी | 1.08 | 1.54 | 1.95 | 4.36 |
खरीफ | 0.87 | 1.12 | 1.81 | 5.10 | |
2050 | रबी | 2.54 | 3.18 | 9.22 | 3.82 |
खरीफ | 1.81 | 2.37 | 7.18 | 10.52 | |
2080 | रबी | 4.14 | 6.31 | 24.83 | 4.50 |
खरीफ | 2.91 | 4.62 | 10.1 | 15.18 |
गेहूं और धान हमारे देश की प्रमुख खाद्य फसलें हैं। इनके उत्पादन पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ता है।
गेहूं के उत्पादन पर प्रभाव
1. अध्ययनों में पाया गया है कि यदि तापमान 2 से.ग्रे. के करीब बढ़ता है तो अधिकांश स्थानों पर गेहूं की उत्पादकता में कमी आएगी। जहां उत्पादकता ज्यादा है (उत्तरी भारत में) वहां कम प्रभाव दिखेगा, जहां कम उत्पादकता है वहां ज्यादा प्रभाव दिखेगा।
2. प्रत्येक 1 से.ग्रे. तापमान बढ़ने पर गेहूं का उत्पादन 4-5 करोड़ टन कम होता जाएगा। अगर किसान इसके बुआई का समय सही कर ले तो उत्पादन की गिरावट 1-2 टन कम हो सकती है।
धान के उत्पादन पर प्रभाव
1. हमारे देश में कुल फसल उत्पादन में 42.5 प्रतिशत हिस्सा धान की खेती का है।
2. तापमान वृद्धि के साथ-साथ धान के उत्पादन में गिरावट आने लगेगी।
3. अनुमान है कि 2 से.ग्रे. तापमान वृद्धि से धान का उत्पादन 0.75 टन प्रति हेक्टेयर कम हो जाएगा।
4. देश का पूर्वी हिस्सा धान उत्पादन से ज्यादा प्रभावित होगा। अनाज की मात्रा में कमी आ जाएगी।
5. धान वर्षा आधारित फसल है इसलिए जलवायु परिवर्तन के साथ बाढ़ और सूखे की स्थितियां बढ़ने पर इस फसल का उत्पादन गेहूं की अपेक्षा ज्यादा प्रभावित होगा।
जलवायु परिवर्तन से केवल फसलों का उत्पादन ही नहीं प्रभावित होगा वरन् उनकी गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव पडे़गा। अनाज में पोषक तत्वों और प्रोटीन की कमी पाई जाएगी जिसके कारण संतुलित भोजन लेने पर भी मनुष्यों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा और ऐसी कमी की अन्य कृत्रिम विकल्पों से भरपाई करनी पड़ेगी। गंगा तटीय क्षेत्रों में तापमान वृद्धि के कारण अधिकांश फसलों का उत्पादन घटेगा।
जलवायु परिवर्तन का जल संसाधन पर प्रभाव
पृथ्वी पर इस समय 140 करोड़ घन मीटर जल है। इसका 97 प्रतिशत भाग खारा पानी है जो समुद्रों में स्थित है। मनुष्यों के हिस्सें में कुल 136 हजार घन मीटर जल ही बचता है। पानी तीन रूपों में पाया जाता है-तरल जो कि समुद्रों, नदियों, तालाबों और भूमिगत जल में पाया जाता है। ठोस-जो कि बर्फ के रूप में पाया जाता है।
गैस-वाष्पीकरण द्वारा जो पानी वातावरण में गैस के रूप में मौजूद होता है। पूरे विश्व में पानी की खपत प्रत्येक 20 साल में दुगुनी हो जाती है जबकि धरती पर उपलब्ध पानी की मात्रा सीमित है। शहरी क्षेत्रों में, कृषि क्षेत्रों में और उद्योगों में बहुत ज्यादा पानी बेकार होता है। यह अनुमान लगाया जा रहा है यदि इसको सही ढंग से व्यवस्थित किया जाए तो 40 से 50 प्रतिशत तक पानी की बचत की जा सकती है।
जलवायु परिवर्तन के कारण कृषकों के लिए जल-आपूर्ति की भयंकर समस्या हो जाएगी तथा बाढ़ एवं सूखे की बारंबारता में वृद्धि होगी। अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में लम्बे शुष्क मौसम तथा फसल उत्पादन की असफलता बढ़ती जाएगी। यही नहीं, बड़ी नदियों के मुहानों पर भी कम जल बहाव, लवणता, बाढ़ में वृद्धि तथा शहरी व औद्योगिक प्रदूषण की वजह से सिंचाई हेतु जल उपलब्धता पर भी खतरा महसूस किया जा सकता है।
हमारे जीवन में भूमिगत जल की महत्ता सबसे अधिक है। पीने के साथ-साथ कृषि व उद्योगों के लिए भी इसी जल का उपयोग किया जाता है। जनसंख्या बढ़ने के साथ ही पानी की मांग में बढ़ोतरी होने लगी है जो स्वाभाविक है। परन्तु बढ़ते जल प्रदूषण और उचित जल प्रबंधन न होने के कारण पानी आज एक समस्या बनने लगी है। सारी दुनिया में पीने योग्य पानी का अभाव होने लगा है।
गांवों में जल के पारंपरिक स्रोत लगभग समाप्त होते जा रहे हैं। गांव के तालाब, पोखरे, कुंओं का जलस्तर बनाए रखने में मददगार होते थे। किसान अपने खेतों में अधिक-से-अधिक वर्षा जल का संचय करता था ताकि जमीन की आर्द्रता व उपजाऊपन बना रहे। परन्तु अब बिजली से ट्यूबवेल चलाकर और कम दामों में बिजली की उपलब्धता से किसानों ने अपने खेतों में जल का संरक्षण करना छोड़ दिया।
जलवायु परिवर्तन का मिट्टी पर प्रभाव
कृषि के अन्य घटकों की तरह मिट्टी भी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रही है। रासायनिक खादों के प्रयोग से मिट्टी पहले ही जैविक कार्बनरहित हो रही थी, अब तापमान बढ़ने से मिट्टी की नमी आरै कार्यक्षमता प्रभावित होगी। मिट्टी में लवणता बढ़ेगी और जैव विविधता घटती जाएगी। भूमिगत जल के स्तर का गिरते जाना भी इसकी उर्वरता को प्रभावित करेगा।
बाढ़ जैसी आपदाओं के कारण मिट्टी का क्षरण अधिक होगा वहीं सूखे की वजह से इसमें बंजरता बढ़ती जाएगी। पेड़-पौधों के कम होते जाने तथा विविधता न अपनाए जाने के कारण ऊपजाऊ मिट्टी का क्षरण खेतों को बंजर बनाने में सहयोगी होगा।
जलवायु परिवर्तन का रोग व कीट पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन से कीट व रोगों की बढ़त पर जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। तापमान, नमी तथा वातावरण की गैसों से पौधों, फफूंद तथा अन्य रोगाणुओं के प्रजनन में वृद्धि तथा कीटों और उनके प्राकृतिक शत्रुओं के अंतर्संबंध में बदलाव आदि दुष्परिणाम देखने को मिलेंगे। गर्म जलवायु कीट पंतगों की प्रजनन क्षमता में वृद्धि हेतु सहायक होती है। लम्बे समय तक चलने वाले बसंत, गर्मी व पतझड़ के मौसम में अनेक कीटों की प्रजनन संख्या अपना जीवन चक्र पूरा करती है। जाड़ों में कहीं छुपकर ये लार्वा को बचाए रखते हैं। हवा के रूख में बदलाव से हवा-जनित कीटों में वृद्धि के साथ-साथ बैक्टीरिया और फंगस में भी वृद्धि होती है। इनको नियंत्रित करने के लिए अधिक से अधिक मात्रा में कीटनाशक प्रयोग किए जाएंगे जो अन्य बीमारियों को बढ़ावा देंगे। जानवरों में बीमारियां भी समान रूप से बढ़ेंगी।
जलवायु परिवर्तन का जैव विविधता पर प्रभाव
सूखे,लवणता आदि से जमीन की उर्वरता समाप्त होने का असर पेड़-पौधों के स्वास्थ्य अथवा पुनः उगने की क्षमता पर पड़ता है। इनके नष्ट होने से उस क्षेत्र में रहने वाले मनुष्यों व जानवरों पर भारी संकट आ जाता है क्योंकि यह उनके लिए महत्वपूर्ण संसाधन हैं। इससे वहां रहने वालों की गरीबी व खाद्य-सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है।
कैसे कम हो सकता है ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन
कृषि क्षेत्र से होने वाले ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन कम करने का सबसे प्रभावी माध्यम है जैविक खेती। अनेक अध्ययनों व क्षेत्र परीक्षणों से यह साबित हो चुका है कि जैविक कृषि अपनाकर इन नुकसानदायक गैसों के उत्सर्जन में कमी लाई जा सकती है।
1. जैविक खेती ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम कर सकती है।
2. जैविक खेती मिट्टी में कार्बन को अवशोषित कर सकती है।
उपरोक्त दोनों बिन्दुओं पर जैविक खेती का अनेक क्षेत्रों में परीक्षण किया जा चुका है और आंकड़े बताते हैं कि ऐसा निश्चित तौर पर होता है।
आधुनिक कृषि की तुलना में जैविक खेती से ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन बहुत कम मात्रा में होता है। बाढ़ग्रस्त क्षेत्र हो या सूखाग्रस्त क्षेत्र, स्थाई या जैविक कृषि से प्रति हेक्टेयर ज्यादा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। विशेषकर यदि पारंपरिक बीजों का इस्तेमाल किया जाए तो और बेहतर परिणाम देखे जा सकते हैं। मिट्टी में कार्बन के एकत्रीकरण को जैविक खेती बहुत हद तक कम कर देती है। इसमें अनेक अध्ययन किए गए जिसमें 80 प्रतिशत तक कमी पाई गई है।
नाइट्रोजन की भूमिका
आधुनिक कृषि में सबसे ज्यादा ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन रासायनिक उर्वरकों द्वारा होता है। विश्व में रासायनिक फर्टिलाइजर की खपत 2005 में 90.86 करोड़ टन थी। जबकि इसको तैयार करने में 90 करोड़ टन फासिल फ्यूल (डीजल आदि) जलाया गया जो जलवायु परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
जैविक खेती नाइट्रोजन के लिए आत्मनिर्भर है अर्थात इसमें पर्याप्त मात्रा में नाइट्रोजन की उपलब्धता रहती है। मिश्रित खेती के साथ जानवरों के गोबर से तैयार खाद व फसल अवशेषों से तैयार खाद नाइट्रोजन पर्याप्त मात्रा में उत्पन्न करती है।
इस प्रकार नाइट्रस ऑक्साइड जैसे खतरनाक गैस के उत्सर्जन को जैविक खेती ही कम कर सकती है क्योंकि इनके उत्सर्जन का मुख्य स्रोत रासायनिक फर्टिलाइजर हैं। विविधतापूर्ण खेती, जैविक खाद, फसल चक्र, हरी खाद और दलहनी फसलें भी नाइट्रस आक्साइड के उत्सर्जन को बहुत कम करने की क्षमता रखती है जोकि जैविक या स्थाई खेती के मूल स्तम्भ हैं।
मीथेन का उत्सर्जन
कुल ग्रीनहाऊस गैसों में मिथेन का प्रतिशत 14 है जिसमें दो तिहाई हिस्सा कृषि द्वारा उत्सर्जित होता है। जैविक अथवा स्थाई कृषि अपनाकर इसके प्रभाव को भी कम किया जा सकता है। जानवरों की देशी प्रजातियां इसमें बहुत मददगार हैं। विशेषकर दुधारू गायों से व जानवरों के छोटे बच्चों से मिथेन का उत्सर्जन कम होता है। जानवरों के गोबर के समुचित उपयोग से भी मिथेन उत्सर्जन में कमी लाई जा सकती है। धान के खेतों से निकलने वाली मिथेन गैस के लिए नई उन्नत प्रजातियां, जिसमें खेत में पानी का जमाव कम करना पड़े, उचित होंगी। कम पानी वाले धान की खेती लाभदायक होगी।
कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन
जैविक खेती कार्बन को मिट्टी में अवशोषित करती है। मिट्टी के क्षरण से कार्बन का नुकसान होता है जो सीधे मिट्टी की उत्पादकता पर प्रभाव डालता है। जैविक खादों व खेती की विविधता से मिट्टी में कार्बन का उचित अनुपात बना रहता है।
खाद्य सुरक्षा के दृष्टिकोण से लोगों को अपने खान-पान के तौर-तरीकों में भी बदलाव लाना होगा, जिससे रसायन आधारित खेती व विदेशी जानवरों की नस्लों में कमी आए और जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से कृषि को सुरक्षित किया जा सके।
फसल चक्र व खेत का तंत्र
1. फसलों की किस्मों को बढ़ावा;
2. फसल चक्र में बहुवर्षीय वृक्षों का सामंजस्य;
3. पौधों की क्यारियों के बीच जमीन पर फैलने वाली फसलें;
4. खेती का आत्मनिर्भर तंत्र विकसित करना।
फसल की अधिक उत्पादकता एकल खेती से प्राप्त हो सकती है और यह पूरी तरह बाजार पर निर्भर खेती है विशेषकर बीज, रसायनिक खाद व कीटनाशक के संदर्भ में। स्थाई कृषि में किसान अपने स्वयं की तैयार लागत सामग्री का उपयोग करके खेती में खर्च भी कम करता है और लाभ भी ज्यादा कमाता है। स्थाई कृषि में धरती को पोषक तत्वों की पूर्ति मिट्टी से ही हो जाती है क्योंकि जैविक खादों व दलहनी फसलों तथा साथ में वृक्षों के संयोजन से मिट्टी की सभी जरूरतें पूरी हो जाती हैं। उन्हें अतिरिक्त पोषक तत्वों की आवश्यकता नहीं रहती। स्थाई कृषि में उत्पादकता स्वयं ही बढ़ जाती है क्योंकि मिट्टी में स्वाभाविक रूप से सभी तत्व मौजूद होते हैं। जानवरों के गोबर द्वारा तैयार खाद, कृत्रिम खादों से कहीं बेहतर साबित होती है।
पोषक तत्व व खाद प्रबंधन
1. खेत में नाइट्रोजन को बढ़ाना;
2. फसल की आवश्यकता के अनुरूप ही खाद डालना;3. नाइट्रोजन का इस्तेमाल फसल तैयार होने पर तथा मिट्टी की क्षमता के अनुरूप करना;
4. ज्यादा नाइट्रोजन का उपयोग न करना;
5. जुताई व फसल अवशेषों का प्रबन्धन;
6. कम जुताई या जुताई नहीं करना।
खेतों में देशी खाद व नाइट्रोजन-जनित पौधे लगाने से मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ती है और नाइट्रोजन का पुनर्चक्रीयकरण होता रहता है। समय प्रबंधन इसमें बहुत महत्वपूर्ण होता है।
आवश्यकता व मात्रा के अनुरूप ही नाइट्रोजन का प्रयोग करना चाहिए वरना यह गैस में तब्दील होकर उत्सर्जन करने लगता है। अनेक अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ है कि आधुनिक खेती की तुलना में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जैविक खेती में 36 प्रतिशत कम होता है। इसी प्रकार इन दोनों खेती पद्धतियों में लागत व लाभ में भी स्पष्ट अंतर देखने को मिलता है। रसायन आधारित खेती में लागत अधिक है और जलवायु परिवर्तन के लिए नुकसान भी अधिक है जबकि जैविक खेती में लागत भी कम है और नुकसान भी कम है। सटीक व उपयुक्त प्रयासों से इस नुकसान को और भी कम किया जा सकता है।
पशु प्रबंधन, चरागाह व चारे की उपलब्धता
1. प्रजनन व उत्पादकता बढ़ाने हेतु;
2. दुधारू पशुओं में प्रजनन द्वारा कार्यक्षमता बढ़ाना;
3. देशी नस्लों को बढ़ावा;
4. चरागाह में दलहनी फसलें लगाना;
5. गोबर का उचित प्रबंधन करना (बायोगैस या खाद बनाकर)।
सभी ग्रीनहाउस गैसों में 14 प्रतिशत उत्सर्जन मिथेन गैस का होता है। कहा जाता है कि इसमें जानवरों की प्रमुख भूमिका है। कृषि में स्थायित्व के लिए पशु उसका एक आवश्यक अंग है तथा जैविक खेती के लिए एक अनिवार्य तंत्र, इसलिए खेती को जानवरों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। जानवरों में चबाने या जुगाली करने की प्रक्रिया से मिथेन उत्सर्जित होता है जबकि इसका उनके पाचन तंत्र से सीधा संबंध होता है। अतः इसमें रुकावट नहीं डाली जा सकती है। हां, कुछ तरल पोषक तत्वों को देकर इनकी अवधि में कमी लाई जा सकती है। इनके गोबर को समुचित प्रबंधन द्वारा अनेक प्रकार से उपयोग में लाया जा सकता है, जिससे इनके उत्सर्जन की प्रक्रिया कम हो जाए।
बायोगैस व अनेक प्रकार की जैविक खादें खेती के लिए उपयोगी होती हैं। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कम करने के लिए देशी नस्लों को बढ़ावा देना होगा। विदेशी नस्लों के जानवरों की कार्यक्षमता व गर्मी, सर्दी, पानी सहन करने की क्षमता कम होती है। इन सबके प्रभाव से इनकी प्रजनन क्षमता व उत्पादकता पर सीधा असर पड़ता है। रोग व बीमारियां भी इन्हें ज्यादा होती हैं जिनका प्रभाव इनके अल्प जीवन के रूप में परिणत होता है।
देशी नस्लें विशेषकर दुधारू गायों से मिथेन का उत्सर्जन कम होता है, ऐसा कई अध्ययनों में पाया गया। जानवरों के भोजन व उसके प्रकार में जो अंतर होता है, वह मिथेन के उत्सर्जन हेतु उत्तरदायी है।
मिट्टी की उर्वरता बढ़ाना व बंजर भूमि का जीर्णोंद्धार
1. पोषक तत्व द्वारा उर्वरता बढ़ाना;
2. देशी व जैविक खादों का प्रयोग;
3. मृदा संरक्षण तकनीक द्वारा मिट्टी के क्षरण व कार्बन व खनिज लवण को कम करना;
4. फसल अवशेषों से मल्चिंग करना;
5. पानी का संरक्षण;
6. मिट्टी के जैविक तत्व कार्बन का पृथक्करण।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में कृषि दो तरीके से महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है-एक तो ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करके, दूसरे वातावरण में से कार्बन डाइऑक्साइड को मिट्टी अवशोषित करके। जैविक कृषि, स्थाई कृषि, बिना जुताई के कृषि, कृषि वानिकी आदि ऐसी तकनीकें हैं जोकि मिट्टी के क्षरण को रोकती हैं और कार्बन के नुकसान को लाभ में परिवर्तित कर देती हैं। जैविक खेती इन दोनों ही माध्यमों से जलवायु परिवर्तन में कमी लाने के लिए सक्षम है।
जैविक खेती में जो सबसे महत्वपूर्ण आयाम है वह यह कि इसमें किसानों के ज्ञान और कौशल को प्राथमिकता दी जाती है। उसके निरीक्षण, अनुभव व अनुमानों को खेती का आधार माना जाता है। इसीलिए बदलती परिस्थितियों में वह अपने ज्ञान व कौशल से सामंजस्य बैठा पाता है अथवा प्रयास कर पाता है, जबकि रसायन आधारित बाजार पर निर्भर खेती में किसान अपने ज्ञान का समावेश नहीं कर पाता और नुकसान उठाने को मजबूर होता है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के कुछ उपाय
भारतीय कृषि पर जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों को कम करने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे, जिनमें कुछ मुख्य इस प्रकार हैं-
फसल उत्पादन हेतु नई तकनीकों का विकास
गोरखपुर एनवायरंमेंटल एक्शन ग्रुप के अध्यक्ष डॉ. शिराज वजीह का कहना है कि फसलों के सुरक्षित व समुचित उत्पादन हेतु ऐसी किस्मों की खेती को बढ़ावा देना होगा जो नई फसल प्रणाली व नए मौसम के अनुकूल हो। इसके लिए ऐसी किस्मों को विकसित करना होगा जो अधिक तापमान, सूखा और पानी में डुबाव होने पर भी सफलतापूर्वक उत्पादन कर सकें। आने वाले समय में ऐसी किस्मों की जरूरत होगी जो उर्वरक और सूर्य-विकिरण उपयोग के मामले में अधिक कुशल हों।
लवणीयता और क्षारीयता को सहन करने वाली किस्मों को भी ईजाद करना होगा। अनेक पारम्परिक व प्राचीन प्रजातियां ऐसी मौजूद हैं, उन्हें ढूंढना होगा व उनका संरक्षण करना होगा।
सस्य विधियों में परिवर्तन
नई फसल और नए मौसम के अनुसार हमें बुआई के समय में भी बदलाव लाने होंगे ताकि तापमान का प्रभाव कम हो। फसलों के कैलेंडर में कुछ बदलाव लाकर गर्म मौसम के प्रकोप से बचना व नम मौसम का अधिक उपयोग करना होगा। मिश्रित खेती व एंटरक्रापिंग करके जलवायु परिवर्तन से निपटा जा सकता है। कृषि वानिकी अपनाना जलवायु परिवर्तन की अच्छी काट साबित होगा। यह केवल वातावरण में मौजूद कार्बन को सोखने का काम ही नहीं करेगी वरन् इससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ेगी व आर्थिक-सामाजिक लाभ भी प्राप्त होगा।
खेतों में जल का संरक्षण
तापमान वृद्धि के साथ-साथ धरती पर मौजूद नमी समाप्त होती जाएगी। ऐसे में खेती में नमी का संरक्षण करना और वर्षा जल को एकत्र कर सिंचाई हेतु उपयोग में लाना आवश्यक होगा। जीरो टिलेज या शून्य जुताई जैसी तकनीकों का इस्तेमाल कर पानी के अभाव से निपटा जा सकता है। शून्य जुताई के कारण धान और गेहूं की खेती में पानी की मांग की कमी देखी गई है जबकि उपज में बढ़ोतरी हुई है और उत्पादन लागत 10 प्रतिशत तक कम हो गया है। इससे मिट्टी में जैविक पदार्थों की बढ़ोतरी भी होती है।
इसी प्रकार ऊंची उठी क्यारियों में रोपाई करना भी एक बेहतरीन तकनीक है, जिसमें पानी के उपयोग की क्षमता बढ़ जाती है। जलभराव कम होता है, खरपतवार कम आते हैं, लागत कम लगती है व लाभ ज्यादा होता है।
समग्रित खेती
आज खेती की सबसे बड़ी मांग यही है। जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से खेतों में विविधता तथा फसलों के साथ वृक्षों व जानवरों का संयोजन बहुत मायने रखता है। अब तक अनुभवों तथा अध्ययनों में भी यह पाया गया कि जहां समग्रता थी वहां नुकसान का प्रतिशत कम रहा जबकि जहां एकल फसलें अथवा केवल पशुओं पर निर्भरता थी, वहां नुकसान ज्यादा हुआ। खेती में समग्रता किसान को आत्मनिर्भर बनाती है, बाजार पर उसकी निर्भरता कम होती है तथा कठिन समय में भी उसकी खाद्य सुरक्षा बनी रहती है क्योंकि एक अथवा दो गतिविधियों के नुकसान से पूरी प्रक्रिया नष्ट नहीं होती। खेती में समग्रता अर्थात घर-पशुशाला-खेत के बीच उचित सामंजस्य व इनकी एक-दूसरे पर निर्भरता। आज जलवायु परिवर्तन से होने वाले कृषि के नुकसान को कम करने के साथ ही कृषि द्वारा किए जाने वाले गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने में भी समग्र खेती मददगार साबित हो रही है। इस प्रकार जैविक अथवा स्थायी कृषि को अपनाकर कृषि द्वारा होने वाले ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम किया जा सकता है।
विभिन्न कृषि गतिविधियों द्वारा मिट्टी में कार्बन का पृथककरण
गतिविधि | मिट्टी में कार्बन का अवशोषण (किग्रा./हे. |
कम्पोस्ट | 1000 से 2000 |
बिना जुताई | 100 से 500 |
फसल चक्र | 0 से 200 |
खाद | 0 से 1400 |
कवर + फसल चक्र | 900 से 1400 |
कम्पोस्ट + कवर + फसल चक्र + बिना जुताई | 2000 से 4000 |
(लेखक गोरखपुर एनवायरंमेंटल एक्शन ग्रुप के मीडिया समन्वयक हैं।)
ई-मेल: jitendraadf@gmail.com